बुधवार, 27 अप्रैल 2011

शूर्पणखा काव्य उपन्यास----सर्ग ७-संदेश........


शूर्पणखा काव्य उपन्यास----सर्ग ७-संदेश
 




    शूर्पणखा काव्य उपन्यास-- नारी विमर्श पर अगीत विधा खंड काव्य.....रचयिता -डा श्याम गुप्त  
         --पिछली पोस्ट -- इस सर्ग ६-शूर्पणखा में..वर्णित किया गया कि कैसे शूर्पणखा अपने प्रणय निवेदन के अस्वीकार  होने पर अपने वास्तविक स्वरूप में आकर सीताजी पर हमला बोलने को उद्यत हो जाती है--- प्रस्तुतसप्तम सर्ग -संदेश में शूर्पणखा के नासिका हरण द्वारा रावण को युद्ध का संदेश भेज जाता है.....कुल छंद..४५....जो तीन भागों मे प्रस्तुत किया जायेगा.....प्रस्तुत है भाग-एक...छंद १ से १६ तक.....  
 
 
१-
सीता पर करने वार चली,
कामातुर राक्षसी नारी  |
पा भ्राता की स्वीकृति, इंगित ,
लक्ष्मण ने केश पकड़ उसको;
नाक-कान से हीन कर दिया,
रावण को सन्देश दे दिया१  ||
२-
बहने लगी रुधिर की धारा,
 लगी तड़पने चीत्कार कर |
सुनकर कोलाहल,राक्षस स्वर,
ऋषि गण, वन बासी, वनचारी;
आकर  के,   एकत्र  होगये,
शोर मच गया पंचवटी में  ||
३-
भय मिश्रित विस्मय,प्रसन्नता,
से,  सब लगे देखने उसको  |
क्रोध और पीड़ा में भरकर ,
चीख चीख कर देती धमकी |
 नहीं बचेगा वन में कोई ,
नर-नारी, मुनि या वन बासी ||
४-
रुधिर बहाती, पैर पटकती,
दौड़ चली वह जन स्थान को|
भ्राता -खर एवं दूषण- को ,
बदला लेने को उकसाने |
नाक कान से शोणित धारा,
आँखों  से आंसू बहते थे  ||
५-
भय न करें आश्वस्त रहें सब,
शांत किया रघुवर-लक्ष्मण ने,
समझा कर के सभी जनों को |
सावधान पर रहना होगा,
निशिचर सेना आसकती है ;
करें  सभी,   पूरी   तैयारी ||
६-
लक्ष्मण ने पूछा रघुवर से-
कैसे हुआ आचरण एसा,
ज्ञानी रावण की भगिनी का |
नारी तो अवध्य होती है,
और सदा सम्माननीय भी;
तो क्या प्रभु यह दंड उचित था४  ||
७-
लक्ष्मण !अति भौतिकता के वश,
भाव विचार कर्म व संस्कृति ;
बन जाते सुख प्राप्ति भाव ही
नारी का स्वच्छंद आचरण ,
परनारी या परपुरुष गमन;
लगता है स्वाभाविक सा ही ||
८-
मन की सुन्दरता से अन्यथा,
शरीर ही प्रधान होजाता |
शूर्पणखा का यह आचरण ,
राक्षस कुल अनुरूप ही तो था |
यह ही तो राक्षस संस्कृति है ,
पली बढ़ी जिसमें वह नारी ||
९-
किन्तु देव मानव संस्कृति तो ,
है परमार्थ भाव पर विकसित;
सात्विक भाव विचार अपनाती |
पुरुष स्वयं रहते मर्यादित ,
पर दुःख कातर, परोपकारी -
कर्म भाव ही सब अपनाते ||
१०-
नारी, मन की सुन्दरता को,
शाश्वत मान, कुलवती होतीं |
त्याग प्रेमभावना की मूरत,
पति की अनुगमिनि होती हैं |
प्रश्रय नहीं दिया जाता है,
वाह्य रूप-सौन्दर्य चलन को ||
११-
अति भौतिक उन्नति की लक्ष्मण,
परिणति है, अति सुख-अभिलाषा |
जन्मदात्री है,   समाज   में,
द्वंद्व भाव,प्रतियोगी संस्कृति५ ;
और सभी जन श्रेष्ठ भाव तज-
सर्वश्रेष्ठ 'मैं'  - में रम जाते ||
१२-
'येन केन प्रकारेण' स्वयं को,
सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने की ;
परिपाटी स्थित होजाती |
फिर समाज में द्वंद्व भावना,
असमानता,अकर्म व अधर्म;
की स्थिति बनने लगती है ||
१३-
सभी कार्य व्यवहार जगत के,
धन आधारित  होजाते हैं |
अति औद्योगिक प्रगति सदा ही,
अर्थतंत्र  को विकास देती |
अत्याचार अनीति अकर्म व,
अपराधों को प्रश्रय मिलता ||
१४-
उचित सुपाच्य और बल-वर्धक,
सौम्य खाद्य के अभाव कारण;
तन  बलहीन क्लांत होजाता |
विविध व्याधियों से घिर करके,
चिंतन के अभाव में मन भी;
विकार-मय, अस्थिर होजाता ||
१५-
उसी प्रकार उत्तम चरित्र व ,
उचित लक्ष्य के चिंतन से युत ;
उत्तम साहित्य व विचार की ,
पठन-पाठन योग्य सामग्री;
के समाज में अभाव कारण -
अधम विचार प्रश्रय पा जाते ||
१६-
स्त्री-पुरुष सभी वर्गों के,
अति सुखानुपेक्षी१० हो जाते |
स्वच्छंद आचरण चलन से,
मर्यादा विहीन  बनते हैं |
सुख के लिए करेंगे कुछ भी,
यह धारणा प्रमुख होजाती ||    -----क्रमश: भाग दो......


