- शूर्पणखा काव्य उपन्यास-- नारी विमर्श पर अगीत विधा खंड काव्य .....रचयिता -डा श्याम गुप्त
विषय व भाव भूमि
स्त्री -विमर्श व नारी उन्नयन के महत्वपूर्ण युग में आज जहां नारी विभिन्न क्षेत्रों में पुरुषों से कंधा मिलाकर चलती जारही है और समाज के प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति की ओर उन्मुख है , वहीं स्त्री उन्मुक्तता व स्वच्छंद आचरण के कारण समाज में उत्पन्न विक्षोभ व असंस्कारिता के प्रश्न भी सिर उठाने लगे हैं |
गीता में कहा है कि .."स्त्रीषु दुष्टासु जायते वर्णसंकर ..." वास्तव में नारी का प्रदूषण व गलत राह अपनाना किसी भी समाज के पतन का कारण होता है |इतिहास गवाह है कि बड़े बड़े युद्ध , बर्बादी,नारी के कारण ही हुए हैं , विभिन्न धर्मों के प्रवाह भी नारी के कारण ही रुके हैं | परन्तु अपनी विशिष्ट क्षमता व संरचना के कारण पुरुष सदैव ही समाज में मुख्य भूमिका में रहता आया है | अतः नारी के आदर्श, प्रतिष्ठा या पतन में पुरुष का महत्त्वपूर्ण हाथ होता है | जब पुरुष स्वयं अपने आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक, धार्मिक व नैतिक कर्तव्य से च्युत होजाता है तो अन्याय-अनाचार , स्त्री-पुरुष दुराचरण,पुनः अनाचार-अत्याचार का दुष्चक्र चलने लगता है |
समय के जो कुछ कुपात्र उदाहरण हैं उनके जीवन-व्यवहार,मानवीय भूलों व कमजोरियों के साथ तत्कालीन समाज की भी जो परिस्थिति वश भूलें हुईं जिनके कारण वे कुपात्र बने , यदि उन विभन्न कारणों व परिस्थितियों का सामाजिक व वैज्ञानिक आधार पर विश्लेषण किया जाय तो वे मानवीय भूलें जिन पर मानव का वश चलता है उनका निराकरण करके बुराई का मार्ग कम व अच्छाई की राह प्रशस्त की जा सकती है | इसी से मानव प्रगति का रास्ता बनता है | यही बिचार बिंदु इस कृति 'शूर्पणखा' के प्रणयन का उद्देश्य है |
विषय व भाव भूमि
स्त्री -विमर्श व नारी उन्नयन के महत्वपूर्ण युग में आज जहां नारी विभिन्न क्षेत्रों में पुरुषों से कंधा मिलाकर चलती जारही है और समाज के प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति की ओर उन्मुख है , वहीं स्त्री उन्मुक्तता व स्वच्छंद आचरण के कारण समाज में उत्पन्न विक्षोभ व असंस्कारिता के प्रश्न भी सिर उठाने लगे हैं |
गीता में कहा है कि .."स्त्रीषु दुष्टासु जायते वर्णसंकर ..." वास्तव में नारी का प्रदूषण व गलत राह अपनाना किसी भी समाज के पतन का कारण होता है |इतिहास गवाह है कि बड़े बड़े युद्ध , बर्बादी,नारी के कारण ही हुए हैं , विभिन्न धर्मों के प्रवाह भी नारी के कारण ही रुके हैं | परन्तु अपनी विशिष्ट क्षमता व संरचना के कारण पुरुष सदैव ही समाज में मुख्य भूमिका में रहता आया है | अतः नारी के आदर्श, प्रतिष्ठा या पतन में पुरुष का महत्त्वपूर्ण हाथ होता है | जब पुरुष स्वयं अपने आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक, धार्मिक व नैतिक कर्तव्य से च्युत होजाता है तो अन्याय-अनाचार , स्त्री-पुरुष दुराचरण,पुनः अनाचार-अत्याचार का दुष्चक्र चलने लगता है |
