शुक्रवार, 30 मार्च 2012

बाल गीत .... दुर्गा जी ...डा श्याम गुप्त ...



भक्तों की तारिणी माँ,
आठ  भुजा धारी है ।
कर में त्रिशूल, कमल,
खड्ग  गदा धारी है  ।

शंख चक्र  धनु बाण ,
ओउम करतल सोहे।
स्वर्ण आभूषण जटित,
धवल कांति मन मोहे ।

शैलपुत्री,  चंद्रघंटा ,
कूष्मांडा,ब्रह्मचारिणी।
स्कंदमाता, कालरात्रि,
और  कात्यायिनी ।

महागौरी,  सिद्धिदात्री,
नौ   रूप  धारी   है।
मुख पर मुस्कान मृदुल,
दुष्ट दमनकारी है ।

सृष्टि की सृजक माता,
जग पालन हारी है।
आदिशक्ति,जगदम्बे,
लाल  वस्त्र  धारी है।

दुर्गति निवारिणी माँ,
दुःख: हरण हारी है।
बच्चो ! ये दुर्गा माँ,
सिंह की सवारी है ।।


 

मंगलवार, 27 मार्च 2012

इन्द्रधनुष.....अंक सात -----स्त्री-पुरुष विमर्श पर..... डा श्याम गुप्त का उपन्यास....



          


                                             




    

     
    
  







  ’ इन्द्रधनुष’ --- स्त्री-पुरुष विमर्श पर एक नवीन दृष्टि प्रदायक उपन्यास
....पिछले अंक छः  से क्रमश:......


   

                           










                                                           अंक सात 
                           धीरे धीरे  जब चर्चाएँ गुनगुनाने लगीं तो एक दिन सुमि कहने लगी, 'कोई सफाई नहीं कृष्ण । भ्रम में जीने दो सभी को । परवाह नहीं । अधिकाँश तो बड़ी बड़ी डिग्रियां लेकर अर्थ के पुजारी बनने वाले हैं । प्रेम, मित्रता, जीवन-दर्शन, मूल्य, संस्कृति , कला, सत्य, परमार्थ , साहित्य आदि व्यर्थ हैं , महत्वहीन  हैं उनकी कल्पना में । शायद मैं कुछ स्वार्थी होरही हूँ , तुम्हें यूज़ कर रही हूँ ; पर मेरे विश्वासी राजदार मित्र हो न, तुम्हारे साथ रहते कोई अन्य तो लाइन मार कर बोर नहीं करेगा न ।', वह आँखों में गहराई तक झांकते हुए कहती गयी ।
             मैंने प्रश्नवाचक निगाहों से देखा तो उसने अचानक पूछ लिया, 'कोई गम या अविश्वास मन ही मन ?' 
            ' कभी एसा लगा?' मैंने प्रत्युत्तर में कहा ।
            'नहीं ।
            तो सुनो ,
                                  'ग़म की तलाश कितनी आसान है । सिर्फ ग़मगीन इंसान ही है जो खुदकुशी पर आमादा  होजाता है, वर्ना ये चहचहाते हुए परिंदे, ये लहलहाते हुए फूल अपनी मुख़्तसर सी ज़िंदगी में इतने गमगीन नहीं होते की खुदकुशी करलें ।'   
           
          ' वाह !  मीनाकुमारी पढ़ रहे हो आजकल ।' 
           'अभी तो सुमित्रा कुमारी पढ़ रहा हूँ ।'
           'हूँ, ......तो सुनो सुमि का लालची आत्म निवेदन ----
                              
                              "  मैं हूँ लालच की मारी, ये पल प्यार के,
                                      चुनके सारे के सारे ही, संसार के,
                                           रखलूँ आँचल में अपने यूं संभाल के ।
                                               चाहती हूँ, कोई लम्हा रूठे नहीं ,
                                                       ज़िंदगी का कोई रंग छूटे नहीं ।।     
                और---
                                        " प्यार का जो खिला है ये इन्द्रधनुष ,
                                                 जो है कायनात पै सारी छाया हुआ।
                                                      प्यार के गहरे सागर में दो छोर पर,
                                                            डूबकर मेरे मन में समाया हुआ ।
                                                                उसके झूले में मैं झूलती हूँ मगन,
                                                                     सुख से लबरेज़ है मेरा मन मेरा तन ।।" 
         
              'वास्तव में  मेरी भी स्वार्थ पूर्ति होती है,  इसमें सुमि ! मैं कहा करता हूँ न कि हम सब कुछ  अपने लिए ही करते हैं ', मैंने कहा।
             ' क्या मतलब ?' 
             'घर वाले शादी की जल्दी नहीं करेंगे । जोर भी नहीं डाल पायेंगे ।' 
             'अच्छा, ये बात ! नहले पै दहला ।' वह खिलखिलाते हुए बोली , 'चलने दो ।'

                          **                             **                                  **

                                   'बड़ी सुन्दर एतिहासिक इमारत है और नदिया का किनारा , क्या बात है ।' सुमि इमारत के दरवाजे पर  आकर कहने लगी।  तभी सामने से साइकल पर 'अनु' कम्पाउंड के अन्दर आती हुई दिखाई दी । मुझे अचानक सामने देखकर हड़बड़ाहट में  ब्रेक लग जाने से साइकल फिसल गयी ।  मैंने तुरंत उसे उठाते हुए पूछा,  'चोट तो नहीं आई, लाओ देखें ।'  वह झटके से हाथ छुड़ाकर सुमि की और देखती हुई बोली, 'तुम यहाँ ?'
              ' मैं... क्या तुम मुझे जानती हो ?'  मैंने एकदम निर्विकार भाव से पूछा ।
              ' अच्छा शाम को घर आओ, तब  बताती हूँ ।', 'वैसे ये कौन हैं ?' उसने सुमित्रा की ओर इशारा किया ।
             ' ये डा सुमित्रा और मैं डा कृष्ण गोपाल । हम लोग डाक्टर हैं और मरीज़ ढूँढते रहते हैं ।  तभी तो पूछ रहा हूँ चोट तो नहीं आई,  देखें ।'  मैंने उसका हाथ पकड़ने का उपक्रम करते हुए कहा, ' ये हमारा फ़र्ज़ है न ।'
             अनु ने दूर होते हुए कहा, ' शाम को घर आकर फ़र्ज़ पूरा करना ।' और भुनभुनाते हुए चल दी, फिर मुड़ कर बोली , ' भूल गए हो तो बता देती हूँ, सामने ही है घर मेरा ।'
              ' क्या अधिकार है तुम्हारे ऊपर।  बड़ी प्यारी है, कौन है यह ।' सुमित्रा न पूछा।
              'अनु,  अनुराधा, मेरी बचपन की सखी ।'
              क्या बात है,  'लरिकाई कौ प्रेम कहो अलि कैसे छूटै  ।'  बड़े लकी हो तुम तो यार । तुम तो सचमुच ही.....  यारों के यार हो ।' मैंने स्वयं ही वाक्य पूरा किया तो सुमित्रा बोली, ' यस, इन्डीड '...तो यह है वो ।'
             'और तुम क्या हो ?'
             ' मैं तो कुछ भी नहीं हूँ केजी ।'  वह निश्वांस छोड़कर बोली,  'खैर, 'वो '  वो  ही रहेगी या.....????...बात आगे बढ़ेगी तो बहुत अच्छा रहेगा ।'
              ' आकाश-कुसुम ।'
              ' तुम या वह ?'
              ' परिस्थिति, सुमित्रा जी ।  मैं अभी काफी समय तक शादी की नहीं सोचता और अनु के घर वाले तब तक नहीं रुक पायेंगे ।'
              ' यद्यपि उसकी उम्र अधिक नहीं  है पर लगता है बहुत चाहती है तुम्हें ।  यह प्रेम का मामला होता ही एसा है ।'  सुमि बोली ।
              ' प्रेम..... मैंने हंसते हुए कहा ।  प्रेम क्या है, अभी से जानने लगी क्या अनु ?  यह कौतूहल, जिज्ञासा होती है एक आश्चर्यजनक नयी दुनिया के प्रति, विपरीत लिंगी के प्रति ।'
             ' अरे नहीं , केजी ! लड़कियां जल्दी मेच्योर हो जाती हैं।  प्रेम का अर्थ लड़कों से पहले जानने लगती हैं।'
             ' और लड़कों को फंसाकर प्राय: स्वयं फंस जाती हैं और बाद में दोनों ही पछताते हैं ', मैंने कहा ' विवाहेतर संबंधों का एक मूल कारण यह भी है ।  भारतीय समाज में तो  अधिक फर्क नहीं पड़ता था, यहाँ तो अपर-सम्बन्ध खूब चलते हैं और चुपचाप, सतही तौर पर,  मर्यादित -ताकि जिज्ञासा, कौतूहल एवं नयी उम्र की दुनिया से तादाम्य हो सके।  भाभी -देवर, जीजा-साली, सलहज़-जीजा...आदि के हँसीं-ठिठोली के पंजीकृत किन्तु मर्यादित, जाने-माने  भारतीय सन्दर्भ के सम्बन्ध - समाज में विपरीत लिंगी के प्रति आश्चर्य मिश्रित जिज्ञासा का शमन करते हैं और  उदाहरणात्मक व  प्रयोगात्मक सन्दर्भ में एक प्रकार की सेक्स- एज्यूकेशन बनते हैं । परन्तु पश्चिमी जगत में दिखाने को खुले परन्तु वास्तव में अज्ञानपूर्ण विवाहेतर सम्बन्ध खुलेआम व अंतर्संबंध - वासनात्मक होकर तनावों को जन्म देते हैं ।'
             ' हूँ....शाम को पेशी है ।' सुमि हंस कर बोली ।
            ' सब होजायगा , डोंट वरी, वह मुझे अच्छी तरह जानती है '  
            ' आई नो.... आई टू नो ।' 
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                                ’ सदियों से भारत में दो प्रतिकूल विचार धाराएं चली आरहीं हैं । एक ब्राह्मणवादी दूसरी ब्राह्मण विरोधी,  जो अम्बेडकर वादी विचारा धारा है, जिसमें समता, स्वतन्त्रता, सामाजिक न्याय की बात है । और अभिजात्य चरित्र का वर्ग सदैव ही जनवादी चरित्र के वर्ग पर अन्याय-अत्याचार करता आया है ।'  जयंत कृष्णा ने, जो बाबासाहब अम्बेडकर की विचारधारा से प्रभावित था, यह बात केन्टीन में समता-समानता के ऊपर हो रहे वार्तालाप के मध्य कही ।
             'नहीं यार, एसा नहीं है,'   मैंने कहा, ' भारत में तो अभिजात्य व जनवादी चरित्र अलग रहा ही नहीं । चरित्र तो व्यक्ति व आत्मा का व्यापार है, अलग अलग कैसे होसकता है ? कार्यक्षेत्र, काम, व्यवहार, जीवन-जगत, उठना-बैठना अलग-अलग हो सकते हैं; व्यक्ति, देश, काल के अनुसार, पर चरित्र शाश्वत है जो भारत में कभी अलग-अलग नहीं रहा। यहाँ राजा भी चौके में कपडे उतारकर भोजन करता था, दैनिक वेतन भोगी भी, साधू भी, गृहस्थ भी ।'
              'यहाँ तो राजा-महाराजा,चक्रवर्ती सम्राट भी साधू-संतों के पधारने पर अपना सिंहासन व सर्वस्व भी उनके पैरों पर रख देते थे।  यह अद्यात्म, ज्ञान,त्याग, विद्वता, मुमुक्षा, आत्मसंतोष व सात्विकता को भौतिकता का नमन था, जो आत्मभाव में तुष्टता व अहंभाव के त्याग के बिना नहीं हो सकता ।  यही अहं  का त्याग व आत्मसंतुष्टि भाव, अध्यात्म व भौतिकता के समन्वय द्वारा जीवन जीने की भारतीय कला की रीढ़ है । यही अभिजात्य व जनवादी चरित्रों का समन्वय भारतीय नीति, राजनीति,व कर्मनीति का आधार है ।'
              ' हाँ,  पराधीनता की बेड़ियों में अधर्मी, अहंकारी. व्यक्तिवादी , चारित्रिक रूप से कृषकाय विदेशी शासकों के शासन में  कुछ दुर्वल-चरित्र हुए भारतीय शासक या अभिजात्य वर्ग अपना जनवादी चरित्र भूलकर अपने शासकों का चरित्र अपनाने लगे थे और इसप्रकार की धारणाएं बनने लगीं जो तुम व्यक्त कर रहे हो ।'
              'और जयंत ! तुम भ्रम में हो । ये धाराएं वास्तव में देव- संस्कृति व असुर संस्कृतियाँ हैं क्योंकि न तो राम ही ब्रह्मण थे न कृष्ण ही, जबकि रावण ब्राह्मण था परन्तु ब्राह्मण विरोधी । राम व कृष्ण ब्राह्मण विरोधी नहीं थे । अम्बेडकर  तो तब थे ही नहीं तो वह धारा सदियों से हो नहीं सकती ।', सुमि ने कहा ।
              ' वस्तुतः वे ब्रह्म विरोधी, अर्थात ईश्वर नहीं है, मानव ही सब कुछ है, एवं ब्रह्मवादी  कि  ईश्वर है एवं मानव के अच्छे -बुरे कर्म का फल मिलता है , ये दो धाराएं हैं । और समानता का अर्थ समता नहीं हैं । यदि सब सामान होजायं, सारे पर्वत समतल कर दिए जायं; तो न मेघ बनेंगे, न वर्षा होगी, न नदी बहेगी न हरियाली होगी, न सागर न जीवन ।  राजा, मंत्री, प्रजा सबके अधिकार समान कैसे  हो सकते हैं?  बालक, वृद्ध, युवा सबसे समान व्यवहार नहीं किया जा सकता । वास्तव में समता-समानता के लिए ...सब समान हों या स्वतन्त्रता की नहीं अपितु सत्य, न्याय, यथायोग्य, यथोचित- व्यवहार, कर्तव्य व अधिकारों की बात  होनी चाहिए ।' सुमि ने आगे जोड़ा ।
                ' यदि मैं अपनी तरह से अर्थात खुलकर कहूं तो सारे स्त्री-पुरुष समान भाव होकर साथ-साथ नंगे सो सकते हैं क्या ?  यह तो तभी होसकता है जब या तो सभी संत बन जायं या जड-पदार्थ, अर्थात जीवन  रस रंग रहित पृथ्वी ...।'  ए के  जैन ने जोर जोर से हंसते हुए कहा ।
                'वास्तव में मुख्य बात तो वही है कि मानव-मानव में प्रेम व समरसता बढे;  जाति, धर्म, भेद भूलकर  राष्ट्र व मानवता के व्यवहार में सभी एक जुट होकर कार्य करें,  यही समता है और मानवतावादी धारा.... ब्रह्मधारा.... जीवन धारा । यदि बावा साहब भी इसी समता की बात करते हैं तो इसमें अनुचित क्या है ? ', मैंने जयंत की तरफ देखते हुए कहा,  ' कीप इट अप यार ! लैट द  डिस्कशन गो ऑन, इट ब्रिंग्स बटर फ्रॉम मिल्क ।'  चलने दो मित्र बहस जारी रहनी चाहिए ।'
             ' मथे न माखन होय ।'  सुमित्रा ने जोड दिया ।
             ' और जयंत जी , साम्प्रदायिकता व अहिंसा के बारे में आपके क्या विचार हैं ?' सुमि  ने पुनः विषय को छेड़ते हुए कहा ।
             ' मेरे विचार में  अशोक, अकबर व गांधी सच्चे अहिंसावादी थे , साम्प्रदायिकता विरोधी । हिंसा देखकर जिनका  ह्रदय परिवर्तन हुआ,करुणा जागृत हुई ।'  जयंत ने कहा ।
             ' हाँ सामान्यतः विचार यही है । पर इन तीनों का ह्रदय परिवर्तन व्यक्तिगत घटनाओं के कारण हुआ । स्वभावजन्य, स्वाभाविक परमार्थजन्य भाव से नहीं, जो भारतीय जन मानस के विचार की रीढ़ है, व्यवहार की धुरी है । यह जन्मजात स्वाभाविक भाव नहीं था अपितु, " नौ सौ चूहे खाय बिलाई हज को चली" बाली बात है । यह राम-कृष्ण वाली आदर्श स्थिति नहीं है । इसीलिये सभी जनमानस उन्हें महान तो मानता है कि " जब आँख खुले तभी सवेरा "   परन्तु सर्वकालीन आदर्श नहीं ..जैसे राम-कृष्ण को ।' मैंने स्पष्ट करते हुए कहा ।
              ' राम-कृष्ण , महाकाव्यों के पात्र भर हैं या वास्तविक व्यक्ति, इतिहास-पुरुष ?' जयंत ने अपनी शंका जाहिर की ।
              ' वैसे तो राम-कृष्ण कोई काल्पनिकं पात्र नहीं हैं अपितु इतिहास पुरुष हैं । कालान्तर में विभिन्न चमत्कारिक घटनाओं का इसे चरित्रों के साथ जुड़ जाना कोई नवीन तथ्य नहीं है । परन्तु साथ में ही यदि इन्हें काल्पनिक पात्र मान भी लें तो भी राम-कृष्ण कोई काल्पनिक व्यक्तित्व नहीं हैं, वे सदैव, हर युग में, समाज में होते हैं । काव्य व  साहित्य में पात्र का निर्धारण साहित्यकार कैसे करता है ? उसके पात्र समाज में सदैव ही होते हैं ।  कृतिकार उनके चरित्र को अपने मंतव्य व अनुभव के अनुसार कृति में  जीवंत करता है । वे पात्र जीवित विशिष्ट पुरुष या इतिहास पुरुष या जीवित सामान्य जन कोई भी होसकता है । हमारे भारतीय साहित्य, साहित्यिक कृतियों में काल्पनिक चरित्रों के लिए कोई व्यवस्था नहीं है । उसके लिए 'गल्प' नाम से पृथक विधा है जिसमें पात्र व काव्य पूर्णतया काल्पनिक होते हैं, यद्यपि तथ्य व विषय वस्तु , सामाजिक व काल सापेक्ष होते हैं । पाश्चात्य विद्याएँ -फेंटेसी  या वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित काल्पनिक विज्ञान कथाएं  इस श्रेणी में आती हैं ।'
                ' चलो वार्ड ड्यूटी पर जाना है ', सुमि ने ध्यान दिलाया  ।