कुंजिका --  १= पंचवटी पर रहकर पूरी तैयारी के बाद रावण को युद्ध सन्देश देना ही शायद राम-वनागमन का मूल उद्देश्य था और उसका मिला हुआ मौक़ा राम ने गंवाया नहीं | ... २= प्रथम वार किसी ने शासक व किसी शक्तिशाली राक्षस को असहाय अवस्था में पहुंचाने का प्रयास किया था |....३= राक्षसों द्वारा क्रोध में  और अधिक अत्याचार का भय, घटना पर आश्चर्य  व इच्छानुसार कृत्य होने की प्रसन्नता ,,,४=  सेना के अनुशासन की भांति लक्ष्मण ने पहले आज्ञा का पालन किया तत्पश्चात  शंका निवारण की इच्छा जताई ...५ , ६, व ७ = अनावश्यक प्रतियोगी भाव ही स्वयम को श्रेष्ठ सिद्ध करने के अहम् के पालन में  भ्रष्टाचार व अनैतिक आचरण का मूल होता है |...८ व ९ = वास्तव में मनोरंजन , स्वास्थ्य व एनी जन सामाजिक कार्यों को धन आधारित नहीं होना चाहिए , अर्थतंत्र --अर्थ -व्यवस्था के नियमन के लिए हो न की प्रत्येक कार्य अर्थ-आधारित हो....१०= अत्यंत सुख की इच्छा ही सारे भ्रष्टाचार व अनैतिकता का कारण होती है .
 
 


  सप्तम सर्ग -संदेशके...पिछले भाग एक में शूर्पणखा की नासिका भंग के पश्चात लक्ष्मण राम से उसके औचित्य पर विचार करते हैं और राम अति-सुखानुपेक्षी सामाज की गिरावट का तार्किक उत्तर देते हैं....आगे प्रस्तुत है भाग दो....छंद १७ से ३० तक...


