बुधवार, 27 अप्रैल 2011

शूर्पणखा काव्य उपन्यास----सर्ग ७-संदेश........


शूर्पणखा काव्य उपन्यास----सर्ग ७-संदेश
 




    शूर्पणखा काव्य उपन्यास-- नारी विमर्श पर अगीत विधा खंड काव्य.....रचयिता -डा श्याम गुप्त  
         --पिछली पोस्ट -- इस सर्ग ६-शूर्पणखा में..वर्णित किया गया कि कैसे शूर्पणखा अपने प्रणय निवेदन के अस्वीकार  होने पर अपने वास्तविक स्वरूप में आकर सीताजी पर हमला बोलने को उद्यत हो जाती है--- प्रस्तुतसप्तम सर्ग -संदेश में शूर्पणखा के नासिका हरण द्वारा रावण को युद्ध का संदेश भेज जाता है.....कुल छंद..४५....जो तीन भागों मे प्रस्तुत किया जायेगा.....प्रस्तुत है भाग-एक...छंद १ से १६ तक.....  
 
 
१-
सीता पर करने वार चली,
कामातुर राक्षसी नारी  |
पा भ्राता की स्वीकृति, इंगित ,
लक्ष्मण ने केश पकड़ उसको;
नाक-कान से हीन कर दिया,
रावण को सन्देश दे दिया१  ||
२-
बहने लगी रुधिर की धारा,
 लगी तड़पने चीत्कार कर |
सुनकर कोलाहल,राक्षस स्वर,
ऋषि गण, वन बासी, वनचारी;
आकर  के,   एकत्र  होगये,
शोर मच गया पंचवटी में  ||
३-
भय मिश्रित विस्मय,प्रसन्नता,
से,  सब लगे देखने उसको  |
क्रोध और पीड़ा में भरकर ,
चीख चीख कर देती धमकी |
 नहीं बचेगा वन में कोई ,
नर-नारी, मुनि या वन बासी ||
४-
रुधिर बहाती, पैर पटकती,
दौड़ चली वह जन स्थान को|
भ्राता -खर एवं दूषण- को ,
बदला लेने को उकसाने |
नाक कान से शोणित धारा,
आँखों  से आंसू बहते थे  ||
५-
भय न करें आश्वस्त रहें सब,
शांत किया रघुवर-लक्ष्मण ने,
समझा कर के सभी जनों को |
सावधान पर रहना होगा,
निशिचर सेना आसकती है ;
करें  सभी,   पूरी   तैयारी ||
६-
लक्ष्मण ने पूछा रघुवर से-
कैसे हुआ आचरण एसा,
ज्ञानी रावण की भगिनी का |
नारी तो अवध्य होती है,
और सदा सम्माननीय भी;
तो क्या प्रभु यह दंड उचित था४  ||
७-
लक्ष्मण !अति भौतिकता के वश,
भाव विचार कर्म व संस्कृति ;
बन जाते सुख प्राप्ति भाव ही
नारी का स्वच्छंद आचरण ,
परनारी या परपुरुष गमन;
लगता है स्वाभाविक सा ही ||
८-
मन की सुन्दरता से अन्यथा,
शरीर ही प्रधान होजाता |
शूर्पणखा का यह आचरण ,
राक्षस कुल अनुरूप ही तो था |
यह ही तो राक्षस संस्कृति है ,
पली बढ़ी जिसमें वह नारी ||
९-
किन्तु देव मानव संस्कृति तो ,
है परमार्थ भाव पर विकसित;
सात्विक भाव विचार अपनाती |
पुरुष स्वयं रहते मर्यादित ,
पर दुःख कातर, परोपकारी -
कर्म भाव ही सब अपनाते ||
१०-
नारी, मन की सुन्दरता को,
शाश्वत मान, कुलवती होतीं |
त्याग प्रेमभावना की मूरत,
पति की अनुगमिनि होती हैं |
प्रश्रय नहीं दिया जाता है,
वाह्य रूप-सौन्दर्य चलन को ||
११-
अति भौतिक उन्नति की लक्ष्मण,
परिणति है, अति सुख-अभिलाषा |
जन्मदात्री है,   समाज   में,
द्वंद्व भाव,प्रतियोगी संस्कृति५ ;
और सभी जन श्रेष्ठ भाव तज-
सर्वश्रेष्ठ 'मैं'  - में रम जाते ||
१२-
'येन केन प्रकारेण' स्वयं को,
सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने की ;
परिपाटी स्थित होजाती |
फिर समाज में द्वंद्व भावना,
असमानता,अकर्म व अधर्म;
की स्थिति बनने लगती है ||
१३-
सभी कार्य व्यवहार जगत के,
धन आधारित  होजाते हैं |
अति औद्योगिक प्रगति सदा ही,
अर्थतंत्र  को विकास देती |
अत्याचार अनीति अकर्म व,
अपराधों को प्रश्रय मिलता ||
१४-
उचित सुपाच्य और बल-वर्धक,
सौम्य खाद्य के अभाव कारण;
तन  बलहीन क्लांत होजाता |
विविध व्याधियों से घिर करके,
चिंतन के अभाव में मन भी;
विकार-मय, अस्थिर होजाता ||
१५-
उसी प्रकार उत्तम चरित्र व ,
उचित लक्ष्य के चिंतन से युत ;
उत्तम साहित्य व विचार की ,
पठन-पाठन योग्य सामग्री;
के समाज में अभाव कारण -
अधम विचार प्रश्रय पा जाते ||
१६-
स्त्री-पुरुष सभी वर्गों के,
अति सुखानुपेक्षी१० हो जाते |
स्वच्छंद आचरण चलन से,
मर्यादा विहीन  बनते हैं |
सुख के लिए करेंगे कुछ भी,
यह धारणा प्रमुख होजाती ||    -----क्रमश: भाग दो......