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                                    " सामाजिक एवं प्रतिरक्षण विभाग"  के प्रोजेक्ट के तहत हम लोग चिकित्सा विद्यालय के समीप एक कालोनी में टीकाकरण-टीम बनाकर घर-घर घूम रहे थे । एक कालोनी में एक युवा महिला के तीसरे बच्चे को टीका लगाते हुए मैंने पूछा कि तीनों बच्चे स्वस्थ रहते हैं तो अचानक वह युवती हंसाने लगी । मैंने सिर उठाकर देखा तो वह मुस्कुराकर कहने लगी, ' तुम श्रीकिशन हो ना ?'
            ' हाँ, पर तुम ....?' मैंने आश्चर्य से प्रश्नवाचक नज़रों से पूछा ।
             'भूल गए हो, मंदिर वाला स्कूल, वेवकूफ भुलक्कड़ , वो थप्पड़ ....।'
            ' माया !.....तुम, यहाँ ! और ये तीन बच्चे ? तुमने तो अचानक स्कूल आना बंद कर दिया था ?'
             'चलो याद तो आया, मेरी सगाई हो गयी थी न ।'
             सगाई ! पांचवी क्लास में ?' मैंने आश्चर्य से पूछा ।
             ' अरे, मैं तो १३ साल की थी, तुमसे चार वर्ष बड़ी ।  तुम डाक्टर होगये हो न ।'
             सुमि हँसने लगी , " ओल्ड हेबिट्स डाई हार्ड ।"
             ' तुम्हारी शादी होगई ?' माया ने पूछा ।
             ' अभी ढूंढ रहे हैं,  तुम्हारे जैसी सुन्दर लड़की ।'  सुमित्रा खिलखिलाकर कहने लगी । माया मुस्कुराकर बच्चों को चुप कराती हुई अन्दर चली गयी ।
                ' मैं जानती हूँ तुम्हें कितना बुरा लगता है यह सब देखकर ।  पर वह तो सुखी है अपने संसार में । संतुष्ट व सुखी जीवन होना चाहिए, फिर चाहे जिस स्तर पर हो । यही महत्वपूर्ण है । सब्जबागों का कोई अंत नहीं है ।'  सुमि कहती गयी ।
                 ' यद्यपि अधिकतर स्त्रियों की यही विडम्बना है अपने देश में । कम उम्र में शादी, जल्दी मातृत्व और कई बच्चे । तभी तो यहाँ  "शिशु व मातृ मृत्यु दर"  बहुत अधिक है ।' सुमि ने कहा ।
                " व्हाट शुड बी डन ?" सुमित ने सोच कर कहा ।
               " सबको शिक्षा का प्रचार -प्रसार",  विशेषकर स्त्री शिक्षा, एक मात्र लॉन्ग-टर्म ( दूर गामी ) उपाय है । शार्ट -टर्म के रूप में "घर घर स्वास्थ्य परीक्षण कार्यक्रम" इसका उत्तर है ।' सुमि बताने लगी ।
               ' दैट इज व्हाई वी आर हीयर '...सुधा ने बात समाप्त करते हुए कहा ।
               पर सुमि बात समाप्त करने के मूड में नहीं थी । बोली, ' वैसे बात यहाँ समाप्त नहीं होती। स्त्री शिक्षा की कमी के कारण ही भारतीय समाज में तमाम कुप्रथाएँ प्रचलन में आगईं हैं ।  नारी शिक्षा  व स्वास्थ्य की अवहेलना का सीधा अर्थ है सारे परिवार, पुरुष, पति, बच्चे, पिता- सभी का सामंती युग में रहना, वैसा ही पारिवारिक एवं तदनुसार सम्पूर्ण सामाजिक वातावरण ।  इसी वातावरण के चलते पढी-लिखी बहुएं, लड़कियां भी उचित व युक्ति-युक्त विरोध नहीं कर पाती  और पारिवारिक उत्प्रीडन, स्त्री को पैर की जूती  समझना व दहेज़ जैसी कुप्रथाएँ जिनके दूरगामी परिणाम स्वरुप बहुएं जलाना, बहुओं - लड़कियों द्वारा आत्महत्या आदि कुप्रथाएँ फ़ैली हुईं हैं ।  महिलाओं को स्वयं शिक्षित व जागरूक होकर इनसे डटकर लोहा लेना होगा ।  पुरुषों का भी दायित्व है की स्वयं के, भावी संतति के परिवार व देश- समाज के व्यापक हितार्थ महिलाओं का साथ दें । ताली दोनों हाथ से बजती है ।'
                 ' क्या मैंने कुछ गलत कहा, कृष्ण ?'
                 'हूँ '
                ' हूँ, क्या?  अभी  तक माया के ख्याल में खोये हुए हो ?'
                 'हाँ,  विसंगतियों के दो ध्रुवों पर मंथन कर रहा हूँ । एक तरफ माया, दूसरी तरफ सुमित्रा जी ।'
                             सब हँसने लगे तो सुमित्रा बोली , ' चलो चलो आगे चलो ।'

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                                            ' भारतीय थल सेना में विशेष शार्ट-सर्विस कमीशन का विज्ञापन आया है, चिकित्सा सेवा कोर के लिए । चतुर्थ वर्ष में ही द्वितीय लेफ्टीनेंट की पे व पोस्ट देंगे , फाइनल ईयर में केप्टन की । इंटर्नशिप भी नहीं करनी है सीधे पोस्टिंग । बाद में नियमित सेवा में भी आफर दिया जायगा ।' विनोद ने उत्साहित होते हुए बताया ।
               ' वाह ! एक फ़ार्म मेरे लिए भी ले आना ।' मैंने आग्रह किया ।
               दूसरे दिन सुमित्रा ने आकर हैरानी से पूछा ,' कृष्ण, क्या तुम भी सेना-चिकित्सा का फ़ार्म भरोगे ?'
               ' हाँ, क्यों ?'
              ' क्या क्या करोगे, केजी ? तुम वहां क्या करोगे ? वहां भी कविता करोगे क्या ।'
              ' क्यों ? क्या मैं यहाँ सिर्फ कविता करता हूँ, और कुछ नहीं, पढ़ता-लिखता नहीं हूँ क्या ? और क्या मैं  सेना में नहीं जा सकता ।'
              ' मेरा मतलब है', वह सकपका कर बोली, '  मिलिट्री का अनुशासन, नीरस लाइफ और केजी, कवि - ह्रदय  केजी,  समाज-सुधार की आवाज लगाते हुए, कृष्ण ।  क्या रुक पाओगे तुम वहां ?  वहां तो आर्डर होता है और पालन करना ।  न तर्क न व्याख्या ।'
               ' हुज़ूर, मुझे कोई लड़ना थोड़े ही है । डाक्टरी कहीं भी की जा सकती है । एक ही बात है ।'
               ' पर रिस्क फेक्टर तो है ही ।'
               तो यह बात है । किसी को तो रिस्क लेना ही पड़ता है । कर्नल साहब की भाँति। रिस्क फेक्टर तो सड़क चलते भी होता है  तो क्या चलना बंद कर देते हैं।?'
               'क्या कोई और कारण तो नहीं ?' सुमि कुछ रुक कर बोली ।
                ' अरे नहीं सुमि!,  मैं भी इन्द्रधनुषी जीवन का हर रंग, हर भाव, हर लम्हा जीना चाहता हूँ ।'
               ’ पर कुछ अच्छा नहीं लग रहा । खैर जो इच्छा ।’
                           विनोद और मैं व सतीश चुन लिये गये । परन्तु कुछ समय बाद जब युद्ध विराम होगया तो वह स्कीम ही निरस्त होगयी । सुमि ने बडे उत्तेज़ित होते हुए बताया, ’ वह स्कीम ही केन्सिल होगयी, अब क्या ?  चलो अच्छा हुआ ।’
               ’ कहीं तुमने कोई षडयन्त्र करके तो कैन्सिल नहीं करवा दी ?’  मैने कहा तो वह आश्चर्य  से देखने लगेी ।
                ’ मेरा मतलब है कि तुम नही चाहती थीं और तुम्हारी  इच्छा पूरी होगयी । क्या वास्तव में प्रार्थना में इतनी शक्ति होती  है ?’
                 हां, सो तो है,  अगर मन से की जाय, वह मुस्कुराकर बोली ,’ चलो आज मैं काफ़ी पिलाती हूं ।’
                 हम भी चलेंगे,  और अपना-अपना पेमेन्ट नहीं करेंगे ।  हमारी भी तो नौकरी चली गयी है, मिलने से पहले ही ।  शायद केजी के चक्कर में।’  विनोद और  सतीश बोले ।        

             -- अंक सात समाप्त ......क्रमश: अन्क आठ अगली पोस्ट में....          
            

   



            
 

सोमवार, 12 मार्च 2012

’ इन्द्रधनुष’ ----अंक पांच व छ:.....-- स्त्री-पुरुष विमर्श पर डा श्याम गुप्त का उपन्यास....



                         


      
        ’ इन्द्रधनुष’ ------ स्त्री-पुरुष विमर्श पर एक नवीन दृष्टि प्रदायक उपन्यास (शीघ्र प्रकाश्य ....)....पिछले अंक चार  से क्रमश:......
    