समय के जो कुछ कुपात्र उदाहरण हैं उनके जीवन-व्यवहार,मानवीय भूलों व कमजोरियों के साथ तत्कालीन समाज की भी जो परिस्थिति वश भूलें हुईं जिनके कारण वे कुपात्र बने , यदि उन विभन्न कारणों व परिस्थितियों का सामाजिक व वैज्ञानिक आधार पर विश्लेषण किया जाय तो वे मानवीय भूलें जिन पर मानव का वश चलता है उनका निराकरण करके बुराई का मार्ग कम व अच्छाई की राह प्रशस्त की जा सकती है | इसी से मानव प्रगति का रास्ता बनता है | यही बिचार बिंदु इस कृति 'शूर्पणखा' के प्रणयन का उद्देश्य है |
स्त्री के नैतिक पतन में समाज, देश, राष्ट्र,संस्कृति व समस्त मानवता के पतन की गाथा निहित रहती है | स्त्री के नैतिक पतन में पुरुषों, परिवार,समाज एवं स्वयं स्त्री-पुरुष के नैतिक बल की कमी की क्या क्या भूमिकाएं होती हैं? कोई क्यों बुरा बन जाता है ? स्वयं स्त्री, पुरुष, समाज, राज्य व धर्म के क्या कर्तव्य हैं ताकि नैतिकता एवं सामाजिक समन्वयता बनी रहे , बुराई कम हो | स्त्री शिक्षा का क्या महत्त्व है? इन्ही सब यक्ष प्रश्नों के विश्लेषणात्मक व व्याख्यात्मक तथ्य प्रस्तुत करती है यह कृति "शूर्पणखा" ; जिसकी नायिका राम कथा के दो महत्वपूर्ण व निर्णायक पात्रों व खल नायिकाओं में से एक है , महानायक रावण की भगिनी --शूर्पणखा | अगीत विधा के षटपदी छंदों में निबद्ध यह कृति-वन्दना,विनय व पूर्वा पर शीर्षकों के साथ ९ सर्गों में रचित है |
पिछले सर्ग-४ मन्त्रणा में श्री राम ऋषि-मुनियों स्व उचित मंत्रणा के उपरांत -गोदावरी के किनारे पंचवटी पर अपना निवास-स्थल स्थापित करते हैं। प्रस्तुत सर्ग -५ -पंचवटी में रह कर राम, लक्ष्मण व सीता जन-जागरण अभियान के लिए अपने अपने कार्यों में निरत होते हैं | कुल छंद-- ५८...जो चार भागों में वर्णित किये जायेंगे | प्रस्तुत है भाग -एक...छंद १ से १२ तक.....
१-
पंचवटी में बास हुआ जब ,
अनुज सहित सीता-रघुवर का ;
धन्य हुआ सारा दंडक-वन |
थे प्रसन्न सब ही नर-नारी,
वनचारी ऋषि-मुनि गण सारे ;
भक्ति भाव रस लीन हुए थे ||
२-
गुनगुन करने लगे मधुप-गण,
फूल उठी थीं सुमनावलियाँ |
खग मृग वृन्द कुलाचें भरते,
तरु शिखर सजाएं नव-पल्लव |
वन पर्वत नदी ताल सब ही ,
शुचि सुन्दर रूप सुहाए थे ||
३-
सीता बोलीं राघव सुनिए,
स्मृति में वे दिन आते हैं|
घूमते मुदित मन लक्ष्मण संग,
जब अपनी पुष्प वाटिका में |
जब ओस कणों के मोती से-
बिखराती अंशु, वाल-रवि१ की ||
४-
थी क्या वह लता-कुंज सुन्दर,
या सम्मुख के विभु पर्वत पर;
फ़ैली हरीतिमा सुखकर है |
या रंग-विरंगी चूनर से,
सजकर विशाल तरु-शिखरों पर;
चढ़तीं, गर्वोन्नत वल्लरियाँ ||
५-
मैं तो यह सोच रही राघव !