कुंजिका --  १= पंचवटी पर रहकर पूरी तैयारी के बाद रावण को युद्ध सन्देश देना ही शायद राम-वनागमन का मूल उद्देश्य था और उसका मिला हुआ मौक़ा राम ने गंवाया नहीं | ... २= प्रथम वार किसी ने शासक व किसी शक्तिशाली राक्षस को असहाय अवस्था में पहुंचाने का प्रयास किया था |....३= राक्षसों द्वारा क्रोध में  और अधिक अत्याचार का भय, घटना पर आश्चर्य  व इच्छानुसार कृत्य होने की प्रसन्नता ,,,४=  सेना के अनुशासन की भांति लक्ष्मण ने पहले आज्ञा का पालन किया तत्पश्चात  शंका निवारण की इच्छा जताई ...५ , ६, व ७ = अनावश्यक प्रतियोगी भाव ही स्वयम को श्रेष्ठ सिद्ध करने के अहम् के पालन में  भ्रष्टाचार व अनैतिक आचरण का मूल होता है |...८ व ९ = वास्तव में मनोरंजन , स्वास्थ्य व एनी जन सामाजिक कार्यों को धन आधारित नहीं होना चाहिए , अर्थतंत्र --अर्थ -व्यवस्था के नियमन के लिए हो न की प्रत्येक कार्य अर्थ-आधारित हो....१०= अत्यंत सुख की इच्छा ही सारे भ्रष्टाचार व अनैतिकता का कारण होती है .
 
 


  सप्तम सर्ग -संदेशके...पिछले भाग एक में शूर्पणखा की नासिका भंग के पश्चात लक्ष्मण राम से उसके औचित्य पर विचार करते हैं और राम अति-सुखानुपेक्षी सामाज की गिरावट का तार्किक उत्तर देते हैं....आगे प्रस्तुत है भाग दो....छंद १७ से ३० तक...


१७-
भ्राता यह अति सुख अभिलाषा,
नए नए सुख साधन के हित;
विविध नवीन मार्ग अपनाती |
भौतिक साधन उपकरणों की,
बन जाती है  विकास यात्रा ;
मानव,   यंत्राश्रित  होजाता ||
१८-
सर्दी-गर्मी, धूप, छाँह को,
वायु,प्रकाश व यम-नियमों को; 
करने लगता वही नियंत्रित |
और स्वयं के अंतस-कोटर-
में वह स्वयं कैद होजाता ;
 अति सुख पाता अहं भाव में ||
१९-
यह ही रावणत्व, रावण का,
है विडम्बना शूर्पणखा की |
जिसके कारण लंकापति को,
अपनी भगिनी के पति को भी;
मृत्यु -दंड देना पड़ता है,
चाहे कारण कूटनीति हो ||
२०-
पली बड़ी वह इस संस्कृति में ,
नहीं रख सकी कोई संयम |
अनाचार, दुष्कर्म, वासना,
के ही वातावरण,  पले जो;
कहाँ समझता नियम व संयम,
भोग सदा ही उसको भाता ||
२१-
भोग वासना में फंसकर ही,
मानव दुष्कर्मों में पड़ता |
कर्म-अकर्म को समझ न पाए ,
स्वार्थ लोभ के वश होजाता |
समझाने से समझ न पाता,
उचित दंड आवश्यक है फिर ||
२२-
भौतिकता भी आवश्यक है,
जीवन-जग की सृष्टि तो इसी ;
भौतिक जग व्यापार से होती |
लक्ष्मण! स्थिति,लय व सृष्टि तो,
माया जग से ही नियमित है ;
इसके बिना असंभव जीवन ||
२३-
भौतिक जग व्यवहार के बिना,
अकर्मण्यता, कर्महीनता,
नर को दारुण दुःख दिखलाती |
ज्ञान, विवेक व परमार्थ बिना,
भौतिक जग में ही रत रहना;
भव दुःख-बंधन का कारण है ||
२४-
यह अति तो प्रत्येक भाव की,
रुग्णावस्था ही है लक्ष्मण !
वेद, तभी तो  यह कहता है-
ज्ञान व जग के उभय भाव युत,
कर्म करे, मानव तर जाता;
अमृतत्व,  वह पा लेता है ||
२५-
'सब हों सुखी' भावना से यदि,
 मानव, निज-सुख-भाव करे तो;
सात्विक-भाव वही है भ्राता,
वह ही सच्चा सुख होता है |
द्वंद्व भाव हो,पर-सुख के हित,
तो समाज में समता रहती ||
२६-
अधर्म, अकर्म, छल छंद सभी ,
उस समाज से दूर ही रहते |
नर-नारी, पशु-पक्षी, प्राणी,
समता, स्नेह-भाव अपनाते |
विविध कुमार्ग,कुमति-भाव सब,
अपने  आप  दूर  होजाते ||
२७-
 मानव-मन, सुन्दर,सुस्थिर हो,
सत्यं, शिवं भाव अपनाता |
मर्यादा में रहें सभी जन,
वेद-विहित हों सभी आचरण |
लक्ष्मण इस देवत्व भाव से,
दैत्य-भाव है सदा हारता ||
२८-
 नारी, केंद्र-बिंदु   है भ्राता !
व्यष्टि,समष्टि,राष्ट्र की,जग की |
इसीलिये तो वह अवध्य है , 
और सदा सम्माननीय भी |
लेकिन वह भी तो मानव है,
नियम-निषेध मानने होंगे ||
२९-
नारी के निषेध-नियमन ही,
पावनता के संचारण की;
उचित निरंतरता समाज में,
सदा बनाए रखते, लक्ष्मण !
अवमानना, रेख-उल्लंघन,
कारण बनते, दुराचरण का ||
३०-
राजा जनता  या प्रबुद्ध जन,
जब अपने दायित्व भूलकर;
उचित दंड यदि नहीं देते |
अनाचार को प्रश्रय देकर,
पाप-कर्म में भागी बनते;
नियम से नहीं ऊपर कोई ||
       