                                अंक पांच  

                       'कालिज डे' मनाया जाना था । सुमित्रा लगभग दौड़ते हुए आई ।  'कृष्ण ! एक गीत बनाना है  और गाना भी पडेगा ।  मैं नृत्य में अपना नाम  रही हूँ ।  कब दोगे ।'
         'परन्तु मैं चिकित्सा विषय पर सेमीनार के लिए अपना आर्टीकल तैयार कर रहा हूँ ।'  मैंने असमर्थता जताने का प्रयत्न किया ।
        'वह तो तुम कर ही लोगे । कौन सा नवीन रिसर्च करके लिखोगे । इस स्टेज पर तो सभी विशेषज्ञ-व्याख्यान व लेख इधर-उधर से जोड़ तोड़ के ही लिखे जाते हैं । चिकित्सा विषयों पर अपना ओरिजिनल पेपर लिखने में तो ज़िंदगी भर का अनुभव चाहिए ।'
         मैंने उसे घूर कर देखा,  फिर कहा, ' पर मुझे गाना कहाँ आता है ?'
        'मैं रिहर्सल करा दूंगी । गीत बनाते हो तो गा भी सकते हो.... चलेगा ।' 
       'किसी अच्छे गाने वाले को क्यों नहीं लेती?'  मैंने सुझाया ।
       ' नहीं, अधिक लोगों को मुंह लगाना ठीक नहीं । सब तुम्हारे जैसे सुलझे हुए थोड़े ही होते हैं ।  कौन सी शास्त्रीय प्रतियोगिता है, जो गाओगे चलेगा ।'  वह सिर हिलाकर मुस्कुराई ।
       ' इस सुलझन में ही तो मैं उलझ कर रह गया हूँ ।'  मैं भी मुस्कुराया ।
       " शट अप। ",  शाम को गीत लाकर दो।  कल रिहर्सल है,  तैयार होके आना।   देखूं कैसे सर्वगुण संपन्न बनते हो।'
       ' मुझसे तो अच्छे द्वापर के कन्हैया ही थे । कम से कम गोपियों के साथ रास तो रचा लेते थे ।'
        " क्या मैंने कभी मना किया है गोपियों के साथ रास रचाने को ?",  वह पलट कर कहने लगी, ' और रास !... हूँ .... शास्त्रों के ज्ञाता होने का दम भरते हो ।  ये बार बार भटकने-भटकाने का स्वांग क्यों रचते हो, मैं सब समझती हूँ ।  क्या ये प्रोग्राम 'रास' नहीं होगा ?  आखिर रास क्या था।  किसी विशेष उद्देश्य के लिए किया गया सामूहिक क्रिया-कलाप,  जिसे रसमयता का रूप देदिया जाय ।  राधाकृष्ण का रास भी तत्कालीन नारी को समाज सेवा के लिए प्रतिबद्धसामाजिक कर्तव्यहीनता व दौर्वल्य की परिधि से बाहर निकालने का अभिकल्प था, उपादान था राधा का चरित्र ।  श्री कृष्ण जैसे बलशाली, बुद्दिमान, चतुर, नीतिज्ञ, विद्वान्  व समाज सुधार के लिए नव व पुरा विचारों में संतुलन रखने वाले मित्र का साथ व नेतृत्व पाकर वह जननेत्री व स्त्रियों की सामाजिक चेतना तथा  स्वतंत्रता का बोधक हुई । जो तत्पश्चात प्रेम व त्याग-तप  की उच्चतम स्थिति में पहुँचने के कारण जन- जन की पूज्य व आराध्य देवी रूपा हुई । यही राधा के चरित्र की अर्थवत्ता है ।"
          मैं मुस्कुराने लगा तो सुमि कहने लगी,  ' होगया.... अब चलूँ ? ' 
         ' जय हो राधारानी की, प्रस्थान करें ।'  मैंने हंसते हुए हाथ जोड़कर कहा । 
                            **                          **                                      ** 
                             रिहर्सल पर मैंने अपना पार्ट सुनाया -----
                                             " तुम श्यामल-घन, तुम चंचल मन,
                                              तुम जीवन  हो , तुमसे जीवन ।
                                              प्रीति भी तुम हो, रीति भी तुम हो,
                                              तुम श्यामल-तन, तुम जीवन-धन ।
                                              तेरी  प्रीति की  रीति  पै  मितवा,
                                              मैं गाऊँ , मैं  बलि-बलि जाऊं ।। "
                सुमि ने अपना पार्ट गाकर सुनाया -----
                                            " तेरे गीतों की सरगम पर,
                                             मस्त मगन मैं नाचूं गाऊँ । 
                                             तेरी वीणा की लहरी पर,
                                            बनी मोहिनी मैं लहराऊँ ।
                                            तेरी प्रीति की रीति पै मितवा ,
                                            बलिहारी मैं बलि-बलि जाऊं । "
                सुमित्रा ने कई बार  गाकर - नृत्य करके बताया, समझाया ।  डांस, स्लो, मध्यम फिर द्रुत रिदम में करूंगी,  फिर मद्धम में । अंतरा को दो दो बार रिपीट करना है ,...आदि...आदि ।
              कार्यक्रम काफी सफल रहा ।  सुमि तुनक कर बोली,  ' बड़े खराब हो केजी ! सीखने का नाटक करते रहे,  बहुत अच्छा गा लेते हो । लगता था जैसे पैरों को पंख लग गए हों । आज मैं  बहुत  बहुत  बहुत खुश हूँ ।' 
             ' नृत्यांगना और नृत्य दोनों ही  'सुपर्व'  हों तो संगीत फूट ही पड़ता है,  गूंगे मन में भी ।',  मैंने हंसकर कहा ।
            ' गूंगे, और केजी ? '  क्या गुड़ की मिठास बता नहीं पारहे हो ?  खैर, प्रशंसा का तुम्हारा निराला अंदाज़, अच्छा है ।  वह खिल खिला कर हंसी,  फिर अचानक चुप होकर बोली ,  ' अच्छा , ये श्यामल घन और श्यामल तन'  से क्या अभिप्राय है तुम्हारा ?  मैं सांवली हूँ तो मेरा मज़ाक तो  नहीं बना रहे थे कहीं ।'  वह मुस्कुराते हुए घूर कर कहती  गयी।
            नहीं जी, श्याम सखी द्रौपदी,  अप्रतिम सुन्दरी,  भी  सांवली ही थी ।
            मुझे द्रोपदी कह रहे हो ?   
            नहीं,  अप्रतिम सुन्दरी...... हे श्यामान्गिनि !  मैं हंसते हुए बोला ।
           खींच लो....खींच लो....।  आज सब माफ़ है तुम्हें ।  मैं आज बहुत अच्छे मूड में हूँ ।
           ' पर क्या द्रोपदी के बारे में कोई भ्रांत धारणा ?।'
           नहीं,  के जी जी,  तुम्हारी तो लगभग हर बात ही सटीक लगती है ।  मैं तो खुद को भी द्रौपदी कहती  हूँ ।
मेरे भी पांच पति हैं ...वह अनायास ही कह गयी ।
          मैंने आश्चर्य से उसे देखा तो कहने लगी,  'पति क्या है ? जो पत रखे...पतन से बचाए....मान रखे...सम्मान दिलाये....।' वह मुस्कुराकर बोली, ' शास्त्र बचन  है---- "  रक्ष्यते सख्यते पतनात स पति: ...।" 
         किस शास्त्र का है ?,  मैं पूछने लगा ।
         'मेरे शास्त्र का '  वह खिलखिलाई ।
         'तब ठीक है।  और पांच पति ?'   मैंने प्रश्नवाचक मुद्रा में देखा  । 
        जो पतन से बचाएं ।  'शास्त्र  व माता-पिता की शिक्षा एवं   संस्कार , मेरी अपनी सामयिक शिक्षा-दीक्षा व संस्कार,  मेरा चरित्र व आचरण ,  रमेश और.....र.र. ...तुम .....।'
          मैं अवाक ......देखता रह गया ।  
        ' चकरा गए न ज्ञानी-ध्यानी.......? '  वह खिलखिलाकर हंसी,  फिर भाग खड़ी हुई ।

                       **                                **                                   **   

                             " डा कृष्ण गोपाल जी आपकी वह कहानी पढी,  जिसमें एक प्रसंग में है कि मेढक के  दो दिल,  किसी के दो स्टमक ( आमाशय--खाने की थैली ) , एक बार एक बढे मेंढक के पेट में अन्य छोटा मेंढक था एक दम श्वेत त्वचा वाला जो शायद आमाशय के एच सी एल अम्ल में घुल गयी थी । क्या ये सब सच घटनाएँ हैं ? हमें तो कभी नहीं मिला ।  
           ' कहानी  तो कल्पना ही होती है ।'  मैंने बताया । 
           ' अरे नहीं, डाक्टर साहिबा जी, यह सच बात है ।'  राकेश ने पीछे से आकर नमस्कार करते हुए  डा .वीना को बताया ।  'मैं डा कृष्ण जी का इंटर का क्लास-फेलो हूँ और मेरे सामने की ही ये बातें हैं । शायद  ' स्पेशिमेंन' स्कूल की लैब में रखे भी हों । ये आपको टरका रहे हें ।' 
            ' ओ पंछी !  इतनी हिम्मत ।  दो लोगों की बातें सुनते हो ?  बुरी बात,  निगाहें कमीज़ के तीसरे बटन पर .....'   वीना मेरी तरफ  देखकर मुस्कुराती हुई बोली ।
           ' पर बुजुर्गों की बातें तो बच्चे सुन कर ही सीखेंगे ..।'   राकेश पूरी तरह से साष्टांग दंडवत की मुद्रा में वीना के कदमों में झुकता हुआ बोला । वह घबराकर दो कदम पीछे हट गयी ।
           ' राकेश, यार !  तुम तो बड़े सीधे साधे लडके थे,  बड़े स्मार्ट होगये हो ।  तुम्हारे तो पर निकलने लगे हैं, अभी से ।'  मैंने हंसते हुए पीठ पर धौल जमाते हुए कहा ।  
           ' पंछी जो ठहरा , वो भी किस का खास ।' सुमित्रा निकट आते हुए बोली,  'तो तुम केजी के ख़ास क्लास-फेलो हो , इंटर के ।  इस वर्ष सिलेक्ट हुए हो ?'
           ' जी हाँ,  ये तो कुछ जल्दी ही साथ छोड़ कर चले आये ।'
           'अच्छी आदत है, बहुत काम आती है।', सुमि वीना के साथ जाते हुए बोली, 'शाबाश, रौब में मत आना।" 
           ' जलवे हैं यार तुम्हारे तो, केजी ! क्या नाम है और क्या गहराई है कथन में ? राकेश पूछने लगा ।
           " त्रिया चरित्रं पुरुषस्य भाग्यं देवो न जानाति .......... । "   
           ' टाल रहे हो ।'
          ' चलो चलो, ज्यादा दिमाग न खपाओ । पढ़ने में लगो, डिसेक्टर का दूसरा पेज कल रटकर सुनाना ।'
           ' ओ के बॉस ।'  राकेश सेल्यूट ठोक  कर  हंसते हुए  चलने लगा,  फिर लौट कर बोला , ' शाम को पिक्चर चलें,  ब्लो हॉट ब्लो कोल्ड,  इम्पीरियल में ।'
           यू फूल !  तभी उन्हीं लोगों से पैसे क्यों नहीं मांगे ?   इन्फोर्मेशन भी देते हो वो भी फ्री ।  दौड़कर जाओ और दो टिकट के मांग कर लाना ।  

               -----अंक पांच समाप्त ...


                                                               अंक छह 

                               द्वितीय  प्रोफेशनल परीक्षा के बाद क्लास रूम में  प्रोफ. नलिनी पंडित ने पूछा --
        ' हू वाज़ द लास्ट टापर?' ( पिछला टॉपर  कौन था )
        ' सावित्री शर्मा ', एक आवाज़ आई ।
        'कितने मार्क्स मिले हैं अब ?
        '२७६' - सावित्री ने बताया ।
        ' सर्वाधिक किसके हैं ?'
       ' डा कृष्ण गोपाल गर्ग के '  अचानक सावित्री बोल पडी ।
       ' हाऊ मैनी ?'
       ' २७८ ' - सावित्री फिर बताने लगी ।
       ' व्हेयर इज ही ?'.....( वह कहाँ है ) ।
         मैं अपने स्थान पर खडा हुआ तो प्रोफ. पंडित ने कहा , ' बधाई , डा कृष्ण ।'
                   'पर मैडम,  न तो अभी मुझे अपने मार्क्स ज्ञात हुए हैं,  और न मैं एसा समझता हूँ ।' , मैंने कहा तो सारी क्लास आश्चर्य से देखती रह गयी ।
                ' बट आई हैव सीन इन यूनिवर्सिटी लिस्ट' , ( पर मैंने यूनीवर्सिटी की मार्क्स-लिस्ट में देखा है ) सावित्री ने कहा ।
               ' बट आई डोंट हैव दैट प्रिविलेज ' ( मुझे तो ये सुविधा नहीं है ),  मैंने कहा ।  सारी क्लास हँसने लगी ।  सावित्री का चेहरा झेंप से लाल होगया था ।
       ' बैठ  जाइए ' - प्रोफ. पंडित ने असमंजस में कहा ।
                          सावित्री  नगर के राजनीतिज्ञ- नेता  व विधायक, के एल शर्मा की पुत्री थी ।  क्लास के बाद सुमित्रा ने कहा , 'तुमको कुछ कहने की क्या आवश्यकता थी । जबदस्ती छेड़ने में मज़ा आता है ?'
        ' मुझे पक्का  कहाँ पता था, कैसे मान लेता । '
       ' वाह ! क्या सत्यवान से पाला पडा है । मज़े हैं तुम्हारे तो..... सावित्री  भी..... भई वाह ! '
       'हाउ कम ' ( कैसे पता ),  वैसे क्या ये तुम्हारी ईर्ष्या बोल रही है  या.......।
       'कोई क्यों यूंही दूसरे के मार्क्स देखेगा और भरी क्लास में बताएगा भी ।' सावित्री ने क्यों तुम्हारे नंबर देखे ?
       ' यह सिर्फ टॉपर की कौतूहलवश  जिज्ञासा है और कुछ नहीं। कोई लड़का होता तो वह भी यही करता । और तुम हर एक का नाम मेरे साथ जोड़ने के चक्कर में क्यों रहती हो ?'
      ' पर तुमने उसे बहुत नर्वस कर दिया ।' वह टालती हुई बोली, ' क्या तुम्हें उससे बात नहीं कर लेनी चाहिए ?'
       ' ओ के ' ठीक है ।
       ' चलो हमें उससे बात कर लेना चाहिए ।' सुमि उठते हुए बोली ।
       ' पर तुम क्यों गवाह बनाना चाहती हो ?  क्या मुझे अकेले बात नहीं करना चाहिए ?'
       ' ओह !  ओह !  हाँ,  बिलकुल ।'  वह हंसते हुए बैठ गयी ।