बंधन में थी, मर्यादा के;
पर यहाँ मुक्त स्वच्छंद केलि |
यह अवसर भी कब मिल पाता,
नित साथ आपके विचर सकूं ;
बैठूं, कुछ बातें कर पाऊँ ||
६-
ये सुखद पवन के मर्मर स्वर ,
विहगों की कूजन-कलरव ध्वनि |
बालाओं के, वे चारु-नृत्य ,
ये भक्ति -ज्ञान की सब बातें |
कब मिलते ये उल्लास भाव-
सुषमा आश्रमों -तपोवन की ||
७-
हाँ सीते ! एसा अतुल प्रेम,
था अब तक कहाँ देख पाया |
राजसी-भाव-युत राजमहल,
उस राजभवन के अनुपमतम ;
रमणीक-रम्य उपवन से भी,
है सुखदायी यह वनस्थली ||
८-
छलहीन प्रेम ऋषि-मुनियों का,
वन-ललनाओं की मुस्कानें |
जीवन यापन की कठोरता,
में भी मुस्काता अल्हड़पन |
ग्राम्य-वासियों का भोलापन,
उन नगरों में उपलब्ध कहाँ ||
९-
पर याद भरत की आजाती,
वह विनय-भाव भूषित आनन |
राज्य धर्म- रत वीर शत्रुहन ,
वे त्याग -भक्ति की दो मूरत;
माता सुमित्रा, कौशल्या, औ-
कैकेयी के दारुण दुःख की ||
१०-
श्रुतिकीर्ति, मांडवी सी बहनें२ ,
वह त्याग-तपस्या की मूरत;
विरहानल सहती तपस्विनी,
उर्मिल३ के अंतहीन दुःख की -
यादें मन को मथ जाती हैं ,
भर आये लोचन सीता के ||
११-
एक समय विनती कर, लक्ष्मण -
बोले, रघुवर से , हे भ्राता !
शंका एक, निवारण करदें |
पिता हमारे, राजा दशरथ,
थे सम्राट चक्रवर्ती४ वे;
वेद-विधान नीति पारंगत ||
१२-
वह सब भार भरत पर है अब ,
कैसे वे कर रहे व्यवस्था ?
क्या व्यबहार सुधी नृप के हों ,
दुष्ट नृपों के विचार कैसे ?
राघव भेद सहित समझाएं ,
हरषे रघुपति , वाणी सुनकर || ----क्रमश : ....सर्ग ५-पंचवटी -भाग-दो....अगले पोस्ट में ...
कुन्जिका-- १= सीताजी अपने अयोध्या के राजमहल की प्रातःकाल का वर्णन करते हुए याद करती है की कैसे ,भोर के उगते हुए सूर्य की किरणें पुष्पों -पत्तियों पर जमी हुई ओस में मोतियों जैसी चमक बिखेरतीथीं ..
२= सीता, मांडवी, उर्मिला व श्रुतिकीर्ति --राजा जनक की चार कन्याएं थी जो क्रमश: राम, भरत, लक्ष्मण व शत्रुहन को ब्याही गईं थी | जन श्रुति के अनुसार -सीता जनक की पालिता कन्या, उर्मिला जनक की पुत्री व मांडवी और श्रुतिकीर्ति महाराजा जनक के छोटे भ्राता की पुत्रियाँ थीं |...३= --सीता पति के साथ थी, बाकी दोनों बहनें पति के साथ व महलों में थीं ही , उर्मिला न तो पति के साथ थी न महलों का सुख भोग सकती थी अतः वास्तविक तपस्या तो उर्मिला की ही थी-----उसी तपस्या की गहनता की स्मृति सीता, राम से बाँट रही हैं ।...४= महाराज दशरथ अत्यंत अनुभवी व चक्रवर्ती सम्राट थे जो देवराज इंद्र के युद्धों में सहायक थे व पृथ्वी के अधिकाँश नरेश उनके मित्र व अधीन थे ...उनकी अचानक मृत्यु से उत्पन्न परिस्थिति व राजनीति की विषम स्थिति को साधु प्रकृति के सहज सरल ह्रदय भरत अकेले कैसे संभालेंगे, यही लक्ष्मण की चिंता का विषय था |
२= सीता, मांडवी, उर्मिला व श्रुतिकीर्ति --राजा जनक की चार कन्याएं थी जो क्रमश: राम, भरत, लक्ष्मण व शत्रुहन को ब्याही गईं थी | जन श्रुति के अनुसार -सीता जनक की पालिता कन्या, उर्मिला जनक की पुत्री व मांडवी और श्रुतिकीर्ति महाराजा जनक के छोटे भ्राता की पुत्रियाँ थीं |...३= --सीता पति के साथ थी, बाकी दोनों बहनें पति के साथ व महलों में थीं ही , उर्मिला न तो पति के साथ थी न महलों का सुख भोग सकती थी अतः वास्तविक तपस्या तो उर्मिला की ही थी-----उसी तपस्या की गहनता की स्मृति सीता, राम से बाँट रही हैं ।...४= महाराज दशरथ अत्यंत अनुभवी व चक्रवर्ती सम्राट थे जो देवराज इंद्र के युद्धों में सहायक थे व पृथ्वी के अधिकाँश नरेश उनके मित्र व अधीन थे ...उनकी अचानक मृत्यु से उत्पन्न परिस्थिति व राजनीति की विषम स्थिति को साधु प्रकृति के सहज सरल ह्रदय भरत अकेले कैसे संभालेंगे, यही लक्ष्मण की चिंता का विषय था |
-सर्ग ५-पंचवटी ..भाग -दो
पिछले पोस्ट ...सर्ग ५--पंचवटी .भाग -एक में लक्ष्मण राम से भारत के माध्यम से नृपों के गुणावगुण बताने का आग्रह करते हैं | प्रस्तुत पोस्ट -सर्ग ५-पंचवटी ..भाग -दो में सीता जी उसका विस्तृत वर्णन कर रही हैं ....छंद १३ से ३१ तक....