             --- प्रस्तुत सप्तम सर्ग -संदेश के...पिछले भाग दो  में राम, लक्ष्मण से  अति-भौतिकता की हानियां , भौतिक-व्यवहार की  आवश्यकता , नारी आचरण व निषेध नियमन पर वार्ता करते हैं ...आगे प्रस्तुत है अंतिम भाग तीन ...छंद ३१ से ४५ तक ...
३१-
नारी ही तो हे प्रिय भ्राता !
जननी होती नर-नारी की ।
प्रथम गुरु है वह सन्तति की,
सन्स्कार के पुष्प खिलाती ।
विष की हो या सुगंध-गुण युत,
यह वल्लरी फैलती जाती ||
३२-
शिक्षित और सुसंस्कृत नारी, 
मर्यादा युत आचरण तथा;
शुचि कर्त्तव्य भाव अपनाती |
संस्कारमय नीति-निपुणता,
वर्त्तमान एवं नव पीढी -
में , मर्यादा भाव जगाती ||
३३-
विविध कारणों से यदि नारी,
मर्यादा उल्लंघन करती |
दुष्ट भाव, स्वच्छंद आचरण,
से समाज दूषित होजाता |
कई पीढ़ियों तक फिर लक्ष्मण,
यह दुष्चक्र चलता रहता है ||
३४-
जब उद्दंड, रूप-ज्वाला युत,
और दुर्दम्य काम-पिपासा-
युक्त ताड़का१  से कौशिक का ;
तेज, तपस्या-बल गलता था ,
अत्याचार, अनीति मिटाने;
उसका भी बध किया गया था ||
३५-
शूर्पणखा का दंड हे अनुज !
सिर्फ व्यक्ति को दंड नहीं है |
चारित्रिक धर्मोपदेश है,
नारी व सम्पूर्ण राष्ट्र को |
चेतावनि है दुष्ट जनों को ,
कुकर्म-रत नारी-पुरुषों को ||
३६-
संदेशा है युद्ध-घोष का ,
अत्याचारी राक्षस कुल को |
राज्यधर्म औ क्षात्रधर्म ही ,
हे सौमित्र ! निभाया तुमने |
लेने पड़ते हैं कटु निर्णय,
व्यापक राष्ट्र, समाज, धर्म हित ||
३७-
लक्षमण बोले, क्षमा करें प्रभु -
अज्ञानी हूँ, भ्रमित भाव हूँ |
क्या माँ कैकयी का आचरण,
नारि-धर्म विपरीत नहीं था ?
महाराज दशरथ का निर्णय,
क्या विषय-आसक्ति प्रेरित था ||
३८-
पितृ जनों की क्षमताओं पर,
शंका करना उचित नहीं है |
यदि यह नहीं हुआ होता तो,
हमको यह सौभाग्य न मिलता |
ज्ञानी मुनियों के दर्शन का,
निशिचर-हीन मही करने का ||
३९-
शायद हम इतिहास में , अनुज !
दशरथ -सुत होकर खोजाते |
लेकिन अब इतिहास युगों तक,
गायेगा, सौमित्र गुणाकर -
और राम-सीता की गाथा ;
पुरखों का आशीष है सभी ||
४०-
देवासुर -संग्राम विजेता२ -
नायक चक्रवर्ति दशरथ से,
इसी भूल अपेक्षित है क्या;
अकारण अन्याय कर्म की |
और सर्व-प्रिय विदुषी नारी ,
कैकयि एसा कर सकती है ?
४१-
तीनों माताएं ,प्रिय भ्राता,
भक्ति, ज्ञान, वैराग्य भाव हैं |
विदुषी कैकयी , ज्ञान भाव हैं ,
राजनीति औ नीति-कुशल भी |
देवासुर संग्राम विजय में,
वही सहायक३  थीं दशरथ की ||
४२-
परम प्रिया राजा दशरथ की,
राज्यकर्म और राजनीति पर;
उचित मंत्रणा देने वाली  |
देव कार्य, इस महायज्ञ  में,
वही आहुती दे सकती थी ;
अपने प्रेम,त्याग, महिमा की ||
४३-
विश्वामित्र-वशिष्ठ योजना ,
निशिचर-हीन मही करने की ;
कैकयि  माँ ही केंद्र बिंदु है |
शिव की भाँती, गरल पी डाला,
सहमत कब थे राजा दशरथ ||
४४-
सेना से यह कार्य न होता ,
कोइ अन्य उपाय कहाँ था |
राक्षस-अपसंस्कृति विनाश का ,
ध्वजा  धर्म की फहराने का |
जन जन हित में,विज्ञ जनों को,
सदा गरल यह पीना होगा ||
४५-
अति शोकाकुल थे रामानुज,
माता-पिता और गुरुजन प्रति;
अपनी भूल और शंका पर |
पश्चाताप अश्रु बहते थे ,
चरण पकड़ बोले रघुवर से-
'तात ! आज मन शांत होगया |'   ---क्रमश:   सर्ग-८-संकेत .....