                          **                    **                        **

         'क्या अपना वृन्दावन - मथुरा नहीं दिखाओगे ?' 
         'मेरा वृन्दावन ! क्या मतलब ?'  मैंने पूछा ।
         'हाँ, हाँ.. कृष्ण गोपाल महाराज जी ।'
          ' तो चलो, कल ही चलते हैं ।'
         ' इतनी शीघ्र फैसला ले लेते हो ?'
         'राधारानी की आज्ञा, फैसले का प्रश्न ही कहाँ उठता है ।'
         'तो  ए. के.  व  सुधा से भी पूछ लिया जाय ?'
         'हाँ अवश्य, क्यों नहीं ।' मैंने  स्वीकृति में कहा ।
                                 बिहारी जी के मंदिर में मुझे यूं ही आराम से हाथ बांधे खडा देख कर सुमित्रा कहने लगी,   'हाथ तो जोड़ लो बिहारी जी के ।'
         'क्यों, क्या हाथ जोड़ने से वास्तव में हमारे सारे दुःख दूर व कार्य बन जाते हैं ? ' मैंने हाथ जोड़ते हुए पूछा।
                            ' यह आस्था का विषय है ',  सुमित्रा समझाते हुए कहने लगी,   'आस्था एक व्यक्तिगत व समाजगत  मनोवैज्ञानिक स्थिति है जो मनुष्य के मन में आत्मविश्वास उत्पन्न करती है ।  स्वयं पर निष्ठा रखना सिखाती है  कि यदि मैंने अपना कार्य पूर्ण निष्ठा व श्रम से किया है तो आगे आप को समर्पित,  अब जो भी हो ।  तभी तो सामान्यत: अपना कार्य सिद्ध न होने पर भी सामान्यजन की श्रृद्धा कम नहीं होती । वह भगवान को व अन्य को दोष न देकर  अपने कर्मों की कमी व भाग्यफल को मानकर पुनः सहज भाव में आगे अपने कार्य में लग  जाता है ।'
            ' तभी  तो  मैं मन में आस्था रखता हूँ ।'
           ' परन्तु व्यक्त होना भी आवश्यक है,  इससे पीछे आने वाले व अन्य लोग प्रभावित, उत्साहित व प्रेरित  होते हैं ।'
          मैं मुस्कुराते हुए चुप रह गया ।
                                   गोवर्धन परिक्रमा मार्ग पर एक ग्रामवासी ने बताया कि  इन्हीं रास्तों पर जब ये पगडंडियाँ  होंगी,  कृष्ण बांसुरी बजाते  तथा  राधा एवं गोपियाँ नृत्य करते हुए,   ग्रामबासियों को नयी नयी बातें व  गतिविधियाँ बताया करते थे ।
          मैंने सुमि से पूछा,  ' सुमि ! क्या कहीं से कृष्ण की वंशी की ध्वनि सुनाई दी ?'
        ' इतनी  देर से और क्या सुन रहे हैं ?  रनिंग कमेंट्री,... ये कुसुमा बाग़- जहां कृष्ण-राधा मिला करते थे, कुसुमा-ललिता के साथ ।  यह उद्धव ताल - जहां ऊधो जी ठहरे थे गोपियों से हारने के लिए ।  ये  गोवर्धन पर्वत- जहां गोपाल ने गाँव को शरण में लेकर रोज-रोज की चख-चख अति-वृष्टि से बचाया था ।  ये सीधी-सादी राधा का, "राधा-ताल " और यह त्रिभंगी कन्हैया का टेढा -मेढ़ा  नौकुचिया "कृष्ण ताल "। तुम्हारी वंशी तो अनंत काल से बज ही रही है ।' सुमित्रा बोली ।
           'क्या बोर हो रही हो ? '
          ' हूँ ',.....
                                 " कान्हा तेरी मुरली मन हरषाए ।
                                  कण कण ज्ञान का अमृत बरसे, तन मन सरसाये ।
                                  या तन-मन की बात कहूं क्या, सागर उफना जाए ।
                                  बैरन  छेड़े  तान अजानी,   मोहनि-मन्त्र  चलाये ।
                                 मानहु  मर्यादा  मोरी  मोहन, मुरली  मन भरमाये । 
                                                       कान्हा तेरी मुरली मन हरषाए ।।  "

           ' वाह ! वाह ! सुमित्रा, तुम तो कवयित्री बनती जा रही हो ।'  ए.के. ने ताली बजाते हुए कहा ।
            'सब सोहबत का असर है।'  सुधा ने जड़ा ।
           ' अब में क्या कहूं ।  कुसुम बोली,  ' जब मन की वंशी बजे तो सब ओर  वंशी-धुनि सजे ।'
            ' मैं धन्य हुआ, कैसे कैसे गुणी, विज्ञ व कलाकारों की संगत में हूँ ।'  मैंने प्रणाम मुद्रा में कहा  । '
           ' हम भी हैं यहाँ, डाक्टर साहब ..' पीछे से आवाज़ आई ।
            मैंने पीछे मुड़कर देखा तो उछल पडा, ' अरे श्री ! तुम, यहाँ ।'
           ' गोवर्धन परिक्रमा देने आये हैं, पिताजी के साथ ।'
           'क्या मन्नत माँगने आये हो कि इस बार तो पार लगा ही दो, हे मुरली बजैया !'
           श्री घूरकर देख ने  लगा,  'क्यों बेइज़्ज़ती करते हो, महिलाओं के सामने ।'
           'अरे हम भी हैं', सुमि ने नज़दीक आते हुए कहा, 'परिचय तो कराओ ।'
           'हाँ, श्रीनाथ गुप्ता, मेरा इंटर का मित्र ।'
          'आप सब  तो डाक्टर लोग होंगे ।' श्री बोला, 'क्या कलियुग के कृष्ण के प्रबचन सुन कर बोर नहीं होरहे ?'
          ' ये परिक्रमा क्यों करते हैं ?' सुधा पूछने लगी ।,
          'यही आपके ज्ञानी जी बताएँगे । मैं क्या बताऊँ ।' अब बताओ, उसने मुझे इशारा किया ।
                            ' परिक्रमा. अर्थात परिक्रमण या परिभ्रमण, एक अर्थशास्त्रीय- समाज शास्त्रीय क्रमिक व्यवस्था है ।  किसी स्थान, पीठ या दैवीय शक्ति के उद्गम, विस्तार, उसकी महत्ता, वहां की सामाजिक- आर्थिक  स्थिति के बारे में पूरा देश जान सके - वह क्यां क्यों है, कब से है, उसके युक्ति-युक्त अर्थ व प्रयोजन का सम्पूर्ण परिक्रमित ज्ञान;   न कि सिर्फ चक्कर लगा कर चल देना;  ताकि देश का प्रत्येक नागरिक देश के उस प्रदेश, क्षेत्र व सभी स्थानों की स्थिति के जानकार हों तथा उसकी उन्नति में सुझाव व सहायता से योगदान कर सकें  और सामाजिक एकता  व राष्ट्रीय समरसता बढे ।  लगभग सभी धार्मिक पीठों का यही क्रम है ताकि वहां देश भर के लोग आयें,  उस स्थान का आर्थिक  विकास हो । उसी के साथ समाज, देश व मानवता का विकास जुड़ा हुआ है ।' मैंने विस्तार से बताया ।
           ' मान गए गुरू' ,  श्री बोला,  ' लगे रहो, लगे रहो ।  मैं चलता हूँ,  नहीं तो साथ के लोग अधिक आगे निकल जायेंगे ।  जब चक्कर में पडा  ही  हूँ तो चक्कर लगा ही लूं ।'
          ' ये क्या करता है?',  अचानक सुमित्रा ने पूछा ।
          'रोड-इंसपेक्टरी ',  'बी ए में दो बार फेल होकर धक्के खारहा है ।'
          'वाह ! क्या कृष्ण-सुदामा की जोड़ी है ।  और ऐसे कितने मित्र हैं तुम्हारे ?’
          ' लोकल हूँ भई,  और चुंगी वाले स्कूल से ।  धोबी, नाई, सब्जी वाले, दुकानदार, दूधवाले, पड़ोसिनें, बचपन की सखियाँ - सभी को झेलना-निभाना होता है ।  अपनी तो आदत ही ख़राब है, अब भी वही हाल है ।'
          सब हँसने लगे, सुमित्रा मुस्कुराकर चुप होगई ।
         ' क्या हम सब चलने ही चलने आये हैं या बैठकर आपस में कुछ हंसें बोलें भी ।'  कुसुम ने थकी थकी आवाज में कहा ।
        ' तो अब तक क्या होरहा था?'  मैंने कहा,  ' हाँ. जिन्हें आपस में स्पेशल हंसना-बोलना हो तो करें ।'
        ' चलो थर्मस निकालो, चाय पीते हैं, बैठकर', पेड़ तले बैठती हुई सुमित्रा बोली  ।

                **                                     **                                        **

                               प्रोफ़ेसर सचान बहुत धीमे बोलते थे, परन्तु उनके व्याख्यान बहुत महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर होते थे ।  सभी पढ़ाकू छात्र उनकी क्लास में आगे बैठना चाहते थे ।  यहाँ तक कि कभी-कभी तो आधी से अधिक क्लास आठ बजे के लेक्चर के लिए सात बजे ही  आकर बैठ जाती थी ।  लड़कियों-लड़कों,  होस्टलर -डे स्कोलर ..में क्लास में जल्दी पहुँचने की प्रतियोगिता रहती थी  और कभी सब आगे कभी पीछे होते रहते थे ।
                 जब सुमि और मैं तेजी से आकर आगे की सीट पर बैठ गए तो पीछे से ए.के. जैन ने कमेन्ट मारा,        'चुंगी के स्कूल वालों की समझ में देर से आता है,  आगे बैठना आवश्यक है ।  कान्वेंट में पढ़ने से अक्ल की आँखें खुल जाती हैं और दौड़कर आगे बैठने की आवश्यकता नहीं पड़ती ।'
            ' हुज़ूर, बड़े बाप के बेटे हो, पढ़ कर करोगे भी क्या ?  बाप की चलती हुई क्लिनिक चला लेना ।'  मैंने कहा,  ' वैसे अंग्रेज़ी बोलने और टाई लगाने के अलावा वहां पढ़ाया ही क्या जाता है,  कान्वेंट में,  बहुत सी फीस लेकर ।'
            'सुमित्रा दार्शनिकों के से अंदाज़ में कहने लगी,  'मेरे ख्याल से सभी इंगलिश स्कूल बंद कर दिए जाने चाहिए ।  सारे प्राइमरी स्कूल सरकारी नियंत्रण में या सामाजिक संस्थाओं द्वारा  या सरकार द्वारा बिना फीस के चलाये जाने चाहिए ।  कोई प्राइवेट स्कूल नहीं होना चाहिए ।  सभी स्कूलों में समान कोर्स,  समान पढाई व समान  फीस होनी चाहिए ।  नहीं तो क्या पता आगे चलकर ये प्राइवेट स्कूल भी एक व्यवसाय ही बन जाय ।'
         ' अपने ख्याल अपने पास ही रखो, हेड मास्टरनी जी ।' - किसी ने पीछे से कमेन्ट किया ।
        ' चुप चुप '   अन्य आवाज़ आई,  ' प्रोफ़ेसर साहब आगये ।'

               ....................  अंक छः समाप्त ......क्रमश: अंक सात .... अगली पोस्ट में .....

           
       

इन्द्रधनुष- अंक एक से चार तक----स्त्री-पुरुष विमर्श पर.. डा श्याम गुप्त का का उपन्यास ....

इन्द्रधनुष-----स्त्री-पुरुष विमर्श पर डा श्याम गुप्त का का उपन्यास ....अंक १ से ४ तक....

        ’ इन्द्रधनुष’ ------ स्त्री-पुरुष विमर्श पर एक नवीन दृष्टि प्रदायक उपन्यास (शीघ्र प्रकाश्य ....)
                                         
