बुधवार, 16 मार्च 2016

ये आज पूछता है बसंत ---डा श्याम गुप्त ...



ये आज पूछता है बसंत

ये आज पूछता है बसंत
क्यों धरा नहीं हुलसाई है |
इस वर्ष नहीं क्या मेरी वह
बासंती पाती आई है |

क्यों रूठे रूठे वन-उपवन,
क्यों सहमी सहमी हैं कलियाँ |
भंवरे क्यों गाते करूण गीत,
क्यों फाग नहीं रचती धनिया |

ये रंग वसंती फीके से ,
है होली का भी हुलास नहीं |
क्यों गलियाँ सूनी-सूनी हैं,
क्यों जन-मन में उल्लास नहीं |

मैं बोला ऐ सुनलो बसंत !
हम खेल चुके बम से होली |
हम झेल चुके हैं सीने पर,
आतंकी संगीनें गोली |

कुछ मांगें खून से भरी हुईं,
कुछ दूध की बोतल खून रंगीं |
कुछ दीप-थाल, कुछ पुष्प-गुच्छ,
भी धूल से लथपथ खून सने |

कुछ लोग हैं खूनी प्यास लिए,
घर में आतंक फैलाते हैं|
गैरों के बहकावे में आ,
अपनों का रक्त बहाते हैं |

कुछ तन मन घायल रक्त सने,
आंसू निर्दोष बहाते हैं|
अब कैसे चढ़े बसन्ती रंग,
अब कौन भला खेले होली ?

यह सुन वसंत भी शरमाया,
वासंती चेहरा लाल हुआ |
नयनों से अश्रु-बिंदु छलके,
आँखों में खून उतर आया |

हुंकार भरी और गरज उठा,
यह रक्त बहाया है किसने!
मानवता के शुचि चेहरे को,
कालिख से पुतवाया किसने |

ऐ उठो सपूतो भारत के,
बासंती रंग पुकार रहा |
मानवता की रक्षा के हित,
तुम भी करलो अभिसार नया |

जो मानवता के दुश्मन हैं,
हो नाता, रिश्ता या साथी |
जो नफ़रत की खेती करते,
वे देश-धर्म के हैं घाती |

यद्यपि अपनों से ही लड़ना,
यह सबसे कठिन परीक्षा है |
सड़ जाए अंग अगर कोई,
उसका कटना ही अच्छा है |

ऐ देश के वीर जवान उठो,
तुम कलमवीर विद्वान् उठो |
ऐ नौनिहाल तुम जाग उठो,
नेता मज़दूर किसान उठो |

होली का एसा उड़े रंग,
मन में इक एसी हो उमंग |
मिलजुलकर देश की रक्षा हित,
देदेंगे तन मन,  अंग-अंग |