कुंजिका --  १=  ताड़का  ( रामायण के पात्र मारीचि व सुबाहु की माँ )-राक्षसी( व उसका कुल- राक्षस समाज) , अपने रूप सौन्दर्य से विश्वामित्र ( कौशिक) मुनि को वश में करने हेतु  पीछे पडी रहती थी और विविध भांति से उन्हें( व उनके ऋषि-शिष्य  समाज -तंत्र व आश्रम  को ), उनकी यज्ञ, तपस्या , वेदादि कर्म को अवरोधित करके  तंग करती रहती थी, एवं विविध अनाचारों में लिप्त थी |  विश्वामित्र का राम-लक्ष्मण को  दशरथ से मांग कर अपने आश्रम लेजाने का उद्देश्य उनके अत्याचारों से अपने क्षेत्र को मुक्त करना था , जो राम ने ताड़का का वध करके किया |....२  व ३ = इंद्र के संग्रामों में असुरों के विरुद्ध, पृथ्वी के  चक्रवर्ती सम्राट महा शक्तिशाली राजा दशरथ सदैव सहायक होते थे |  पटरानी कैकयी भी युद्ध में साथ जाया करती थी | एक बार दशरथ के रथ के पहिये की धुरी निकलजाने पर तुरंत अपनी तीव्र बुद्धि का उपयोग करके कैकयी ने अपनी उंगली लगा कर गिराने से बचाया था |..४=  वास्तव में राम वन गमन की एक सोची समझी राजनैतिक योजना थी इसमें विश्वामित्र,वशिष्ठ , कैकयी व राम शामिल थे , दशरथ को भी सारी बात विस्तार से ज्ञात नहीं थी अतः वे पूर्ण सहमत नहीं थे | ...५= सेना से यह दुष्कर कार्य नहीं होसकता था क्योंकि रास्ते में पड़ने वाले प्रदेश अपने पर कौशल का हस्तक्षेप समझ कर सहयोग की बजाय पग पग पर विरोध होता और राक्षस सेना सतर्क होजाती |






शनिवार, 2 अप्रैल 2011

शूर्पणखा काव्य उपन्यास-- सर्ग-६------





   शूर्पणखा काव्य उपन्यास-- नारी विमर्श पर अगीत विधा खंड काव्य .....रचयिता -डा श्याम गुप्त  
                   
                                 विषय व भाव भूमि
              स्त्री -विमर्श  व नारी उन्नयन के  महत्वपूर्ण युग में आज जहां नारी विभिन्न क्षेत्रों में पुरुषों से कंधा मिलाकर चलती जारही है और समाज के प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति की  ओर उन्मुख है , वहीं स्त्री उन्मुक्तता व स्वच्छंद आचरण  के कारण समाज में उत्पन्न विक्षोभ व असंस्कारिता के प्रश्न भी सिर उठाने लगे हैं |
             गीता में कहा है कि .."स्त्रीषु दुष्टासु जायते वर्णसंकर ..." वास्तव में नारी का प्रदूषण व गलत राह अपनाना किसी भी समाज के पतन का कारण होता  है |इतिहास गवाह है कि बड़े बड़े युद्ध , बर्बादी,नारी के कारण ही हुए हैं , विभिन्न धर्मों के प्रवाह भी नारी के कारण ही रुके हैं | परन्तु अपनी विशिष्ट क्षमता व संरचना के कारण पुरुष सदैव ही समाज में मुख्य भूमिका में रहता आया है | अतः नारी के आदर्श, प्रतिष्ठा या पतन में पुरुष का महत्त्वपूर्ण हाथ होता है | जब पुरुष स्वयं  अपने आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक, धार्मिक व नैतिक कर्तव्य से च्युत होजाता है तो अन्याय-अनाचार , स्त्री-पुरुष दुराचरण,पुनः अनाचार-अत्याचार का दुष्चक्र चलने लगता है |
                 समय के जो कुछ कुपात्र उदाहरण हैं उनके जीवन-व्यवहार,मानवीय भूलों व कमजोरियों के साथ तत्कालीन समाज की भी जो परिस्थिति वश भूलें हुईं जिनके कारण वे कुपात्र बने , यदि उन विभन्न कारणों व परिस्थितियों का सामाजिक व वैज्ञानिक आधार पर विश्लेषण किया जाय तो वे मानवीय भूलें जिन पर मानव का वश चलता है उनका निराकरण करके बुराई का मार्ग कम व अच्छाई की राह प्रशस्त की जा सकती है | इसी से मानव प्रगति का रास्ता बनता है | यही बिचार बिंदु इस कृति 'शूर्पणखा' के प्रणयन का उद्देश्य है |
                   स्त्री के नैतिक पतन में समाज, देश, राष्ट्र,संस्कृति व समस्त मानवता के पतन की गाथा निहित रहती है | स्त्री के नैतिक पतन में पुरुषों, परिवार,समाज एवं स्वयं स्त्री-पुरुष के नैतिक बल की कमी की क्या क्या भूमिकाएं  होती हैं? कोई क्यों बुरा बन जाता है ? स्वयं स्त्री, पुरुष, समाज, राज्य व धर्म के क्या कर्तव्य हैं ताकि नैतिकता एवं सामाजिक समन्वयता बनी रहे , बुराई कम हो | स्त्री शिक्षा का क्या महत्त्व है? इन्ही सब यक्ष प्रश्नों के विश्लेषणात्मक व व्याख्यात्मक तथ्य प्रस्तुत करती है यह कृति  "शूर्पणखा" ; जिसकी नायिका   राम कथा के  दो महत्वपूर्ण व निर्णायक पात्रों  व खल नायिकाओं में से एक है , महानायक रावण की भगिनी --शूर्पणखा | अगीत विधा के षटपदी छंदों में निबद्ध यह कृति-वन्दना,विनय व पूर्वा पर शीर्षकों के साथ  ९ सर्गों में रचित है |
 