                                                      अंक एक 

सुमि तुम !
के जी ! अहोभाग्य , क्या तुमने पुकारा ?
नहीं ।
मैंने भी नहीं, फिर....
हरि इच्छा, मैंने कहा ।
वही खिलखिलाती हुई उन्मुक्त हंसी ।
        चलो , समय ने मेहरबान होकर एक बार फिर साथ साथ चलने का अवसर दिया । सच बताऊँ , आज सचमुच मैंने याद किया था ...जाने क्यों .....खैर छोडो । कहाँ जाना है, सुमि ने पूछा ।
बंबई , असोशियेशन की कान्फ्रेंस है
क्या नेता बन गए हो ? सुमि ने पूछा ।
नहीं , मैंने कहा---
           'आसमाँ की तो नहीं चाहत है मुझको ,
            मैं चला हूँ बस जमीन के गीत गाने ।'
हूँ, वही तेवर,अच्छा लगा ।
और तुम कहाँ जा रही हो ?
वहीं जहां तुम ।
गुड---'वहीं है आशियाँ मेरा जहां तू मुस्कुराई है।'
        पी जी  परीक्षा लेने जा रही हूँ , मेडीकल कालेज में प्रोफ़ेसर हूँ । सुमि ने बताया ।
अच्छा मेरी जगह तुम घेरे हुए हो ।
ये क्या बात हुई ।
          अच्छा स्त्रियों के सर्विस करने के बारे में तुम्हारे विचार क्या हैं ? उसकी सामाजिक उपादेयता व अनुपादेयता क्या है?
           तुमतो मिलते ही शुरू होगये, श्योरली तुम्हारे दिमाग में कुछ चल रहा है । इतने वर्षों बाद मिले हैं और....
                     ' न हाल पूछा न चाल, मिलते ही शुरू होगये,
                      पूछो तो कहाँ थे, क्या थे और अब क्या होगये ।'   
          वाह ! क्या बात है..क्या बात है....मैंने कहा। अच्छा किस विशेषज्ञता की परीक्षा लेने आई हो , तुम किस डिसिप्लिन में विशेषज्ञ हो ?
 मैंने एम् एस, स्त्री चिकित्सा विज्ञान में किया है ।
मैंने.......
एम् एस सर्जरी ...मुझे पता है  तुम्हारे लेखों व पुस्तकों से ।
हूँ, वेरी स्मार्ट..हमसे तेज !
           " मेरे ख्याल से हायर प्रोफेशनल्स, चिकित्सक, उच्च अधिकारी, प्रोफ़ेसर आदि की उच्च स्थिति से अन्यथा सेवा स्त्रियों को नहीं करनी चाहिए, जब तक विशेष परिस्थिति न हो । उन्हें स्वयं का व्यक्तिगत विशेषज्ञ कर्म, व्यबसाय करना चाहिए जहां वे स्वयं ही 'बॉस' हैं । क्योंकि मातहत सेवाओं में तो स्त्रियों के होने से शोषण-चक्र को ही बढ़ावा मिलता है । सिर्फ सर्विस के लिए या समय काटने के लिए , यूंही और आय बढाने के लिए सर्विस का लाभ नहीं है । यदि आप 'हाईली पेड' नहीं हैं तो आपको घर व दफ्तर दोनों का दायित्व संभालना पडेगा और बहुत से समझौते करने पड़ेंगे ।" सुमि ने स्पष्ट किया ।
 अब अपनी भी कहदो, पेट में पच नहीं रहा होगा ।
      " यदि सारी स्त्रियाँ सर्विस करने लगें तो देश में दोसौ प्रतिशत स्थान तो होंगे नहीं; ज़ाहिर है कि वे  पुरुषों का ही स्थान लेंगी और पुरुषों में बेरोज़गारी का कारण बनेंगीं। कोई पति-पत्नी युगल अधिक कमाएगा व अधिक खर्चेगा, कोई दोनों ही बेरोज़गार होंगे, कोई एक ही, अतः सामाजिक असमानता,असमंजसता,भ्रष्टाचरण को बढ़ावा मिलेगा । कुछ पुरुष स्त्रियों की कमाई पर मौज उड़ायेंगे कुछ ताने बरसाएंगे । अतः पारिवारिक द्वंद्व भी बढ़ेंगे । यदि स्त्रियाँ सामान्यतः नौकरी न करें तो लगभग सभी युवक रोज़गार पायेंगे व सामाजिक समरसता रहेगी । पुरुष स्वयमेव समुचित  वेतन के भागी होंगे ।"
             'किन्तु प्राचीन व प्रागैतिहासिक  युगों में भी तो सदा स्त्री-पुरुष दोनों साथ साथ काम करते थे ।' सुमि ने प्रश्न उठाया, 'मध्यकाल में और आज भी अधिकाँश वर्गों में, गाँवों में भी स्त्रियां पुरुषों के साथ साथ सभी कार्य करती हैं । फिर उनकी आर्थिक सुरक्षा का दायित्व किस पर होगा ?'
         निश्चय ही पति -परिवार के साथ कार्य करना, खेतों पर कार्य, व्यवसाय संभालना तो सदा से ही नारी करती आरही है । कैकेयी का युद्ध में साथ देना, रानियों का अन्तःपुर की व्यवस्था संभालना, राधा का नेतृत्व, द्रौपदी का अन्तःपुर संचालन तो प्रसिद्ध हैं । परन्तु प्रश्न अन्य की चाकरी करने का है, सेवा का है, जो सामंती व्यवस्था की देन है  तथा स्त्री-पुरुष उत्प्रीडन, शोषण  व द्वंद्व की  परिणामी स्थिति उत्पन्न करती है । मैंने कहा ।
        हूं, बात में दम तो है । क्या-क्या और कहाँ तक सोचते रहते हो , अभी तक । वह हंसते हुए कहती गयी ।    'अच्छा कहाँ ठहरोगी ?' मैंने पूछा ।
मेडीकल कालेज के गेस्ट हाउस में । और तुम ?
मेरीन ड्राइव पर ।
सागर तीरे..... किनारे बैठने की आदत गयी नहीं अभी तक । वेरी बेड ।
          ' मुझे आवाज़ देती है उमड़ती धार नदिया की 
           किनारे इसलिए ही तो मुझे अब रास आते हैं ।'....अरे गेस्ट हाउस है , चर्च गेट पर , मैंने बताया ।
चलो साथ साथ मेरीन ड्राइव पर घूमने का आनंद लेंगे । पुरानी यादें ताजा करेंगे ।
रमेश कहाँ है ? मैंने पूछा ।
दिल्ली, बड़ा सा नर्सिंग होम है, अच्छा चलता है ।
क्या सोचने लगे ?
यही कि तुमने अपना नर्सिंग होम क्यों नहीं ज्वाइन किया !
            'तुम्हारे कारण केजी ...लिखने पढ़ने की बुरी आदत पडगई है न । प्राइवेट नर्सिंग होम में तो इतना समय ही नहीं मिलता । दिन भर काम में जुटे रहो, लोग चैन से बैठने ही कहाँ देते हैं ।' वह हँसने लगी , फिर बोली. अरे ..डोंट बी डिप्रेस्ड...वास्तव में तो वह सर्जीकल क्लिनिक है, गायानोकोलोजी  नहीं  बाप-बेटे मिल कर चला लेते हैं । फिर मेडीकल कालेज से भी तो सम्बद्दता रहनी चाहिए न ।
तुम्हारी शायरी और डांस ?
फुर्सत ही कहाँ है ।
और फेमिली ?
प्लान्ड, एक बेटा है, एमबीबीएस कर रहा है ,पिता का हाथ बंटाता है। बेटी एमसीए करके अपने पति के पास ।
सुखी हो ?
बहुत, अब तुम बताओ ।
एक प्यारी सी हाउस मेनेजर पत्नी है सुभी ..सुभद्रा । बेटा  बी टेक  कर रहा है और बेटी  एम बी ए ...बस ।
सदा की तरह संतुष्ट और परम सुखी, वह बोली, और कविता ?
क्या दो पर्याप्त नहीं  हैं ?  मैं हंसा ।
तुम्हें याद है अब तक वो पागलपन !
           'जमाने के  कभी में साथ  यारा  चल नहीं पाया ,
            मगर यादें मुझे अब भी जवाँदिल करती जाती हैं।'
मैं किसी नयी काव्य-रचना की बात कर रही हूँ ।
पता है, एक नवीन संग्रह छापा है ..' तेरे नाम ' ।
'मेरे नाम '
नहीं -'तेरे नाम '।
ओह!  मेरे नाम क्या है उसमें ?
           "तू ही मितवा है तेरा नाम तू ही तू जमाने में ।
           जमाने नाम तेरे और क्या अब मैं भला करदूं ।".........देखलेना, कल सुबह पेश करूंगा।
और वह साइक्लिस्ट ?
अपने पति के पास, मैंने हंसते हुए कहा ।
 हूँ, और क्या ख़ास उपलब्धि इस बीच, मैंने पूछा ।
अमेरिका व आस्ट्रेलिया का प्रोफेशनल दौरा, और छः माह  अमेरिका प्रवास ।
वाह! अमेरिका में  हमें याद किया या नहीं ।
नहीं, पर तुम बहुत याद आते रहे । वह मुस्कुराने लगी ।
इसका क्या अर्थ ? मैंने साश्चर्य पूछा ।
 भूलने, याद न करने और याद आने में फर्ख है ......
         'अब भला याद करें भी तो तुम्हें कैसे करें ,
          हम तो भूले ही नहीं सुन के मुस्कुराओगे ।'
वाह ! मान गए सुमि ।
तो अब मुझे और क्या चाहिए ।
 हूँ, बड़ा सुन्दर एडवांस देश है अमेरिका, खुले लोग, खुले विचार  कैसा लगा ?
हाँ , खुली खुली सड़कें ,मीलों दूर तक फ़ैली हुयी, साफ़-सुथरी बड़ी-बड़ी इमारतें , शानदार केम्पस , चमचमाती हुई गाड़ियां , स्वर्ग का सा असीम नैसर्गिक सौंदर्य ....।
तो लौट क्यों आई हो ?
वहां के जी  नहीं है न, वह हंसकर कहने लगी ।
मैं हंसा...फिर बोली ......'जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी'..   है न ।
मैं सोचता हूँ ..मुझे भी हो आना चाहिए ।
      ' वास्तव में वहां कुछ नहीं है के जी, वहां मूलतः खाओ-पियो -मौज उडाओ संस्कृति है । वहां सब कुछ बिकता है, देह से लेकर ज्ञान अनुभव तक....चित्रकारी भी बेचने के लिए, पर्यटन भी उसकी फिल्म बेचने के लिए, मैत्री भी खबर बेचने के लिए । अब तो कोख भी बिकती है । जो बिकाऊ नहीं है वह बेकार है ।' वह कहती गयी ।' वे लोग तुम्हें कुछ नहीं दे पायेंगे.. के जी, हाँ तुम उन्हें बहुत कुछ दे सकते हो ।
       ' ठीक है सुमि, पर हम निगेटिव लोगों से ही अधिक सीखते हैं । जैसे असफलताएं  हमें  बहुत सिखा जाती हैं बजाय सफलताओं के । नकारात्मकता का एक सकारात्मक पक्ष यह भी है कि हम इनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं ।'
        वाह ! क्या बात  है के जी...नकारात्मकता का भी सकारात्मक पहलू । चलो सो जाओ, सुबह बातें होंगी, फ्री टाइम में मेरीन-ड्राइव घूमना है तुम्हारे साथ, बहुत सी बातें करनी हैं ।
                राजधानी एक्सप्रेस तेजी से भागी जारही थी । सामने की बर्थ पर सुमि कम्बल ओढ़ कर सोने के उपक्रम  में थी और मेरी कल्पना यादों के पंख लगा कर तीस वर्ष पहले के काल में गोते लगाने लगी ।
                    

   
                                                     अंक -दो                         
                    सुमित्रा कुलकर्णी, कर्नल रामदास की इकलौती पुत्री, मेडीकल कालिज में मेरी सहपाठी,बीच पार्टनर, सीट पार्टनर; सौम्य, सुन्दर, साहसी, निडर, वाकपटु, स्मार्ट, तेज-तर्रार । लगभग सभी विषयों में पारंगत; स्वतंत्र,  स्पष्ट व् खुले विचारों वाली, वर्तमान में जीने वाली, मेरी परम मित्र।  हमारी प्रथम मुलाक़ात कुछ यूं हुई ।
            चिकित्सा महाविद्यालय में प्रथम वर्ष, रेगिंग जोर-शोर से जारी थी हम सभी नए छात्र क्लास रूम में बैठे थे , प्रोफ. सिंह के इंतजार में । अचानक द्वितीय वर्ष के सीनियर छात्र कक्ष में घुस आये और रेगिंग प्रारम्भ । आदेश हुआ --सभी लडके जल्दी से अपनी क्लास की न. १ से लेकर न. १० तक ब्यूटी-टापर्स लड़कियों के नाम की लिस्ट लिख कर दें । हाँ -कारण भी बताएं ।  जों जितनी देर करेगा उतने ही थप्पड़ों का हकदार होगा ।
           अभी तक तो क्लास में लड़कों के नाम भी ठीक तरह से ज्ञात  नहीं होपाये थे, लड़कियों की  तो बात ही क्या ।  घबराहट में उपस्थिति रजिस्टर में मेरे से दो स्थान आगे सुमित्रा नाम आता था वही लिख दिया । आगे क्या होना है इसका तो किसी को ज्ञान ही कहाँ था ।
             सभी कागजों को सरसरी तौर पर देखकर सीनियर छात्र ने एक कागज़ निकाल कर हंसते हुए कहा.....  ' कौन है यह, सिर्फ एक ही नाम, एक मैं और एक तू ,..अच्छा,  श्री कृष्ण गोपाल गर्ग जी ...आइये डाक्टर साहब , पढ़िए जोर से क्या लिखा है आपने ।'
               सबको काटो तो  खून नहीं ।  खैर, डरते-डरते मैंने सुमित्रा कुलकर्णी का नाम पढ़ा और कारण की कोई और नाम याद ही नहीं है ।  सारी क्लास ठहाकों से गूँज उठी । सुमित्रा ने आश्चर्य मिश्रित क्रोध से मेरी और देखा तो मैंने हाथ जोड़ दिए । क्लास में फिर ठहाके गूंजे । सजा दीगयी -परसों तक सारी लड़कियों के नाम लिख कर देने हैं और गुण भी ।  सोमवार  ७.३० ए एम, यहीं पर ...साथ में  'डिसेक्टर'  के पहले पृष्ठ को भी रट कर सुनाना है..शब्द व शब्द ।
               ' रेगिंग का वास्तविक उद्देश्य शिक्षकों, छात्रों, सीनियर व  जूनियर साथियों , महिला-पुरुष साथियों में आपसी संवाद,  विचार-विनिमय, सहृदयता, अंतरंगता का माहौल बनाना है ताकि पांच वर्ष के कठोर अध्ययन- साधना का क्रम व कठिन परिश्रम का लम्बा समय तनाव रहित व सामान्य रहे । पूरा विद्यालय एक परिवार की भाँति रहे। आपसी ताल मेल द्वारा ज्ञान, व्यवसायिक ज्ञान व व्यवहारिक ज्ञान का तालमेल बने, जो अभी तक सिर्फ पुस्तकीय -एकेडेमिक ज्ञान तक सीमित था।  इसका उद्देश्य अंतर्मुखी व्यक्तित्व को बहिर्मुखी बनाना भी है ।  यह चिकित्सा जैसे सामाजिक -सेवा व्यवसाय क्षेत्र व व्यवहार जगत में उतरने के लिए आवश्यक है । सेवा, सौहार्द, सदाशयता सहृदयता, मानवीयता आदि भाव छात्रों  के अन्दर उत्पन्न हों तथा अन्दर छिपी हुई प्रतिभा , अतिरिक्त सर्जनात्मकता को बाहर लाना भी इसका उद्देश्य है ।'......नवागंतुक छात्रों की स्वागत-समारोह या रेगिंग पार्टी के अवसर पर चिकित्सा महाविद्यालय के प्रिंसीपल -डाक्टर के सी मेहता..एम एस, ऍफ़ आर सी एस (लन्दन) ,ऍफ़ आर सी एस ( एडिनबरा )...रेगिंग पर अपना अभिभाषण प्रस्तुत करते हुए उसकी उपादेयता व आवश्यकता पर प्रकाश डाल रहे थे , जिसका जोर से करतल-ध्वनि से स्वागत किया गया ।
           रेगिंग पार्टी प्रथम वर्ष के नवागंतुक  छात्रों को सीनियर छात्रों द्वारा दी जाती है । तत्पश्चात रेगिंग  को पूरी तरह समाप्त समझा जाता है ।फिर प्रारम्भ होती है अध्ययन-अध्यापन की कठोर साधना, लगभग प्रत्येक वरिष्ठ क्षात्रों व अध्यापकों के सहयोग से ।
         जूनियर व सीनियर क्षात्रों द्वारा विभिन्न सांस्कृतिक आयोजन-कार्यक्रमों के पश्चात रात्रिभोज के साथ समारोह समाप्त हुआ तो सभी छात्र  आपस में हंसी-मज़ाक के साथ-साथ आने वाले पांच वर्षों के भावी जीवन के विविध तानों-बानों के भाव -स्वप्नों  में  उतराते हुए चल दिए ।
        मैंने चलते हुए सुमित्रा से कहा, 'सुमित्रा जी, आपका गायन वास्तव में सुन्दर था, बहुत-सुन्दर ।
         'आपको नाम या होगया मेरा ?'   उसने गर्दन टेडी करके पूछा ।
         'एस, ऑफकोर्स ', मैंने उसे घूरते हुए पूछा , क्यों ?
          कुछ नहीं , वह मुस्कुराती हुई चल दी  ।
                           