१३-
राज्यश्री धरती माँ सम है,
बोले राम, सभी के उत्तर;
कहें जानकी यही उचित है |
सिय बोलीं-उचित भूप पाकर,
माता धरती हर्षित होती ;
उर्वरा शक्ति करती प्रकटित ||
१४-
धन धान्य श्री पुष्पित होकर,
प्रकृति भी मुस्काने लगती |
वर्षा-बसंत सब ऋतुएँ भी,
हैं उचित समय आती जातीं |
सब प्रजा सुखी संपन्न हुई,
राजा की जय गाती रहती ||
१५-
भूप जो प्रजा के पालन में,
पिता समान भाव दिखलाता |
सब में निज सुख-दुःख भाव किये,
विविध विधान धर्म अपनाता |
लघुतम से लघुतम प्राणी का ,
न्याय धर्म युत रखता ध्यान ||
१६-
प्रजा स्वयं भी प्रेम भाव की,
सुर-सरिता में बहती रहती |
सब परमार्थ भाव रत रहते,
नारी का अपमान न होता |
चोरी ठगी अधर्म भाव का,
सपने में भी ध्यान न आता ||
१७-
अश्लील साहित्य कर्म का,
लेश मात्र भी जिक्र न होता |
नारि-पुरुष सब उचित आचरण,
सात्विक कर्म-धर्म अपनाते |
धीर वीर नृप की छाया में ,
जन निर्भय आनंदित रहता ||
१८-
देश की रक्षा, संस्कृति रक्षण ,
तथा प्रजा के व्यापक हित में ;
अधर्मियों से विधर्मियों से,
अन्यायी लोलुप जन जो हों ;
कभी नहीं समझौता करता ,
वही नृपति अच्छा शासक है ||
१९-
पर जो शासक निज सुख के हित,
अत्याचार प्रजा पर करता |
अधर्म-मय, अन्याय कर्म से ;
अपराधों को प्रश्रय देता |
अप विचार, अपकर्म भाव में,
जन जन पाप-लिप्त हो जाता ||
२०-
हिंसा चोरी अनृत भावना,
नर-नारी को भाने लगती|
अश्लील कृत्यों से नारी,
अपने को कृत-कृत्य समझती |
लूट अपहरण बलात्कार के,
विविध रूप अपनाए जाते ||
२१-
अति भौतिक सुख लिप्त हुए नर,
मद्यपान आदिक विषयों रत;
कपट झूठ छल और दुष्टता,
के भावों को प्रश्रय देते |
भ्रष्टाचार, आतंकवाद में,
राष्ट्र, समाज लिप्त हो जाता ||
२२-
पाप, अधर्म-नीति कृत्यों से,
प्रकृति माता विचलित होती |
अनावृष्टि अतिवृष्टि आदि से,
धरती की उर्वरता घटती |
कमी धान्य-धन की होने से,
बनती है अकाल की स्थिति ||
२३-
नीतिवान धर्मग्य भारत हैं,
साथ सभी को लेकर चलते|
रक्षाहित तत्पर हैं शत्रुहन,
प्रजा सुखी संतप्त रहेगी |
सुखद समर्थ प्रवंधन होगा,
चिंता की कुछ बात नहीं है ||
२४-
लक्ष्मण,तुम अब जान चुके हो,
मूल उद्देश्य, वनागमन का |
नाश राक्षसों का करना है ,
स्थिर करना है फिर हमको;
शास्त्र धर्म शुचि मर्यादाएं ,