सर्ग-६--शूर्पणखा -----प्रथम भाग ---


  पिछले पोस्ट  सर्ग-५- में..राम, लक्ष्मण, सीता- पन्चवटी में जन जागरण अभियान में संलग्न होते हैं।  प्रस्तुत सर्ग-६--शूर्पणखा --में इस जन जागरण अभियान के बारे में राक्षस-प्रशासन को भनक लगती है और विभिन्न गतिविधियां प्रारम्भ होजाती हैं....कुल छंद ..४५ ...जिन्हें तीन पोस्टों में वर्नित किया जायगा । प्रस्तुत है प्रथम भाग..छंद -१ से १५ तक...
१- 
शान्त सौम्य सुन्दर था वन का-
वातावरण, था स्थिर  जीवन |
जाग चुका था वन-प्रदेश अब,
विविध सूचना लगीं पहुचने;
जनस्थान तक इस हलचल की ,
सह न सके जिसको राक्षसगण ||
२-
रावण के अधिग्रहीतक्षेत्र में,
रहती थी भगिनी शूर्पणखा | 
मिली सूचना गुप्तचरों से,
दो मानव पुरुषोंका अक्सर;
घूमते रहना दंडक वन में,
जो थे अति सुन्दर बलशाली ||
३-
जनस्थान की स्वामिनि थी वह,
था अधिकार दिया रावण ने  |
पर, पति की ह्त्या होने पर,
घृणा द्वेष का जहर पिए थी |
पूर्ण राक्षसी भाव बनाकर,
अत्याचार लिप्त रहती थी || 
४-
कैकसि और विश्रवा मुनि की,
थी सबसे कनिष्ठ संतान |
अतिशय प्रिय,परिवार दुलारी,
सारी  हठ  पूरी होती  थी |
मीनाकृति सुन्दर आँखें थीं,
जन्म नाम मीनाक्षी पाया ||
५-
लाड-प्यार में पली-बढ़ी वह,
माँ कैकसि सम रूप गर्विता | 
शूर्प व लम्बे नख रखती थी,
शूर्पनखा इसलिए कहाई |
शुकाकृति थी सुघढ़ नासिका,
शूर्पनका भी कहलाती थी ||
६-
शूर्प सुरुचिकर लम्बे नख थे,
रूपवती विदुषी नारी थी |
साज-श्रृंगार ,वेश-भूषा से,
निपुण विविध रूप सज्जा में |
नित नवीन रूप सजाने में,
उसको अति प्रसन्नता होती ||
७-
दूर दूर से साज श्रृंगार के ,
और केश विन्यास कला के ;
कुशल शिल्पियों को बुलवाकर,
नित प्रति नव श्रृंगार कराती |
जाने कितने पुरुषों को नित,
काम ज्वार में जला डालती ||
८-
अश्मक द्वीप,अश्मपुर शासक,
कालिकेय दानव, विद्युत्जिह्व ;
प्रेमी था वह,  शूर्पणखा का ,
रावण को स्वीकार नहीं था |
हत्यारा था लंकापति के,
प्रमुख रक्ष-मंत्री सुकेतुका ||
९-
पर भगिनी  ने त्याग के लंका,
हठ कर रचा लिया था स्वयंबर |
दानव से राक्षस का रिश्ता,
क्रोधित होकर दशकंधर   ने-
सिरोच्छेद कर विध्युत्जिह्व का,
 नष्ट  कर दिया अश्मकपुर को ॥
१०-
वेवश क्रोधित शूर्पणखा ने,
 त्याग दिया था लंकापति को|
जनस्थान के सेनापति वे,
भ्राता-खर, दूषण, त्रिशिरा थे |
रहने लगी वहीं निश्चय कर,
पूर्ण रूप स्वच्छंद भाव से ||
११-
यद्यपि कहा दशानन ने था,
वीर हजारों हैं,  शूर्पणखा !
जिससे कहे , उसी से वर दूं |
पुनर्विवाह, विधवा विवाह भी,
वेद-विहित, शास्त्र सम्मत है ;
अथवा जैसा भी प्रिय तुमको ||
१२-
पर भ्राता ! यह प्रथम-प्रीति तो,
सदा एक से  ही  होती  है |
बिकने वाली वस्तु राह में,
प्रीति नहीं होती है रावण |
कोइ तोड़ नहीं है अब तो,
इस विछोह पीड़ा का जग में ||
१३-
स्त्री के मन के भावों को,
मन की इच्छा को, पीड़ा को ;
कभी न तुमने समझा भ्राता |
उत्प्रीडन ही सदा किया है,
तुमने नारी मर्यादा का;
फल भी तुम्हें भुगतना होगा ||
१४-
काश आपने, राज्य दंभ में,
जग विजयी, अभिमान भावसे-
परे, प्रेम भी समझा होता |
नारी, बहन, माँ, पत्नी मन को-
महानता तज, देखा होता ,
दे न सका उत्तर दशकंधर ||
१५-
पति ह्त्या से आग क्रोध की,
लगी धधकने शूर्पणखा में |
पुरुष जाति प्रति घृणा भाव में,
शीघ्र बदलकर तीब्र होगई |
कामदग्ध रूपसी बन गयी,
एक वासना की पुतली वह ||   ----  क्रमश:  सर्ग ६-शूर्पणखा..द्वितीय भाग .......
 