                                 * *                              **                                    **                  
 
                  फिजियो-लेब में सुमित्रा मेंढक आगे बढाते हुए बोली, कृष्ण जी ये मेंढक ज़रा 'पिथ' कर देंगे ।
                  क्यों, क्या हुआ।  मैंने हाथ आगे बढाते हुए पूछा ?
                  अभी ज़िंदा है,  और बार-बार फिसल जाता है । 
                  तो क्या मरे को 'पिथ' किया जाना चाहिए ? मैंने मेंढक को पकड़ते हुए कहा, 'ब्यूटीफुल' ।
                 कौन? क्या ! उसने चौंक कर पूछा ।
                 ऑफकोर्स, मेंढक,  मैंने कहा,  देखो कितना सुन्दर है,  है  न ?
                 आपके जैसा है, वह चिढ कर बोली ।
                 मैं तुम्हें सुन्दर लगता हूँ ?
                  नहीं, मेंढक... वह मुस्कुराई ।
                   अच्छा, तभी यह इतना सुन्दर है,  मैंने नहले पर दहला जड़ा ।  देखो इसकी सुन्दर टांगें चीन में बड़े चाव से खाई जाती हैं ।
                    इतनी अच्छी लगती हैं तो पैक करके रखदूं, ले जाने के लिए; उसने शरारत से कहा ।
                  टांगें तो तुम्हारी  भी अच्छी हैं, सुन्दर ....क्या उन्हें भी.....।
                  शट अप, क्या बकवास है ।
                  जो दिख रहा है वही कहा रहा हूँ ।
                  हूँ ! वह पैरों की तरफ सलवार व जूते देखने लगी ।
                 ' सब दिखता है,  आर-पार, एक्स रे निगाहें होनी चाहिए ।',  मैंने सीरियस होकर उसे ऊपर से नीचे तक घूरकर देखते हुए कहा । वह हड़बड़ा कर दुपट्टा सीने पर सम्हालती हुई एप्रन के बटन बंद करने लगी । मैं हंसने लगा तो सुमित्रा सर पकड़ कर स्टूल पर बैठ गयी । बोली ..
             चुप करो,  मेरा मेंढक बापस करो, फेल कराना है क्या ?
             'लो हाज़िर है तुम्हारा मेंढक'  मैंने एक कदम उसकी तरफ आगे बढ़कर मेंढक देते हुए कहा,'क़र्ज़ रहा'।
 वह चुपचाप अपना प्रेक्टीकल करने लगी  ।


                       **                                     **                                           **    


               रात्रि  के लगभग नौ बजे जब लाइब्रेरी से   'स्वच्छ व पेय जल'  एवं दुग्ध की संरचना '...पर सिर मार कर बाहर आया तो सुमित्रा आगे-आगे चली  जारही थी, अकेली ।  मैंने उसके साथ आकर चलते चलते पूछा ...'अरे!  इतनी रात कहाँ से ?'
       जहां से आप ।
      ओह!  बीच में रास्ता सुनसान है, आपको डर नहीं लगेगा, क्या हास्टल छोड़ दूं ?
       अजीब हैं, डर की क्या बात है ?  वह बोली ।
      ओके,  गुड नाईट , बाय, मैंने कहा और आगे बढ़ गया ।
      'थैंक्स गाड ' जल्दी पीछा छूटा, वह बड़-बडाई ।
      पर सात कदम तो चल ही लिए हैं , मैंने  मुड़कर मुस्कुराते हुए  कहा ।
      क्या मतलब?', उसने सर उठाकर देखा ।
      बाय, मैंने चलते हुए कहा ।

                      **                                        **                                             **

                      स्पोर्ट्स वीक के अंतिम दिन छात्राओं के लिए  'मटका दौड़ '  व छात्रों के लिए  'गधा दौड़'  का आयोजन था ।  लड़कियों को रंग से भरा हुआ घडा सिर पर रखकर दौड़ना था । या तो भीगने के डर से धीरे धीरे चलकर रेस हार जाएँ, या तेजी से दौड़कर  सारे कपडे रंग से भिगोलें । कपडे भी सफ़ेद ही होने चाहिए ।
                          सुमित्रा तेजी से दौड़कर यथास्थान पहुँची तो कपडे पूरी तरह से लाल रंग से सराबोर थे और शरीर से चिपक कर रह गए थे । चेहरा पूरी तरह से लाल रंग से रंगा हुआ था। कम या अधिक सभी लड़कियों का यही हाल था मानो  हरे, पीले, लाल रंग में डुबकी लगा कर आयी हों । कुछ तो बीच में ही घडा फैंक कर भाग खड़ी हुईं । मैंने अचानक सुमित्रा के सामने आकर कहा , ' क्या जीतने के चक्कर में पूरा भीगने के आवश्यकता थी ?'
                        वह अचकचा गयी, फिर बोली, आप  क्या जानें ...इस तरह भीगने में कितना आनंद आता है, भीगने का भीगना,  जीत प्रशंसा व् पुरस्कार अलग से बोनस में ।  दुगुने लाभ के बात है । समझे ? तन से  मन से रंग जाने को जी करता है ।
                      और आप ही कौन से कम एक्साईटेड थे, वह कहने लगी,  ' गधे को ऐसे दौड़ा रहे थे जैसे खानदानी गधा -सवारी  गांठने वाले हों । और गधा भी क्या खानदानी गधा निकला -जिद्दी ..कि मैं तो ऐसे गधे के साथ नहीं दौड़ता । और न दौड़ा तो न दौड़ा ।
           मैं  उसे घूरकर देखने लगा तो मुस्कुराती हुई दौड़कर लड़कियों के झुण्ड में गायब होगई ।






                                           अंक -तीन 

       एनाटोमी डिसेक्शन हाल  की सीट पर मैंने पूछा ,' सुमित्रा जी ,सियाटिक नर्व को कहाँ से निकाला जाय , बिलकुल दिमाग से ही उतर गया है ?
       है भी !, जाने क्या क्या भरे रखते हैं,  दिमाग में ?
       उसने हाथ से चाकू लगभग छीन कर चुपचाप चीरा लगाकर फेसिया तक खोल दिया , बोली ' आगे बढूँ या ...'
         'अभी के लिए बहुत है ', मैंने कहा ,' एक दम आगे बढ़ना ठीक नहीं ...
                  " आपने चिलमन ज़रा सरका दिया ,
                     हमने जीने का  सहारा  पालिया ।"
                   वह चुपचाप अपना प्रेक्टिकल करती रही । बाहर आकर बोली ,' कृष्ण जी उधार बराबर ।'
           'और सूद!', मैंने कहा ।
           'सूद' वह आश्चर्य से देखने लगी !
           ' वणिक पुत्र हूँ ना ।'
           ' क्या सूद चाहिए ?' वह सोचती हुई बोली ।
           'हुम   sss.... चलो दोस्ती करलें,  मैंने कहा ।
            ओह ! वह सीने पर हाथ रखकर निश्वांस छोड़ती हुई बोली , ' ठीक है, मेरा तो नाम ही सुमित्रा है, सुखद-सुहाने मित्रों वाली, स्वयं अच्छी मित्र है जो, जो मित्र बनाती है तो बनाती है;  नहीं तो नहीं ।'
            निभाती भी है ?, मैंने कहा ।
           ' इट डिपेंड्स'...जो जिस लायक हो । सात कदम तो चल ही लिए हैं, वह मुस्कुराकर कहने लगी ।
            'चलो काफी होजाय '  मैंने आमंत्रण दे डाला ।
            काफी टेबल पर बैठकर मैंने उसका हाथ छुआ तो प्रश्नवाचक नज़रों से देख कर बोली ,' उंगली पकड़कर हाथ पकड़ना चाहते हैं ? इसे तो आप नहीं लगते मिस्टर .....।
              ' कृष्ण गोपाल ', मैंने कहा ।
              'पता है, किसी भ्रम या उम्मीद में मत रहना । आशाएं विष की पुड़ियाँ होती हैं, कष्टदायी, बचे रहना ।
              सुमित्रा जी, हमारा भी कुछ आत्म- सम्मान है । वैसे भी मैं नारी-सम्मान व पुरुष-सम्मान दोनों को ही समान  महत्व देता हूँ । नारी का हर रूप मेरे लिए सम्मान जनक है ।  मैं  'नारी तुम केवल श्रृद्धा हो ' के साथ साथ आत्मसम्मान, विश्वास से भरपूर मर्यादित नारी की, पुरुष के  कंधे से कन्धा मिला कर चलती हुई नारी की छवि का कायल हूँ ।  जब तक तुम स्वयं नहीं चाहोगी, मैं कुछ नहीं चाहूंगा ।
               वाह ! क्या बात है । हम खुश हुए । वह वरद-हस्त मुद्रा में मुस्कुराई ।
              सच सुमित्रा, यदि शिक्षा व स्त्री-शिक्षा के इतने प्रचार-प्रसार के पश्चात् भी शोषण व उत्प्रीणन जारी रहे तो क्या लाभ ?  मैं बातें नहीं,  कर्म पर विश्वास करता हूँ, परन्तु यथातथ्य विचारोपरांत ।  यह शोषण-उत्प्रीणन चक्र अब रुकना ही चाहिए ।  पर जब तक  नारी स्वयं आगे नहीं आयेगी, क्या होगा ? नारी-शोषण  में कुछ नारियां ही तो भूमिका में होती हैं ।  आखिर हेलन या बैजयंतीमाला को कौन  विवश करता है अर्धनग्न नृत्य के लिए ?  चंद पैसे ।  क्या आगे चलकर कमाई का यह ज़रिया वैश्यावृत्ति का नया अवतार नहीं बन सकता ।'
               आखिर नारी क्या चाहती है ?  नारी स्वातंत्र्य का क्या अर्थ हो ?  मेरे विचार में स्त्री को भी पुरुषों की भाँति सभी कार्यों की छूट होनी चाहिए । हाँ, साथ ही सामाजिक मर्यादाएं, शास्त्र मर्यादाएं व स्वयं स्त्री सुलभ मर्यादाओं की रक्षा करते हुए स्वतंत्र जीवन का उपभोग करें ।  आखिर पुरुष भी तो स्वतंत्र है, परन्तु शास्त्रीय, सामाजिक व पुरुषोचि मर्यादा निभाये बगैर समाज उसे भी कब आदर देता है ।  वही स्त्री के लिए भी है । भारतीय समाज में प्राणी मात्र के लिए सभी स्वतन्त्रता सदा से ही हैं ।  हाँ, गलत लोग, गलत स्त्री तो हर समाज में सदा से होते आये हैं व रहेंगे ।  इससे सामाजिक संरचना थोड़े ही बुरी होजाती है ।अतः उसे कोसा जाय , यह ठीक नहीं । और  'समाज को बदल डालो'  यह नारा ही अनुचित है अपितु  'स्वयं को बदलो ' नारा होना चाहिए । यही एकमात्र उपाय है आपसी समन्वय का एवं स्त्री-पुरुष, समाज-राष्ट्र की भलाई  व उन्नति का ।
               ब्रेवो! ब्रेवो !, वह ताली बजाती हुई बोली । पर यह भाषण तो मुझे देना चाहिए ।' और हाँ ....वह सोचती हुई बोली, ' ये शब्द व भाव तो कहीं पढ़े हुए लगते हैं ।'
                         " फिजाओं में  भी  गूंजेंगे कभी ये स्वर हमारे,
                          आप चाहें इन स्वरों में हम सजालें सुर तुम्हारे ।"   
               ठहरो, वह बोली,  'आपका पूरा नाम क्या है ?'
              इतनी जल्दी भूल गयीं ? श्री कृष्ण गोपाल गर्ग ।
              हूँ, शायरी, नारी विमर्श पर वही तार्किक भाव-उक्तियाँ ,कथोपकथन, कविता भी .....किसी पत्रिका में पढ़ती रही हूँ ।  कृष्ण गोपाल ..क्या तुम.. 'केजी'  के नाम से  ' नई आवाज ' में लिखते हो ?  तुम 'केजी' हो !...मैं समझती थी कोई मिडिल एज का व्यक्ति होगा ।
           मैं उसकी तीब्र बुद्धि का कायल होकर रह गया, और आँखों में आँखें डाल कर मुस्कुराया ।
           वह हंसी, उन्मुक्त हंसी ।  कमीज की कालर ऊंचे करने के अंदाज़ में बोली,  ' ये हम हैं, उड़ती चिडिया के पर गिन लेते हैं । तो तुम यहाँ क्या कर रहे हो ?  तुम्हें किसी यूनिवर्सिटी में  'प्रोफ़ेसर आफ प्रोफेसी' होना चाहिए।'
             ' भई !  बातों से ही तो  काम नहीं चलता न,  कुछ खाने -पीने का भी तो जुगाड़ होना चाहए । फिर मेडीकल से अच्छा और क्या होसकता है,  बातें की बातें , काम धंधा भी, सेवा भी ....और तुमसे जो मिलना था सिर खपाने के लिए, ताकि पूरा प्रोफ़ेसर बना जा सके ।'  मैंने हंसते हुए कहा ।
              ' आई एम् इम्प्रेस्ड ',  मैं तो केजी की फैन हूँ ।  बधाई, अब कोई कविता सुना ही दो ।'...वह गालों को हथेली पर रखकर, कोहनी मेज पर टिका कर श्रोता वाले अंदाज़ में बैठ गयी ।  मैंने सुनाया....
                              " मैंने सपनों में देखी थी ,
                              इक मधुर सलौनी सी काया ।
                                      *                *
                               अधखिले कमल लतिका जैसी , 
                                अधरों की कलियाँ खिली हुईं ।
                                क्या इन्हें चूम लूं यह कहते,
                                वह होजाती है  छुई - मुई ।
                                         *              *
                               तुमको देखा मैंने पाया,
                               यह तो तुम ही थीं मधुर प्रिये ।।"