ऋषि प्रणीत जीवन शैली की ||
२५-
इस अंचल के पिछड़े पन को,
हमको दूर हटाना होगा |
शिक्षा देकर के जन जन का,
जीवन सुलभ बनाना होगा |
विविध शिल्प औ शस्त्र कला का,
उन्हें कराना होगा ज्ञान ||
२६-
दुखी असंगठित एवं पिछड़ी,
प्रजा रहे, वह राजा ही क्या |
एसे किसी राज्य का लक्ष्मण,
राजा बन कर भी क्या करना |
शिक्षित सुखी संतुष्ट प्रजा ही,
उन्नत सिर हैं राजाओं के ||
२७-
शिक्षित सज्जन सुकृत संगठित,
बनें क्रान्ति में स्वयं सहायक ;
लक्ष्मण सदा सफल होती वह |
पर असंयमित हो जाती है,
भीड़ अशिक्षित हो, असंगठित;
भय विघटन,प्रति-क्रान्ति का रहता ||
२८-
आताताई के विरोध में,
जन संकुल को लाना होगा |
जन जन ज्वार समर्थन से ही ,
मिल पायेगी विजय युद्ध में |
बड़ी बड़ी सेनाओं से भी,
नहीं कार्य यह सध पाता है ||
२९-
यदि मैं सेना लेकर आता,
प्रतिपग मग पर विरोध होता |
राज्य प्रसार लालसा का भी,
कौशल पर आक्षेप ठहरता |
सतर्क होजाते राक्षस -कुल,
पूरी तैयारी से पहले ||
३०-
लक्ष्मण हमको इसी भूमि की ,
मिट्टी से हैं वीर उगाने |
आतंक और अन्याय भाव से,
लड़ने के हैं भाव जगाने |
ताकि लौटने पर हम सबके,
वे हों स्वयं कुशल निजहित में ||
३१-
शीश नवा कर लक्ष्मण बोले-
राम नाम की महिमा से प्रभु,
मिट्टी भी सोना होजाती |
इच्छा है जब स्वयं राम की,
सोती धरती जाग उठेगी ;
आज्ञा दें अब क्या करना है || क्रमश:..सर्ग-५ पन्चवटी...भाग तीन...
पिछले पोस्ट सर्ग ५-पंचवटी ..भाग दो में.. राम , लक्ष्मण को अपना कार्यक्रम बताते हैं ,लक्ष्मण कहते हैं की बताएं अब कैसे करना है |
पिछले पोस्ट सर्ग-५-भाग तीन में..रम लक्ष्मण सीता- पन्च्वटी में जन जागरण अभियान में संलग्न होते हैं। प्रस्तुत सर्ग-५ पंचवटी अन्तिम भाग में अशान्त मन लक्ष्मण --राम से को दर्शन-अद्यात्म,ईश्वर-जीव, विध्या-अविद्या ,माया ,भक्ति आदि के बारे में ग्यान व उनके वास्तविक अर्थ बताने की जिग्यासा प्रकट करते हैं...और भगवान राम इन अध्यात्म भावों.का वर्णन करते हैं....छंद ४५ से ५८ तक......
पिछले पोस्ट सर्ग ५-पंचवटी ..भाग दो में.. राम , लक्ष्मण को अपना कार्यक्रम बताते हैं ,लक्ष्मण कहते हैं की बताएं अब कैसे करना है |
प्रस्तुत भाग तीन में वे अपनी विकास योजनाओं का कार्यान्वन करते हैं .....छंद ३२ से ४० तक....