[ कुंजिका--  (१)= लंकापति रावण ने विन्ध्य के दक्षिण का अधिकाँश  प्रदेश अपने अधिकार में कर लिया था, कुछ बलशाली राज्यों को मित्र  या स्वतंत्र सत्ता मान लिया था | शायद वास्तव में सारे झगड़े  व कहानी की वजह यही राजनैतिक स्थिति थी |...(२) = राम व लक्षमण..जो स्थान व स्थिति का जायजा लेने घूमते रहते थे ..  (३) = वन प्रदेश व आबादी वाले रावण के अधिग्रहीत क्षेत्र का शासन रावण के शूर्पनखा को दिया हुआ था -खर के सेनापतित्व में ..  ४= माली-सुमाली दीपों के अधिष्ठाता राक्षस राज सुमाली की पुत्री कैकसी जो रावण व कुम्भकरण की माँ थी ... ५= विश्रवा -ब्रह्मा के पौत्र (  पुलस्त्य मुनि के पुत्र )--जिनकी पत्नी देवपर्णी( ऋषि भारद्वाज की पुत्री ) से कुबेर का जन्म हुआ था , जिन्हें लोकपाल   धनेश और लंकापति बनाया  गया | ऐसे ही पुत्र प्राप्ति की इच्छा से  कैकसी ने पिता के कहने पर विश्रवा से अनुनय -विनय कर के विवाह किया अपनी अन्य तीन बहनों-राका, मालिनी व पुष्पोत्कटा  के साथ | क्योंकि ऋषि ने शाम ( दिन ) के समय अनिच्छा से सम्बन्ध स्थापित किया था अतः संतति राक्षस-भाव हुई | राका से -खर व शूर्पणखा, मालिनी से--विभीषणपुष्पोत्कटा से --दूषण व त्रिसिरा |... (६) = लंका के निकट की छोटे छोटे द्वीपों में से एक द्वीप ....(७)...रावण का राक्षस-कुल  मंत्री जिसे अपनी माता से सम्बन्ध रखने पर नाराज होकर विद्युत्जिह्व --जो दानव-कुल का था -- ने दोनों को मार डाला था | अतः रावण नाराज था |...(८) = खर के प्रधान सेनापतित्व में तीनों भाई राक्षसों द्वारा अधिग्रहीत  भारतीय भूभाग के रक्षक थे | 