             मैं आनंदानुभूति से सरावोर हो गयी हूँ केजी ! वह बोली ।
            तो दोस्ती पक्की ।
             हाँ ।
            क्यों ?
            "ज्ञान वैविध्य,बिना लाग लपेट बातें , नारी सम्मान भाव...नारी मन को छूते हैं,  कृष्ण . और तुम्हें ?
            "तुम्हारा आत्मविश्वास, सुलझे विचार और काव्यानुराग "..मुझे पसंद है सुमित्रा ।
            " कहीं यह ' पहली नज़र में प्यार' .. का मामला तो नहीं बन रहा " ,  अचानक उसने सतर्क निगाहों से पूछा ।
            हाँ शायद,  मैंने कहा ...और तुम....?
            पता नहीं,  नहीं कर सकती , मजबूर हूँ  ।  पर मित्रता से पीछे नहीं हटूंगी ।
           क्यों मज़बूर हो भई ?
           दिल के हाथों ..के जी, जी । तुम पहले क्यों नहीं मिले । मैं वाग्दत्ता हूँ,रमेश को बहुत प्यार करती हूं । शादी भी करूंगी ।...वह अरुणिम होते हुए चेहरे से कहती गयी ।   
           ' ये रमेश कौन भाग्यवान है ?'
           ' मेरा पहला प्यार,  हम एक दूसरे को बहुत चाहते हैं । दिल्ली में एमबीबीएस कर रहा है ।',  उसने पर्स में से फोटो निकाल कर दिखाते हुए कहा,  ' बहुत प्यारा  इंसान है'।    
           'और मैं....?
           "तुम...!...तुम...."  वह जैसे ख्यालों से बाहर आती हुई बोली,  'तुम...तुम हो..अप्रतिम...बौद्धिक सखा...राधा के श्याम ...और मैं तुम्हारी काव्यानुरागिनी, समझे..।'  वह सिर से सिर टकराते हुए बोली ।
            अब मैं आनंदानुभूति से सराबोर हूँ, सुमि !
            साथ छोड़कर भागोगे तो नहीं ?
            नहीं.....
                         " हम तुम चाहे मिल पायं नहीं ,
                           जीवन में न तेरा साथ रहे ।
                           मैं यादों का मधुमास बनूँ ,
                          जो प्रतिपल तेरे साथ रहे ।।" 
          तो क्या देवदास बन जाओगे ? वह हंसी ।
           क्या मैं इतना मूर्ख लगता हूँ ?........
                            " छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए ,
                              यह मुनासिव नहीं आदमी के लिए ।"

                              
             यह भी तो प्रेम का ही एक भाव है, सुमि !  एक उत्कृष्ट रूप में,  मीरा व राधा का भी तो प्रेम था ।  यह पराकाष्ठा है प्रेम की । प्रेम को भौतिक रूप में पा लेना कोई इतनी बड़ी बात या उपलब्धि नहीं है, न उससे आपको कोई असाधारण सामाजिक,  भावनात्मक या आध्यात्मिक प्राप्ति ही होती है जिसके लिए सारे बंधन, पारवारिक, सामाजिक मर्यादाएं, नैतिकता की सीमाएं तोडी जायं ।  तमाम कष्ट उठाकर कैरियर दांव पर लगाकर  समाज के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न किया जाय ।  हाँ, प्राप्ति के अहं की तुष्टि अवश्य होती है ।  यह अशरीरी प्रेम एक उत्कृष्ट भाव है, परकीया होते हुए भी व्यक्ति को जीवन भर प्रफुल्लित रख सकता है, भक्त -भगवान के भाव की तरह ।
             तुम्ही कह सकते हो यह सब, केजी '।  सुमि भावुक होकर कहती गयी।  सच है,  'फ्रेंडशिप सदा रहती है रिलेशनशिप नहीं ।'   मित्रता चिरजीवी होती है........
                      "  मन से तो मितवा हम होगये हैं तेरे 
                        क्या ये काफी नहीं है तुम्हारे लिए ।
                       दोस्ती ऊंची मन की बहुत प्यार से,
                       मन की दुनिया है सब कुछ हमारे लिए ।"
मेरी कविता कैसी है, महाकवि  केजी ।
              आखिर शिष्या किसकी बनी हो,  अच्छा चलो अब बताओ राधा व मीरा में कौन श्रेष्ठ है। तुम्हारा क्या ख्याल है ?
               बाप रे ! घुमा फिराकर इतना टेड़ा सवाल ? अपनी तरह ।  दोनों ही श्रेष्ठता की सीमाएं हैं ।  तुम्हारी ही बात को आगे बढाती  हूँ ....'.राधा -प्रेम व विरह दोनों का भाव है, मीरा सिर्फ दरद-दिवाणी है, प्रेम दिवानी है । राधा ने सब कुछ पाया फिर त्यागा । वह त्याग की महानता व पराकाष्ठा है । तभी राधा देवी स्वरूपा होपाई । मीरा बगैर पाए ही प्रेम दीवानी है, दर्द-दीवानी है । पाने का सुख जाने बिना विरह एक अन्य भाव है, भक्ति भाव है । परन्तु पाने के बाद छोड़ने का त्याग -विरह एक अनन्य भाव है । मीरा मानवी ही है ।'
               ' क्या विश्व में, सभ्यता के किसी दौर में, काव्य में, समाज व इतिहास में ...राधा जैसा चरित्र देखा-सुना है । कहीं एसा हुआ है कि परकीया नायिका, प्रेमिका को आदर ही नहीं अपितु देवी स्वरुप में प्रतिष्ठित किया गया हो । यहाँ तक कि पत्नी के स्थान पर देवता के साथ प्रेमिका को पूजा गया हो । यह सात्विक प्रेम की ही कहानी है ।'
               'तो तुम राधा बनना चाहती हो !'
               चाहने से क्या होता है, केजी ।  परिस्थितियाँ ही नियति बनकर व्यक्ति को भवितव्य की ओर धकेलती हैं तथा भविष्य तय करती हैं।  हाँ, व्यक्ति की स्वयं की दृड़ता जो आदर्शों, विचारों, कुल व समाज की स्थिति से बनती है इसमें बहुत प्रभाव डालती है ।
              ' मैं समझ रही हूँ,  तुम यह बात क्यों छेड़ रहे हो । तुम क्या कहलाना चाहते हो । परिस्थिति व नियति वश ही मैंने रमेश से प्रेम किया है, शादी का भी इरादा है । आज यद्यपि इस बदली हुई परिस्थित में  मैं तुमको भी पसंद करती हूँ, बदल भी सकती हूँ, तुमसे भी विवाह कर सकती हूँ । परन्तु तुम्हारे ही अनुसार प्रेम में प्रिय को प्राप्त कर लेना उतना महत्वपूर्ण नहीं  है कि बहुत सारे अवांछित पापड बेले जायं ।  यदि मैं तुम्हें प्रेम करते हुए भी ..रमेश से प्रेम विवाह करती हूँ तो क्या मेरे प्रेम की, मित्रता की  महत्ता कम होती है ?  मैं तो राधा भी हूँ, मीरा भी ......। संतुष्ट हो ।'
             ' जी ' 
             'और कुछ पूछना है ?'
             'नहीं जी ' 
           ' व्हाट द हेल '....  ये  जी.. जी   क्या लगा रखी है ? ' वह नाराज़गी से देखने लगी ।
            ' अब राधा  और मीरा से तो सम्मान से ही पेश आना पडेगा न ।' 
            ' धत...यू......।'
           ' वैसे सीता के बारे में आपकी राय ....।
           फिर कभी, अब निकलो यहाँ से,  नहीं तो मार खाजाओगे ।  वह मुझे लगभग धकेलती हुई चल दी ।

                                  **                                 **                                   **

                            छात्र संघ के चुनावों में सचिव, सांस्कृतिक प्रकोष्ठ के पद के लिए सुमित्रा को प्रत्याशी बनाया गया ।  सभी छात्र प्रत्याशी, तरह तरह के प्रचार कार्ड बनवाकर छात्रों में बाँटते थे  । अपने अपने नवीन विचारों, भावों को प्रचार कार्ड के पीछे लिखा जाता था । सुमित्रा प्रसन्न मना व प्रसन्ना बदना दौड़ती हुई आयीं । 
            कृष्ण ! कोई नया आइडिया सोचा जाय, एक दम नवीन । ये सारे कार्ड तो पढ़ कर फैंक दिए जाते हैं । मैं चाहती हूँ एसा कार्ड बने जो फैंका न जा सके, प्रिज़र्व करने लायक हो ।
            'क्या अभी से अमर होने का प्रयास है ।'  मैंने कहा तो वह गंभीर होकर मुझे देखती रह गयी ।
            'मैंने कहा, एक  'बुक-मार्क'  के आकार का कार्ड बनाओ  और उसके पृष्ठ पर किसी इसी अच्छे चिकित्सा विषय की संक्षिप्त गाथा लिख दो कि सब पढ़ें । देखना तुम सालों साल पुस्तकों में प्रिज़र्व रहोगी ।' मैंने सुझाव दिया ।
             सुपर्व..'.मुझे पता था, तुम्हारे पास हर प्रश्न का तुरंत रेडीमेड उत्तर अवश्य रहता है ।'  सुमि ने प्रशंसापूर्वक सर हिलाते हुए कहा । 
             दूसरे दिन सुमित्रा ने अपने प्रचार-पत्र का प्रारूप  लाकर दिखाया ।  पुस्तक-चिन्ह के रूप में कार्ड  के पीछे " श्रवण-पथ "  का संक्षिप्त किन्तु पूर्ण व सारगर्भित वर्णन था ......
                                          
                                           हीयरिंग पाथ वे  ( श्रवण-पथ )
               ' स्टीरियोफोनिक' ( सम्मिश्र ) ध्वनियाँ सुनने के लिए मानव को दो कान दिए गए हैं,  इसी कारण दिशा निर्धारण भी सुगम होता है ।  'पिन्ना' (बाहरी कान ) ध्वनि को केन्द्रित करते हैं तथा यूस्टेकीयन ट्यूब (कर्ण नलिका )  की तरफ भेजते है ।  ध्वनि-श्रोत  ( साउंड ) के समीप की वायु में मशीनी ऊर्जा रूपी तरंगें उत्पन्न होती हैं जो कर्ण-नलिका में प्रवेश करके टिम्पेनम या ईयर-ड्रम ( कान का पर्दा ) को कम्पन देती हैं । ये कम्पन मध्य-कर्ण स्थित तीन छोटी-छोटी अस्थियों --इन्कस, मेलियस, स्टेपीज़  ...द्वारा आतंरिक कर्ण स्थित ' काक्लिया' को कम्पित करती हैं । यहाँ पर कम्पनों की मशीनी ऊर्जा...विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित होकर श्रवण तंत्रिका ( आठवीं केन्द्रीय तंत्रिका नाडी ) के तंतुओं को विद्युत्-प्रवाह सन्देश देती हैं जहां से वे विद्युत-धारा के रूप में ' काक्लियर-केन्द्रक ' होते हुए  ' मेड्यूला '   के  'सुपीरियर  ओलिवरी काम्प्लेक्स ' पहुँच कर  दोनों तरफ के कानों की सूचनाओं का आदान-प्रदान करते हैं ताकि ताल-मेल बना रहे ।  वहां से  ' लेटरल लेमिनिस्कस  '  होते हुए सन्देश  'मध्य मस्तिष्क'  के  'इन्फीरियर कौलीकस'  पहुंचते हैं,  जहां  पुनः दोनों ओर के  कानों के स्नायु ( नर्व-तंतु) -क्रास ओवर होते हैं और अंत में   'मीडियल केलीकुलस'  होते हुए ये संवेदन ध्वनि विद्युत् -प्रवाह   'उच्च-मस्तिष्क' ( सेरीब्रम ) के  'टेम्पोरल लोब'  के   'एकोस्टिक एरिया' ( श्रवण-क्षेत्र ) पहुंचते हैं ;  जहां विद्युत्-रासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा इन संवेदी सूचनाओं का विश्लेषण करके उचित उत्तर व आदेश प्रेषित होते हैं  और हम सुनते हैं व प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं ।"


               'एक्सीलेंट, सुपर्व, सिम्पली मार्वेलस। यू आर जीनियस सुमि ! ।'  क्या आइडिया है । यह तुम्हारा प्रचार-पत्र, बुक-मार्क  सालों साल चिकित्सा-विद्यालय के मन-मानस में, डाक्टरों-छात्रों के साथ अमर बन कर रहेगा ।
             यह आशीर्वाद है !  वह मुस्कुराई,  'किन्तु मूल आइडिया तो तुम्हारा ही था ।',  सुमि ने कहा ।  
            'पर क्रिया रूप में परिणत न होने पर शायद व्यर्थ ही रहता ।' मैंने प्रशंसात्मक नज़रों से कहा, 'बधाई'। 