३२-
सभा, प्रबंधन और निरीक्षण ,
ऋषि-मुनियों संग विविधि गोष्ठियों ;
के आयोजन, कार्यान्वन का,
सारा भार लिया रघुवर ने |
नारी-वालक शिक्षा का और-
जन जागरण१ भार सीता ने ||
३३-
गृह निर्माण व युद्ध कला में-
विशेषग्य ,सौमित्र को मिला ;
भार प्रोद्योगिकी -शिक्षा एवं-
आयुध की निर्माण कला का |
एवं संचालन -कौशल को ,
जन जन में प्रसार करने का ||
३४-
लिखना पढ़ना व सद-आचरण,
महिलाओं बच्चों को, सबको;
अपनी कुटिया के कुंजों की,
छाया में वे जनक-नंदिनी;
आदर प्रेम से सिखलाती थीं,
दीप, दीप से जलता जाता२ ||
३५-
लक्ष्मण लगे सिखाने सब को,
धनुष बनाना, वाण चलाना |
शस्त्रों के निर्माण-ज्ञान सब,
शर-संधान व उचित निशाना |
धनुष-वाण, तरकश सब आयुध,
बनने लगे, हर कुटी वन में ||
३६-
सुन्दर सुद्रिड और सुरक्षित,
कुटिया-गृह निर्माण शिल्प का;
ज्ञान कराते थे रामानुज |
विविध शिल्प व श्रम की महत्ता -
उपयोगिता, दिखाते रहते;
हो स्वतंत्र निज अर्थ-व्यवस्था३ ||
३७-
ईश्वर महिमा, भजन-साधना,
लोक-कला, साहित्य-भावना;
चित्रकला, संगीत ज्ञान, सब-
बाल, वृद्ध, स्त्री-पुरुषों को ,
सिय-रामानुज लगे सिखाने ;
यह अंचल अब जाग रहा था ||
३८-
वन संपदा का रक्षण-वितरण,
विविधि भाँति फल-फूल उगाना |
नव-पद्दतियां, कृषि कर्मों४ की ,
सिखलाई जातीं कुटियों में |
वन व ग्राम की कला-कथाएं ,
सीखते व सुनते सिय-लक्ष्मण ||
३९-
योग भक्ति अध्यात्म ज्ञान का,
विविधि भांति की नीति-कथाओं ;
के ,कहने सुनने समझाने,
का क्रम स्वयं राम करते थे |
प्रातः सायं , प्रार्थना सभा में,
ऋषि-मुनियों का प्रवचन होता ||
४०-
रक्षा में, सौमित्र -गुणाकर,
किये नियोजित थे रघुवर ने |
पंचवटी का आसमान था,
यज्ञ -धूम से हुआ सुवासित |
कर्मठता से रामानुज की,
वन-उपांत५ थे अभय होगये ||
४१-
पूनम की चन्द्र-छटा निशि थी,
लक्ष्मण, वीरासन६ पर बैठे |
धनु-वाण हाथ में लिए सजग,
कुटिया की रक्षा में तत्पर |
अति-सुन्दर कामिनि रूपमयी,
रामानुज७ के सम्मुख आयी ||
४२-
हे देवि ! आप हैं कौन और,
क्यों दर्शन दिए, कृतार्थ किया |
षोडशि ने किया प्रणाम, कहा-
आपके लिये ही प्रकट हुई |
हे वीर व्रती ! पहचानो तो,
मैं दुखिया नींद आपकी हूँ ||
४३-
लक्ष्मण बोले, हे देवि! सुनो-
तुम जाओ अवधपुरी धामा |
है राह आपकी, देख रही,
वह दुखियारी सुन्दर वामा८ |
'हों सफल आपके सारे व्रत,
हे वीर व्रती ! आशीष मेरा ||'
४४-
निद्रा आशीष दे चली गयी,
लक्ष्मण मन सोच हुआ भारी |
क्यों स्मृति उठी उर्मिला की,
शायद मन आज अशांत हुआ |
ज्ञान विराग भक्ति का प्रभु से,
श्रवण-मनन फिर करना होगा९ || ---क्रमश: --सर्ग-५..पंचवटी ..अंतिम भाग-४...