१७-
भ्राता यह अति सुख अभिलाषा,
नए नए सुख साधन के हित;
विविध नवीन मार्ग अपनाती |
भौतिक साधन उपकरणों की,
बन जाती है  विकास यात्रा ;
मानव,   यंत्राश्रित  होजाता ||
१८-
सर्दी-गर्मी, धूप, छाँह को,
वायु,प्रकाश व यम-नियमों को; 
करने लगता वही नियंत्रित |
और स्वयं के अंतस-कोटर-
में वह स्वयं कैद होजाता ;
 अति सुख पाता अहं भाव में ||
१९-
यह ही रावणत्व, रावण का,
है विडम्बना शूर्पणखा की |
जिसके कारण लंकापति को,
अपनी भगिनी के पति को भी;
मृत्यु -दंड देना पड़ता है,
चाहे कारण कूटनीति हो ||
२०-
पली बड़ी वह इस संस्कृति में ,
नहीं रख सकी कोई संयम |
अनाचार, दुष्कर्म, वासना,
के ही वातावरण,  पले जो;
कहाँ समझता नियम व संयम,
भोग सदा ही उसको भाता ||
२१-
भोग वासना में फंसकर ही,
मानव दुष्कर्मों में पड़ता |
कर्म-अकर्म को समझ न पाए ,
स्वार्थ लोभ के वश होजाता |
समझाने से समझ न पाता,
उचित दंड आवश्यक है फिर ||
२२-
भौतिकता भी आवश्यक है,
जीवन-जग की सृष्टि तो इसी ;
भौतिक जग व्यापार से होती |
लक्ष्मण! स्थिति,लय व सृष्टि तो,
माया जग से ही नियमित है ;
इसके बिना असंभव जीवन ||
२३-
भौतिक जग व्यवहार के बिना,
अकर्मण्यता, कर्महीनता,
नर को दारुण दुःख दिखलाती |
ज्ञान, विवेक व परमार्थ बिना,
भौतिक जग में ही रत रहना;
भव दुःख-बंधन का कारण है ||
२४-
यह अति तो प्रत्येक भाव की,
रुग्णावस्था ही है लक्ष्मण !
वेद, तभी तो  यह कहता है-
ज्ञान व जग के उभय भाव युत,
कर्म करे, मानव तर जाता;
अमृतत्व,  वह पा लेता है ||
२५-
'सब हों सुखी' भावना से यदि,
 मानव, निज-सुख-भाव करे तो;
सात्विक-भाव वही है भ्राता,
वह ही सच्चा सुख होता है |
द्वंद्व भाव हो,पर-सुख के हित,
तो समाज में समता रहती ||
२६-
अधर्म, अकर्म, छल छंद सभी ,
उस समाज से दूर ही रहते |
नर-नारी, पशु-पक्षी, प्राणी,
समता, स्नेह-भाव अपनाते |
विविध कुमार्ग,कुमति-भाव सब,
अपने  आप  दूर  होजाते ||
२७-
 मानव-मन, सुन्दर,सुस्थिर हो,
सत्यं, शिवं भाव अपनाता |
मर्यादा में रहें सभी जन,
वेद-विहित हों सभी आचरण |
लक्ष्मण इस देवत्व भाव से,
दैत्य-भाव है सदा हारता ||
२८-
 नारी, केंद्र-बिंदु   है भ्राता !
व्यष्टि,समष्टि,राष्ट्र की,जग की |
इसीलिये तो वह अवध्य है , 
और सदा सम्माननीय भी |
लेकिन वह भी तो मानव है,
नियम-निषेध मानने होंगे ||
२९-
नारी के निषेध-नियमन ही,
पावनता के संचारण की;
उचित निरंतरता समाज में,
सदा बनाए रखते, लक्ष्मण !
अवमानना, रेख-उल्लंघन,
कारण बनते, दुराचरण का ||
३०-
राजा जनता  या प्रबुद्ध जन,
जब अपने दायित्व भूलकर;
उचित दंड यदि नहीं देते |
अनाचार को प्रश्रय देकर,
पाप-कर्म में भागी बनते;
नियम से नहीं ऊपर कोई ||
       