                                    -
   
        
                                                        अंक चार 

                " प्रेम होना या करना एक अलग बात है वह व्यक्ति के वश में नहीं है ।  अपने प्यार को प्राप्त कर लेना,  प्रेमी से प्रेम-विवाह  एक सौभाग्य की बात है ।   परन्तु एक अन्य पक्ष यह भी है कि प्रेम को भौतिक रूप में पा लेना या प्रेम विवाह कोई  इतना महत्वपूर्ण व आवश्यक भी नहीं है कि उसके लिए संसार में सब कुछ त्यागा जाय ।   माता-पिता, रिश्ते-नाते, समाज, मान्यताएं, मर्यादाएं, बंधन व नैतिकता की सीमाएं तोडी जायं ।  अपना सारा केरियर दांव पर लगाया जाय ।  यह इतनी बड़ी उपलब्धि भी नहीं है कि प्राण त्यागने को भी प्रस्तुत रहा जाय, जो ईश्वरीय देन है ।  क्योंकि  ' आत्म एव यह जगत है '  वस्तुतः हम प्रत्येक कार्य सिर्फ स्वयं के लिए ही करते हैं ।  परमार्थ में भी आत्म-सुख का भाव छुपा रहता है ।  सभी बंधन, सहयोग भी आत्मार्थ से ही जुड़े रहते हैं।  हम देंगे तभी मिलेगा भी  आत्मार्थ भाव ही है ।  अतः सिर्फ प्रेम-विवाह की जिद में सारा केरियर, सांसारिक सम्बन्ध यहाँ तक कि जीवन भी खोना पड़ता है तो शायद यह बहुत अधिक मूल्य है ।  संसार में ऐसी कौन सी प्रेम-कथा है जो इस तरह के सम्बन्ध में परिणत होकर उन्नत शिखर पर पहुँची हो,  या जो सुखान्त हो  एवं  जिससे देश व समाज या व्यक्ति स्वयं उन्नत हुआ हो ।"
             " प्रायः कहा जाता है कि महिलायें भावुक होती हैं ।  परन्तु यह सर्वदा सत्य नहीं है । वैदिक विज्ञान के अनुसार . पराशक्ति -पुरुष सिर्फ भाव रूप में शरीर या किसी पदार्थ में प्रविष्ट होता है जबकि अपरा-शक्ति नारी, प्रकृति, माया, शक्ति या ऊर्जा रूप है जो पदार्थों व  शरीर  के भौतिक रूप का निर्माण करती है । अतः पुरुष भाव-रूप होने से अधिक भावुक होते हैं, स्त्रियाँ इसका लाभ उठा पाती हैं ।"
            ' एक्सीलेंट , न्यू आइडियाज़ , नेवर हार्ड ऑफ़ '...एक दम नवीन विचार हैं, पहले कभी नहीं सुने गए ।
            ' स्टूडेंट कल्चुरल असोसिएशन ' के तत्वावधान में आयोजित वाद- विवाद प्रतियोगिता में " नारी-जागरण के सन्दर्भ में प्रेम, प्रेम-विवाह के बढ़ते चरण व नारी-पुरुष समानता " विषय पर मेरे द्वारा व्यक्त किये गए विचारों के उपरांत साथ में बैठे विनोद ने उपरोक्त वाक्य हाथ मिलाते हुए कहे ।
            थैंक्स, मैं मुस्कुराया ।
            क्या ये आपके ओरिजिनल विचार हैं ? अचानक पीछे की सीट पर बैठी हुई कुमुद नागर ने पूछा ।
            ऑफकोर्स, मैंने हैरानी से कहा ।
           ' ओह माई गाड!' ..वह स्वयं ही बोली ।
           क्या हुआ!
           नथिंग ।
           ठीक तो हो, मैंने  पूछा ।
           हाँ, मैं चलती हूँ ।
           कुमुद की बगल में बैठी हुई सुमित्रा ने मेरी और देखा ।  फिर मुस्कुराकर बोली, 'फेंटास्टिक' , क्या बात है।  ये उम्र और ये ऊंची ऊंची बातें कहाँ से सीखते हो ?
          'पढो..पढो..और  पढो । चिंतन-मनन करो, प्रत्येक बात पर ।'  मैंने हंसते हुए कहा ।
           मैं नहीं समझती किसी के पल्ले कुछ ख़ास पडा होगा ।  अधिकाँश के तो सिर  के ऊपर से निकल गया होगा ।  ऊंची चीज़ है न ?
          ' क्या खींचने को कोई और नहीं मिला ?'
          ' मिले तो बहुत पर तुम जैसा नहीं ।'
           जाओ, अपना भाषण पढो । बुलाया जारहा है, देखें क्या तीर चलाती हो ।
                     " स्त्री -पुरुष समानता  का क्या अर्थ है ? ",  सुमित्रा ने अपना वक्तव्य प्रारम्भ किया , " अपने कर्तव्यों और मर्यादाओं की सीमा में रहते हुए, स्त्री-पुरुष एक दूसरे का आदर करें ।  यदि पुरुषों का एक अलग संसार है तो नारी का भी एक  'स्व'  का संसार है ।  कला, साहित्य, संगीत, गृहकार्य, सामाजिक-सांस्कृतिक सुरक्षा दायित्व में तो वे पुरुषों से आगे रहती ही हैं ।"
                  " स्त्री स्वतन्त्रता होनी ही चाहिए , पर क्या पुरुष से स्वतंत्रता ? या अपने सहज कार्यों से ?...नहीं न । तो स्त्री-जागरण व  स्वतंत्रता का क्या अर्थ हो ?  पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर समाज, देश व धर्म-संस्कृति के कार्यों में सामान रूप से भाग लेना ।  स्त्री स्वतन्त्रता सिर्फ पुरुषों के साथ कार्य करना, पुरुषों की नक़ल करना, पुरुषों की भाँति पेंट-शर्ट पहन लेना भर नहीं है ।  क्या कभी पुरुष..पायल, बिछुआ, कंकण, ब्रा आदि पहनते हैं ? सिन्दूर लगाते हैं । क्या कोई महिला पुरुषों के साथ नहाने-धोने, कपडे बदलने  में सहज रह सकती है ? तो क्यों हम पुरुषों की नक़ल करें ?  समानता होनी चाहिए , अधिकारों व कर्तव्यों के पालन में । एक व्यक्तित्व को दूसरे व्यक्तित्व को सहज रूप से आदर व समानता देनी चाहिए ।"
              'एक्सीलेंट,बहुत खूब',  सभी के सराहना के स्वर समवेत स्वर में हाल में गूँज उठे । हाल से  बाहर निकलते हुए  मैंने प्रशंसा के स्वर में  कहा , ' रीयली एक्सीलेंट सुमि!  जीनियस'..और स्त्री-पुरुष संबंधों पर तुम्हारे क्या विचार हैं ?
               सुमि जोश में थी बोली,  'मैं समझती हूँ  प्रत्येक व्यक्तित्व को एक मित्र,  राजदार, भागीदार की आवश्यकता होती है। व्यक्ति अकेला कुछ नहीं होता ।  हम इसलिए हम हैं कि अन्य हमें वह मानते हैं, समझते हैं ।   ईश्वर तभी ईश्वर है जब भक्त उसे मानता व पूजता है।   हाँ उसे स्वयं को उस स्तर तक  उठाना चाहिए। सखियाँ तो सदा बचपन से होती ही हैं, परन्तु महिला मित्रों से केवल  आधी दुनिया  को जानने  की  संतुष्टि  होती है।   शेष आधी दुनिया जो पुरुषों की है उसे जाने बिना आत्म-तत्व की पूर्ण संतुष्टि नहीं होती । इसीलिये एक वय  के उपरांत पुरुष मित्र भाने लगते हैं । यही बात पुरुषों के साथ भी है । यद्यपि इसमें हमारे शरीर-विज्ञान की मान्यताएं भी पार्ट-प्ले करती हैं । इसलिए महिलायें पति में सच्चा मित्र देखना चाहती हैं । पति तो कोई भी हो सकता है, परन्तु यदि सच्चा मित्र पति हो तो क्या कहना । और पति यदि सच्चा मित्र बन जाय तो दुनिया सुखद-सुहानी रहे । अतः पुरुषों को सच्चा मित्र पहले होना चाहिए ।  वैसे पुरुष की जो 'सृष्टिगत अहं या ईगो'  है  उसके कारण वह सदैव नारी का सुरक्षा कवच बनना चाहता है ।  नारी को भी यह अच्छा लगता है, क्योंकि इससे  'शक्ति'  का अहं  तुष्ट होता है ।  भाई, पिता, पुत्र , पति , मित्र..सभी में यह सुरक्षा कवच बनने का भाव होता है ।  यह जेनेटिक, संस्कारगत होता है।  बस, जब पुरुष में किसी कारणवश  हीन- भावना आ जाती है तभी वह केवल पति या मालिक होने का व्यवहार करके अपने अहं की तुष्टि करता है  जो अति के रूप में अत्याचार-उत्प्रीणन में परिवर्तित हो जाता है।   हाँ, कुछ उदाहरणों में यह नारी के सन्दर्भ में भी घटित होता है।"
                 ' यूं आल्सो हैव एक्सीलेंट न्यू आइडियाज़  नैवर हार्ड ऑफ़ '...अचानक पीछे से विनोद की आवाज़ आई और  साथ में तालियाँ ।
                             **                                    **                           **


                       अगले दिन  लाइब्रेरी के सामने सुमित्रा को एक सीनियर छात्र डा नारंग  से बात करते हुए देखा । मुझे देखते ही वह मुस्कुराकर माथे पर बल डालते हुए चली आयी ।
          ' भई,  डा नारंग क्या गुरुमंत्र देरहे थे ?'  मैंने हंसते हुए पूछा ।      
           ही....ही....ही.....वह हंसते हुए  बोली , 'प्रशंसा कर रहे थे कि क्या भाषण दिया है, क्या मार्के की बात कहती हो ।' चलो काफी पिलायें ।    
           फिर...?
           ' मैंने कहा, कृष्ण मेरे इंतज़ार में है आप चलिए मैं उसे लेकर आती हूँ ।'  ....ही...ही ... ही .... वह हंसने लगी ।
           फिर क्या बोले ...!
          ' तेरे से कौन टक्कर ले,  रे त्रिभंगी ! '
           व्हाट ! ये कौन सी भाषा है ? ये उन्होंने कहा ।
          'दैया रे दैया, अपनी ही बोली-बानी भुलाय दई, रे नटवर ! नगर में आय कै।'......ही .ही.... ही ......ही..... ही ... जैसे उसे हंसी का दौरा पड़  गया हो ।
          अब कहो भी, क्या भीड़ इकट्ठा करने का इरादा है ।
         ' क्या कहूं ? '   वह हंसते हंसते वोली, ' फिर कभी कह कर फूट लिए ।'
          भई उनका भी दिल रखलेना चाहिए था ।
         'दिल से कह रहे हो?', फिर किस किस का दिल रखती रहूँगी, क्यों पचड़े में पडूँ ।'  हाँ तुम बताओ ये क्या होगया है तुम्हें ?
          अब मुझे क्या हुआ ?
          कुमुद से तुमने क्या उलटा-सीधा कह दिया ?
         अरे हाँ, उसे अचानक क्या हुआ था, अब ठीक है ?
         'ठीक तो है महाज्ञानी जी,परन्तु तुमने उसे बहुत निराश कर दिया ।'
        क्यों? मैंने क्या किया? जो कुछ कहा था तुम्हारे सामने ही तो कहा था,और उससे उसे क्या |
         अरे बावा ! वह तुम पर लाइन मार रही थी ।' चाहती थी ।
         'तो अब ?'
         तुम्हारी बातें सुन कर सहम गयी ।  बोली, 'बड़े विचित्र विचारों वाला निर्मोही व नीरस व्यक्ति है।'  
         मैं हंसने लगा,  'चाहत बड़ी गहरी और ऊंची शय है' ,  है न सुमि ?  'जो इतनी जल्दी उतर जाय वह चाहत ही क्या । जो चंद बातों से घबरा जायं वो क्या जानें चाहत क्या है ।'
         हूँ,  सो तो है ।  सुमि ने सीरियस होकर सिर हिलाया । 
                              **                             **                               ** 
                          छुट्टियों के बाद सुमित्रा जब दिल्ली से लौट कर आई तो कुछ उदास व चुप चुप थी। मैंने पूछा,
         ' क्या बात है,  क्या किसी से लड़कर आई हो ? '
         ' नहीं भई ।',   सुमित्रा बोली ।
         'तो फिर क्या बात है ?'
         सुमि चुप रही तो सुमन उपाध्याय ने बताया ।  कृष्ण जी, वो श्रुति की डेथ हो गयी है न ।
         कौन श्रुति ? मैंने पूछा ।
         केजी,  भूल गए।  अपने साथ फर्स्ट ईयर में  एक लड़की थी  श्रुति, जिसने बाद में  दिल्ली मेडीकल कालिज  में ट्रांसफर करा लिया था ।
         अच्छा, वो एक दम गोरी, सुन्दर सी गोल-मटोल लड़की जो किसी  आईऐएस  की बेटी थी ।
         हाँ, हाँ  वही, उसकी मृत्यु होगई ।
         कैसे ?
        उसे  'पिट्यूटरी ट्यूमर'  होगया था न,  इसीलिये तो दिल्ली ट्रांसफर कराया था । पिछली बार अचानक मुलाक़ात हुई थी । वह  'स्टीरोइड'  पर थी। आपरेट भी किया गया था। परसों ही बह चल बसी। 'सुमि ने बताया।'
        'रियली सैड' तभी वह इतनी सुन्दर गोल-मटोल थी ।'
         ' हाँ, मेरी  रूम-पार्टनर थी न' , सुमि डबडबाई आँखों से बोली ,  ' खूब हंसमुख व खूब बोलने वाली ।'    
         चलो काफी लेलो, जी ठीक होजायगा ।' मैंने कहा ।
         नहीं मन नहीं है, मैं चलती हूँ ।  
         ठीक है,  टेक केयर, ईश्वर की मर्जी । मैंने कन्धों पर हाथ रखते हुए कहा ।
         वह सिर हिलाते हुए जबरदस्ती मुस्कुराई और सुमन के साथ चली गयी ।
                                 
                           --...क्रमश: ......अगली पोस्ट में .....