  प्रस्तुत द्वितीय भाग में  शूर्पणखा के आत्म-मुग्धता के क्षणों में उसकी मनोदशा को दर्शाया गया है ...... छंद १६ से ३१ तक----
१६-
प्रेम पगी वह सुन्दर रूपसि,
एक कुटिल राक्षसी बन गयी |
सुन्दर पुरुष-नारियां उसके,
खेल-घृणा का पात्र हो गए |
पूर्ण वासना करके अपनी,
दे देती थी मृत्यु सभी को ||
१७-
सुन्दर पुरुष देखकर उसकी,
काम -वासना बढ़ जाती थी |
और लक्ष्य कर सुन्दर नारी,
क्रोध-ईर्ष्या जग जाती थी |
क्रोध-अग्नि व पाप-कर्मों की,
आत्म-ग्लानि में झुलस रही थी ||
१८-
रावण के प्रति क्रोध घृणा से,
अवचेतन में बैर भावना ;
अथवा बदले की इच्छा से,
स्वयं अग्नि में झुलस रही थी |
पश्चाताप-अग्नि में रावण,
जलता रहे ताकि जीवन भर ||
१९-
नहीं रह सकी थी वह स्थिर,
भोग संस्कृति पली बढ़ी थी |
शुद्ध सात्विक आचारों में,
नहीं सिखाया जाता रहना |
कामाचार, स्वच्छंद आचरण-
पर कोई प्रतिबन्ध न होता ||
२०-
सुन्दर पुरुष देखकर उनकी,
काम भावना बढ़ जाती है |
और  तिरोहित  होजाता है,
अनुचित-उचित भाव सब मन से |
पर-उत्तम कुलशील नारियां ,
मन व्रत कर्म से दृढ रहती हैं ||
२१-
यह दायित्व पुरुष का ही है ,
सदा रखे  सम्मान नारि का |
अत्याचार न हो नारी पर,
उचित धर्म व्रत अनुशीलन का,
शास्त्र ज्ञान मिले उनको भी ;
हो समाज स्वस्थ दृढ सुन्दर ||
२२-
स्वर्णमयी लंका नगरी को,
तुरत सैनिकों को भिजवाया |
विविधि रूप सज्जा के उपकरण१,
सिद्ध पुरुष सौन्दर्य कला के ;
वशीकरण की कला निपुण जो,
बुलवाए निज रूप सजाने ||
२३-
सोच रही थी ,रमा व रम्भा,
कहते अति सुन्दर नारी हैं |
पर इस उमंगाते यौवन में ,
संसृति भर का सौन्दर्य भरा |
मेरे जैसी ललाम बाला,
विधि ने न रची होगी कोई ||
२४-
प्रकृति भी झुक झुक जाती है,
छवि निरखि अतुल सौन्दर्य राशि |
मादकता  भी  है  शरमाती,
इन नयनों का मद देख देख |
उन्नत उरोज ,कटि-क्षीण निरखि,
मुनियों के ध्यान छूट जाते ||
२५-
गति से इन पीन नितम्बों की,
कामी पुरुषों का चित डोले ;
यह भूतल भी हिल उठता है |
मेरे इस मन से भी कठोर,
ये  हैं  मेरे  गर्वोन्नत  कुच;
मदिराचल भी शरमा जाता ||
२६-
जाने कितने काम पिपासित,
प्रणयी नर-गन्धर्व, सुर-असुर;
काम-केलि से ध्वस्त  हुए हैं |
सौन्दर्य-गर्वोन्नत सिरों को,
जाने कितनी पत्नियों के-
झुका, मान -मर्दन कर डाला ||
२७-
लोलुप भ्रमरों की बातें क्या,
ललचाते अतुलित शूर वीर |
इस तन की कृपा-प्रणय भिक्षा -
हित, कितने ही पद-दलित हुए |
पर आज मुझे क्यों लगता है,
संगीत फूटता,कण कण से ||
२८-
गुप्त रूप से स्वयं पहुंचकर,
छुप कर देखा शूर्पणखा ने |
नर ये सुन्दर-वीर कौन हैं ,
साथ एक है सुन्दर नारी |
ऋषि जैसे नहीं कोमलांग ये,
नहीं योग्य हैं कठोर तप के ||
२९-
क्या धर कर नर रूप विजन में,
विचर रहे हैं - नर-नारायण |
साथ कौन है सुन्दर नारी ,
किन्तु मुझे क्या, कोई भी हो |
पुरुषोचित सौन्दर्य-शौर्य से,
काम-वासना जाग उठी थी ||
३०-
क्या ये स्वयं कामदेव हैं,
अथवा द्वय अश्विनी-बंधुये|
मधुमय नील-कमल सी शोभा,
बरबस ही छीने जाती है,
सारा संचित प्रेम ह्रदय का ;
यही गुप्त-धन है नारी का ||
३१-
जी करता है, प्रेम सुधारस,
छक करके रस-पान करूँ मैं |
खिल खिल हंसती कुमोदिनी बन,
उन अधरों का मधुपान करूँ |
यायावरी, कुटिल माया तज ,
सुख से जीवन शेष बिताऊँ ||   -----क्रमश :  भाग तीन....

{कुन्जिका--- १= श्रृंगार-प्रसाधन, -मेक-अप का सामान ....२=  मेक अप मेन, प्लास्टिक --सर्जन ...३= लक्ष्मी -जो सौन्दर्य की प्रथम प्रतिमा-प्रतिमान हैं, स्वयं सौन्दर्य, रूप-वैभव-एश्वर्य हैं ...४= रम्भा -स्वर्ग की सर्वश्रेष्ठ -सुन्दरतम कामिनी, नृत्यांगना  अप्सरा ....५=  आदि-विष्णु का मूल ब्रह्म-आत्मा  रूप -- सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ, सुन्दरतम  रूप-भावना ...६= देव वैद्य - अश्विनी कुमार, दो भाई-एक मात्र युगल-स्वरुप देव हैं , जो सदैव साथ साथ रहते हैं और कामदेव के समान ही सर्व-सौन्दर्य मय देव हैं | ...७= नारी मन की अगाधता का मूल कारण, ह्रदय मैं वसुधा की भाँति समस्त संसार के लिए  संचित प्रेम ..ही है और यही  उसका गुप्त-धन है जिसे बड़े -बड़े ज्ञानी-ध्यानी भी नहीं  जान पाते हैं ...स्वयं ब्रह्मा भी नहीं ...|
 

 प्रस्तुत तृतीय व सर्ग के अंतिम  भाग में शूर्पणखा राम व लक्ष्मण से प्रणय निवेदन करती है ----छंद ३२ से ४५ तक....
३२-
सब विधि सुन्दर रूपसि बनकर ,


काम बाण दग्धा, शूर्पणखा ;
पहुँच गयी फिर पंचवटी में |
चर्चारत थे राम व लक्ष्मण,
भरकर नयनों में आकर्षण ;
प्रणय निवेदन किया राम से ||