             --- प्रस्तुत सप्तम सर्ग -संदेश के...पिछले भाग दो  में राम, लक्ष्मण से  अति-भौतिकता की हानियां , भौतिक-व्यवहार की  आवश्यकता , नारी आचरण व निषेध नियमन पर वार्ता करते हैं ...आगे प्रस्तुत है अंतिम भाग तीन ...छंद ३१ से ४५ तक ...
३१-
नारी ही तो हे प्रिय भ्राता !
जननी होती नर-नारी की ।
प्रथम गुरु है वह सन्तति की,
सन्स्कार के पुष्प खिलाती ।
विष की हो या सुगंध-गुण युत,
यह वल्लरी फैलती जाती ||
३२-
शिक्षित और सुसंस्कृत नारी, 
मर्यादा युत आचरण तथा;
शुचि कर्त्तव्य भाव अपनाती |
संस्कारमय नीति-निपुणता,
वर्त्तमान एवं नव पीढी -
में , मर्यादा भाव जगाती ||
३३-
विविध कारणों से यदि नारी,
मर्यादा उल्लंघन करती |
दुष्ट भाव, स्वच्छंद आचरण,
से समाज दूषित होजाता |
कई पीढ़ियों तक फिर लक्ष्मण,
यह दुष्चक्र चलता रहता है ||
३४-
जब उद्दंड, रूप-ज्वाला युत,
और दुर्दम्य काम-पिपासा-
युक्त ताड़का१  से कौशिक का ;
तेज, तपस्या-बल गलता था ,
अत्याचार, अनीति मिटाने;
उसका भी बध किया गया था ||
३५-
शूर्पणखा का दंड हे अनुज !
सिर्फ व्यक्ति को दंड नहीं है |
चारित्रिक धर्मोपदेश है,
नारी व सम्पूर्ण राष्ट्र को |
चेतावनि है दुष्ट जनों को ,
कुकर्म-रत नारी-पुरुषों को ||
३६-
संदेशा है युद्ध-घोष का ,
अत्याचारी राक्षस कुल को |
राज्यधर्म औ क्षात्रधर्म ही ,
हे सौमित्र ! निभाया तुमने |
लेने पड़ते हैं कटु निर्णय,
व्यापक राष्ट्र, समाज, धर्म हित ||
३७-
लक्षमण बोले, क्षमा करें प्रभु -
अज्ञानी हूँ, भ्रमित भाव हूँ |
क्या माँ कैकयी का आचरण,
नारि-धर्म विपरीत नहीं था ?
महाराज दशरथ का निर्णय,
क्या विषय-आसक्ति प्रेरित था ||
३८-
पितृ जनों की क्षमताओं पर,
शंका करना उचित नहीं है |
यदि यह नहीं हुआ होता तो,
हमको यह सौभाग्य न मिलता |
ज्ञानी मुनियों के दर्शन का,
निशिचर-हीन मही करने का ||
३९-
शायद हम इतिहास में , अनुज !
दशरथ -सुत होकर खोजाते |
लेकिन अब इतिहास युगों तक,
गायेगा, सौमित्र गुणाकर -
और राम-सीता की गाथा ;
पुरखों का आशीष है सभी ||
४०-
देवासुर -संग्राम विजेता२ -
नायक चक्रवर्ति दशरथ से,
इसी भूल अपेक्षित है क्या;
अकारण अन्याय कर्म की |
और सर्व-प्रिय विदुषी नारी ,
कैकयि एसा कर सकती है ?
४१-
तीनों माताएं ,प्रिय भ्राता,
भक्ति, ज्ञान, वैराग्य भाव हैं |
विदुषी कैकयी , ज्ञान भाव हैं ,
राजनीति औ नीति-कुशल भी |
देवासुर संग्राम विजय में,
वही सहायक३  थीं दशरथ की ||
४२-
परम प्रिया राजा दशरथ की,
राज्यकर्म और राजनीति पर;
उचित मंत्रणा देने वाली  |
देव कार्य, इस महायज्ञ  में,
वही आहुती दे सकती थी ;
अपने प्रेम,त्याग, महिमा की ||
४३-
विश्वामित्र-वशिष्ठ योजना ,
निशिचर-हीन मही करने की ;
कैकयि  माँ ही केंद्र बिंदु है |
शिव की भाँती, गरल पी डाला,
सहमत कब थे राजा दशरथ ||
४४-
सेना से यह कार्य न होता ,
कोइ अन्य उपाय कहाँ था |
राक्षस-अपसंस्कृति विनाश का ,
ध्वजा  धर्म की फहराने का |
जन जन हित में,विज्ञ जनों को,
सदा गरल यह पीना होगा ||
४५-
अति शोकाकुल थे रामानुज,
माता-पिता और गुरुजन प्रति;
अपनी भूल और शंका पर |
पश्चाताप अश्रु बहते थे ,
चरण पकड़ बोले रघुवर से-
'तात ! आज मन शांत होगया |'   ---क्रमश:   सर्ग-८-संकेत .....

कुंजिका --  १=  ताड़का  ( रामायण के पात्र मारीचि व सुबाहु की माँ )-राक्षसी( व उसका कुल- राक्षस समाज) , अपने रूप सौन्दर्य से विश्वामित्र ( कौशिक) मुनि को वश में करने हेतु  पीछे पडी रहती थी और विविध भांति से उन्हें( व उनके ऋषि-शिष्य  समाज -तंत्र व आश्रम  को ), उनकी यज्ञ, तपस्या , वेदादि कर्म को अवरोधित करके  तंग करती रहती थी, एवं विविध अनाचारों में लिप्त थी |  विश्वामित्र का राम-लक्ष्मण को  दशरथ से मांग कर अपने आश्रम लेजाने का उद्देश्य उनके अत्याचारों से अपने क्षेत्र को मुक्त करना था , जो राम ने ताड़का का वध करके किया |....२  व ३ = इंद्र के संग्रामों में असुरों के विरुद्ध, पृथ्वी के  चक्रवर्ती सम्राट महा शक्तिशाली राजा दशरथ सदैव सहायक होते थे |  पटरानी कैकयी भी युद्ध में साथ जाया करती थी | एक बार दशरथ के रथ के पहिये की धुरी निकलजाने पर तुरंत अपनी तीव्र बुद्धि का उपयोग करके कैकयी ने अपनी उंगली लगा कर गिराने से बचाया था |..४=  वास्तव में राम वन गमन की एक सोची समझी राजनैतिक योजना थी इसमें विश्वामित्र,वशिष्ठ , कैकयी व राम शामिल थे , दशरथ को भी सारी बात विस्तार से ज्ञात नहीं थी अतः वे पूर्ण सहमत नहीं थे | ...५= सेना से यह दुष्कर कार्य नहीं होसकता था क्योंकि रास्ते में पड़ने वाले प्रदेश अपने पर कौशल का हस्तक्षेप समझ कर सहयोग की बजाय पग पग पर विरोध होता और राक्षस सेना सतर्क होजाती |






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