{कुंजिका--- १= वास्तव में यह अवध, मिथिला व अन्य महत्वपूर्ण शक्तिशाली राज्यों का एक उद्दश्य था कि
पिछड़े व अत्याचारों त्रस्त दक्षिणांचल जो पराधीनता में अर्थ व्यवस्था नष्ट होने से भूख, गरीबी, अंधविश्वास, अकर्मण्यता , अनाचारण में लिप्त है उसे जन-जागरण द्वारा इन सब से मुक्त कराया जाय | लगभग १३ वर्ष तक राम-लक्ष्मन सीता पंचवटी स्थित होकर यही जन जागरण अभियान चलाते रहे थे |...२= सिखाने का, ज्ञान व कला का क्रम कोइ एक प्रारम्भ तो करे फिर तेजी से -एक से दूसरे तक होकर अनेकों फिर सारे समाज में फैलता है ...३= अर्थ व्यवस्था पर ही सब कुछ टिका होता है...भूखे भजन न होय गुपाला...उसी मुख्य तत्व को श्रम आदि की महत्ता से जन जन में फैलाया गया....४= नवीन विकास की बातें, पद्दतियां अपनाना ही प्रगति का पथ है....५= समस्त वनांचल व आबादी वाला भूभाग स्वतंत्र होने लगा ....६= एक दम चोकन्ना होकर धनुष-वाण हाथ में चढाकर छोड़ने को तत्पर बैठी हुई मुद्रा.....७= राम के अनुज..लक्ष्मण का एक प्रिय नाम... ८= पत्नी उर्मिला की स्मृति कि वह पता नहीं ( अवश्य ही नहीं ) सोती होगी या नहीं |}
पिछले पोस्ट सर्ग-५-भाग तीन में..रम लक्ष्मण सीता- पन्च्वटी में जन जागरण अभियान में संलग्न होते हैं। प्रस्तुत सर्ग-५ पंचवटी अन्तिम भाग में अशान्त मन लक्ष्मण --राम से को दर्शन-अद्यात्म,ईश्वर-जीव, विध्या-अविद्या ,माया ,भक्ति आदि के बारे में ग्यान व उनके वास्तविक अर्थ बताने की जिग्यासा प्रकट करते हैं...और भगवान राम इन अध्यात्म भावों.का वर्णन करते हैं....छंद ४५ से ५८ तक......
४५-
एक बार कर चरण वन्दना ,
लक्ष्मण बोले रघुनन्दन से |
ईश्वर जीव और माया का,
भेद बताएं, हे भ्राता श्री !
ज्ञान,विराग,भक्ति के हे प्रभु!
अर्थ कहें, भ्रम-शोक दूर हो ||
४६-
मैं और मेरा, तू और तेरा,
यह ही तो माया है लक्ष्मण !
जीव इसी के कारण ही तो,
माया -बंधन में पड़ता है |
मन की सोच जहां तक जाती,
यह सब ही माया बंधन है ||
४७-
विद्या और अविद्या रूपी,
हैं दो भेद-रूप माया के |
संसारी जन, तेरा-मेरा,
की आसक्ति-भाव पड़ जाते |
कर दुष्कर्म, भोगते सुख-दुःख,
यही अविद्या है हे लक्ष्मण !
४८-
लक्ष्मण वह जो ज्ञान भाव है,
मोह और आसक्ति त्याग कर;
व्यक्ति सभी को एक समझता |
सब ही उस ईश्वर की कृति हैं,
सब में स्थित ब्रह्म, जानता;
वही दृष्टि विद्या कहलाती ||
४९-
विद्या के वश सब जग होता ,
किन्तु बिना ईश्वर-इच्छा के;
जीव नहीं पा सकता उसको |
जीव, जो सब विद्या एवं गुण ,
रिद्धि-सिद्धि, सारे जग के सुख;
त्यागे क्षण में, परम-विरागी१ ||
५०-
लक्ष्मण यह मैं भाव अहं तो,
महाज्ञानियों को भी डसता;
सबसे बड़ा अहं साधक का |
धन सम्पति,वैभव व रूप कुल,
सांसारिक यह अहं-भाव२ तो;
धर्म-बोध से मिट सकता है ||
५१-
ज्ञान -अहं३ किन्तु साधक का,
अध्यात्म-पथ के राही का ;
अपने सर्वश्रेष्ठ होने का,
चाहत , पूजे सब जग उसको ;
सर्प-दंश के भाव की तरह,
इसका कोई नहीं उपाय ||
५२-
साधक है जो धर्म राह का,
अध्यात्म के पथ का राही;
मैं और मेरा, भाव से परे -
रहकर, त्याग भाव अपनाता |
वही विरागी कहे, संत को -
भला काम क्या, नाम-धाम से४ ||
५३-
जीव स्वयं ही ईश-अंश है,
माया-वश बंधन में पड़ता |
जब विद्या, सत्संग, भक्ति से,
श्रृद्धा , उत्तम ज्ञान-कर्म से;
माया त्याग, मोक्ष पाजाता ,
बिंदु ,सिन्धु में मिल जाता है५ ||
५४-
धर्म नीति युत, सत्य कर्म से,
माया से विराग जब होता |
योग ध्यान तप से हे लक्ष्मण,
उत्तम ज्ञान प्राप्त हो पाता |
ज्ञान ,मोक्ष का अनुपम साधन,
विविधि वेद-शास्त्र सम्मत६ यह ||
५५-
किन्तु ईश की कृपा के बिना,
कहाँ प्राप्त यह ज्ञान किसी को |
ईश्वर जिससे शीघ्र द्रवित हो,
वह है निर्मल भक्ति-भाव ही |
भक्ति, स्वतंत्र भाव है सबसे,
ज्ञानादिक अधीन सब इसके ||
५६-
हों अनुकूल संत, सज्जन,प्रभु,
भक्ति तभी मिलती है भ्राता |
विद्वानों से भक्ति-प्रीति हो,
शास्त्र विहित निज नीति-कर्म हो;
विषय राग से जब विराग हो,
ईश्वर भक्ति-भाव मन उमंगे ||
५७-
ईश्वर के प्रति, दृढ़ श्रृद्धा हो,
श्रवण आदि, नवधा भक्ति रत ;
संत चरण अनुराग रखे जो,
गुरु पितु मातु बन्धु की सेवा;
में रत,ईश्वर-भक्ति मगन हो,
उसी ह्रदय में ईश्वर बसता ||
५८-
इस कारण ही तो हे लक्ष्मण !
