मंगलवार, 19 जनवरी 2010

सरस्वती वन्दना ------डा श्याम गुप्त

              
            सरस्वती वन्दना 
                         ( घनाक्षरी छंद )  


मंजुल मराल पै विहारिणी माँ शारदे !
मंजुल मराल सा पुनीत मन करदे |
चित का मयूरा नृत्य रत प्रीति स्वर गाये,
भरें नवभाव मातु एसा वर दे |
सुमति सुधा से शुचि सुन्दर सरस शब्द,
सुरुचि सुधीर शुद्ध भाव मन भर दे  |
कुमति विमति मति , विमल सुमति बने,
वीणा पाणि श्याम, माथ कृपा हस्त धरदे ||

हेम तन शुभ्र बसन , अम्बुज सुआसनी माँ,
जलज सामान शुभ्र निर्मल मन हो |
मंजू मुक्त माल कर लिए मातु वीणा पाणि ,
माला जैसा एक्य भाव जग में सहगान हो |
चार वेद हाथ लिए ज्ञान धन दायिनी माँ,
बुद्धि बल,ज्ञान, सुविज्ञान मेरा धन हो |
कुंद इंदु धवल तुषार हार गल सोहै,
वाणी स्वर दायिनी मन , श्याम का नमन हो ||


राग द्वेष कल्मष कलुष का तमस हटे
संयम सदाचरण रहें मन बस कर |
स्वार्थ अज्ञानता से  न हो लेखनी भ्रमित मातु,
रहें भाव अर्थ शब्द छंद रस बन झर |
जगत की करुणा के स्वर बसें लेखनी में ,
जग हित मातु नव भाव कवि मन भर |
सुधी जन सुधी पाठक सुधी भाव देश बढ़ें ,
भाव श्याम' सत्य शिव सुन्दरम मन धर ||

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शनिवार, 16 जनवरी 2010

डा श्याम गुप्त की गज़ल--

               गज़ल 


पास भी है किन्तु कितने दूर है ।
आपकी चाहों से भी अब दूर हैं |


आप चाहें या नहीं चाहें हमें ,
आप इस प्यासी नज़र के नूर हैं |


आप को है भूल जाने का सुरूर ,
हम भी इस दिल से मगर मज़बूर हैं |


चाह कर भी हम मना पाए नहीं ,
आपसे समझे यह कि हम मगरूर हैं |

आपको ही सिर्फ यह शिकवा नहीं ,
हम भी शिकवे-गिलों से भरपूर हैं |


आप मानें या न मानें 'श्याम हम,
आपके ख्यालों में ही मशरूर हैं ||