 ३३-
नव षोडसि सी इठलाकर के,
मुस्काती तिरछी चितवन से ;
बोली  रघुवर से -शूर्पणखा |
सुन्दर पुरुष नहीं तुम जैसा,
मेरे  जैसी  सुन्दर  नारी;
नहीं जगत में है कोइ भी ||
३४-
रही ढूंढती सारे जग में,
नहीं मिला तुम जैसा कोई ;
इसीलिये अब तक कुमारि हूँ |
तुम को देखा मन हरषाया,
विधि ने यह संयोग बनाया;
रचें स्वयंवर अब हम दोनों ||
३५-
मैं मुग्ध होगई हूँ तुम  पर,
मेरा मानस है मचल रहा;
तुम पूर्ण करो इच्छा मेरी |
सब सुख साधन वैभव होगा,
जीवन का अनुपम रस भोगो;
क्यों कष्ट वनों के सहते हो ||
३६-
सिय को इंगित कर प्रभु बोले-
अति ही अनुचित है यह भद्रे !
मैं इनका पति हूँ हे सुभगे !
जैसी तुम अब तक कुमारि हो,
वैसे ही कुमार लघु भ्राता ;
तुम प्रणय निवेदन वहां करो ||
३७-
इस प्रेम भरी सरिता का प्रिय,
यह प्रणय निवेदन स्वीकारो |
लक्ष्मण समीप जाके बोली-
तुम मुझको अंगीकार करो |
लक्ष्मण बोले-सुकुमारि सुनो,
मैं तो सेवक हूँ रघुवर का ||
३८-
मेरे  जैसे  सेवक से   क्या,
हे सुमुखि! तुम्हें मिल पायेगा |
मैं तो रघुवर के सम्मुख हूँ ,
बस एक भिखारी द्वार खड़ा |
तुम जैसी सुन्दर सर्वगुणी,
नारी के उपयुक्त राम हैं ||
३९-
कौशलपति हैं श्री राम प्रभु ,
सक्षम, समर्थ सब करने में;
तुम प्रणय निवेदन वहीं करो |
जब पुनः राम के निकट गयी,
बोले, जाओ हे नारि ! वहीं ;
क्रोधित हो बोली , शूर्पणखा ||
४०-
नारी की प्रणय याचना को,
क्या पुरुष कहीं ठुकराते हैं |


नारी का प्रेम न स्वीकारे,
यह तो प्रेम की अवज्ञा है |
प्रणयी नारी की काम-तृषा,
हरना ही धर्म है पुरुषों का ||
४१-
शठ ! अर्पण करने को मैं तो,
यह मादक यौवन लाई थी |
सोचा था काम-कला कोविद,
तुम अज्ञानी रसहीन मिले |
कमनीय मनोहर श्यामल छवि,
से मेरा मन भरमाया था ||
४२-
पर विष की श्यामलता है यह,
जो भरा हुआ है नस नस में |
समझा जिसको मधु-पुष्प-कुञ्ज,
निर्गंधजंगली कुसुम मिला |
शूर्पणखा को ठुकराने का,
तो दंड भोगना ही होगा ||
४३-
लक्ष्मण बोले, हे निशाचरी !
तुम नीति धर्म को क्या जानो
लज्जा ही नारी का गुण है,
निर्लज्ज नारि तुम क्या जानो |
निर्लज्ज कुकर्मी नीच पुरुष,
ही तो, तुमको वर सकता है ||
४४-
मैं भगिनी वीर दशानन की ,
अपमानित करके मानव तुम ;
जीवित कैसे रह पाओगे |
जिस नारी के कारण मुझको,
स्वीकारते नहीं , उसको ही-
लो मैं समाप्त कर देती हूँ  ||
४५-
क्रोधित होने पर मुखड़े की,
सारी सज्जा ही बिगड़ गयी |
धुल गयी रूप सज्जा सारी,
जो कृत्रिमतासे संवारी थी |
असली परिचय पा निशिचरि का,
भयभीत होगयीं थी सीता ||      -----क्रमश :  सर्ग-७ ..सन्देश -----


कुंजिका  --  १= प्रायः यह कहा जाता है क़ि राम ने झूठ बोला , लक्ष्मण तो विवाहित थे | परन्तु ' शठे शाठ्यं समाचरेत ' राम ने कहा जैसी तुम कुमारी हो वैसे ही वे भी कुमार हैं | शूर्पणखा स्वयम विधवा थी कुमारी नहीं , राम यह तथ्य व उसके मायावी रूप को जानते थे , इसी के साथ ही  लक्ष्मण  ने धैर्यवान  व द्रिडव्रती  होने की एक और परिक्षा उत्तीर्ण की |  राम उसको भ्रमित व क्रोधित करके असली रूप देखना चाहते थे और लंकापति को युद्ध का सन्देश भेजने के लिए किसी  उपयुक्त कारण  की उत्पत्ति ...  = सामान्य जनों के व्यवहार में --उस काल में नारी स्वतंत्र व स्वच्छंद थी और पुरुष के लिए प्रणय की इच्छुक  नारी की इच्छा को ठुकराना उचित नहीं माना जाता था | नारी किसी से भी पुत्र प्राप्ति की इच्छा कर सकती थी | यद्यपि यह प्रचलन श्रेष्ठता व उत्कृष्टता का मानक नहीं माना जाता था |.... = गंध हीन ...  =  बनावटी श्रृंगार -सज्जा , मेक-अप |