यह भक्ति मुझे अति प्यारी है |
जब भक्त, ईश में लय होता,
ईश्वर उसके वश होजाता |
रामानुज हर्ष-विभोर हुए,
करते बार बार पद-वंदन || ---क्रमश: सर्ग-६...शूर्पणखा ....
[ कुन्जिका- १= वैराग्य कोई संसार छोड़ने का ही भाव नहीं है...जनक आदि महा सम्राट , सब सुख-सुविधा , सम्पन्नता वैभव भोग-भोगते हुए भी ..साधू, संत, ज्ञानी, गुरु के आने पर तत्काल सब कुछ त्याग कर उन्हें अपने सिंहासन तक भेंट करदेते है...उन्हें विदेह व परम-विरागी कहते हैं | महातपस्वी ऋषि-मुनि भी वैवाहिक सम्बन्ध सुख भोग भोगते हुए भी महात्यागी कहे जाते थे...यह गीता का( भारतीय जीवन-दर्शन का ) निष्काम कर्म का बीज-मूल भाव है |....२- सांसारिक लोगों का अहं, इच्छा बंधन ---वित्तैषणा, पुत्रेषणा, लोकेषणा( धन सम्पति, पुत्रादि, व प्रसिद्धि एवं नाम की इच्छा ) तो सामान्य बात है जो धर्म-ज्ञान जागने पर शांत हो सकती है ... ३= परन्तु ज्ञानी, साधक व विद्वानों में जब ज्ञान का अहं--कि सब हमें पूजें -- घर करता है तो वह उनके स्वयं के साथ समाज के लिए अत्यधिक् हानिकारक होता है क्योंकि ज्ञानी को समझाना अत्यधिक दुष्कर होता है |...४= जो महान त्यागी विरागी संत होते हैं वही नाम-इच्छा अर्थात लोकेषणा से परे रह सकते हैं |....५= यह ईश्वर-माया-जीव का --भारतीय वेदान्त का मूल दर्शन है कि--ब्रह्म( सिन्धु ) स्वयं जीव( बिंदु ) रूप होकर माया में बंधता है संसार भोगता है और कर्मों -सत्कर्मों के चक्रों द्वारा अंत में मोक्ष पाकर पुनः ईश्वर में विलीन होजाता है --यह भव-चक्र , संसार -चक्र चलता रहता है, इसे ही दुनिया कहते हैं |....६= सभी महान व्यक्तित्व, भगवद् जन , ज्ञानीजन, गुणीजन जो कुछ भी ज्ञान देते हैं स्वयं अपना ज्ञान /खोज नहीं कहते( आजकल के अधिकाँश साधू, संत, नेता, ज्ञानियों, वक्ताओं , धर्म वक्ताओं की भाँति ) अपितु अपने ज्ञान को वेद-आदि शास्त्रों से सीखा हुआ ही कहते हैं ताकि प्रामाणिकता बनी रहे .......राम स्वयं भगवान( वेदादि ज्ञान के मूल) होते हुए भी यह तथ्य नहीं भूलते कि वे इस समय सामान्य मानव के रूप में कार्यरत हैं .... ]
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