शनिवार, 2 अप्रैल 2011

शूर्पणखा काव्य उपन्यास-- सर्ग-६------





   शूर्पणखा काव्य उपन्यास-- नारी विमर्श पर अगीत विधा खंड काव्य .....रचयिता -डा श्याम गुप्त  
                   
                                 विषय व भाव भूमि
              स्त्री -विमर्श  व नारी उन्नयन के  महत्वपूर्ण युग में आज जहां नारी विभिन्न क्षेत्रों में पुरुषों से कंधा मिलाकर चलती जारही है और समाज के प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति की  ओर उन्मुख है , वहीं स्त्री उन्मुक्तता व स्वच्छंद आचरण  के कारण समाज में उत्पन्न विक्षोभ व असंस्कारिता के प्रश्न भी सिर उठाने लगे हैं |
             गीता में कहा है कि .."स्त्रीषु दुष्टासु जायते वर्णसंकर ..." वास्तव में नारी का प्रदूषण व गलत राह अपनाना किसी भी समाज के पतन का कारण होता  है |इतिहास गवाह है कि बड़े बड़े युद्ध , बर्बादी,नारी के कारण ही हुए हैं , विभिन्न धर्मों के प्रवाह भी नारी के कारण ही रुके हैं | परन्तु अपनी विशिष्ट क्षमता व संरचना के कारण पुरुष सदैव ही समाज में मुख्य भूमिका में रहता आया है | अतः नारी के आदर्श, प्रतिष्ठा या पतन में पुरुष का महत्त्वपूर्ण हाथ होता है | जब पुरुष स्वयं  अपने आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक, धार्मिक व नैतिक कर्तव्य से च्युत होजाता है तो अन्याय-अनाचार , स्त्री-पुरुष दुराचरण,पुनः अनाचार-अत्याचार का दुष्चक्र चलने लगता है |
                 समय के जो कुछ कुपात्र उदाहरण हैं उनके जीवन-व्यवहार,मानवीय भूलों व कमजोरियों के साथ तत्कालीन समाज की भी जो परिस्थिति वश भूलें हुईं जिनके कारण वे कुपात्र बने , यदि उन विभन्न कारणों व परिस्थितियों का सामाजिक व वैज्ञानिक आधार पर विश्लेषण किया जाय तो वे मानवीय भूलें जिन पर मानव का वश चलता है उनका निराकरण करके बुराई का मार्ग कम व अच्छाई की राह प्रशस्त की जा सकती है | इसी से मानव प्रगति का रास्ता बनता है | यही बिचार बिंदु इस कृति 'शूर्पणखा' के प्रणयन का उद्देश्य है |
                   स्त्री के नैतिक पतन में समाज, देश, राष्ट्र,संस्कृति व समस्त मानवता के पतन की गाथा निहित रहती है | स्त्री के नैतिक पतन में पुरुषों, परिवार,समाज एवं स्वयं स्त्री-पुरुष के नैतिक बल की कमी की क्या क्या भूमिकाएं  होती हैं? कोई क्यों बुरा बन जाता है ? स्वयं स्त्री, पुरुष, समाज, राज्य व धर्म के क्या कर्तव्य हैं ताकि नैतिकता एवं सामाजिक समन्वयता बनी रहे , बुराई कम हो | स्त्री शिक्षा का क्या महत्त्व है? इन्ही सब यक्ष प्रश्नों के विश्लेषणात्मक व व्याख्यात्मक तथ्य प्रस्तुत करती है यह कृति  "शूर्पणखा" ; जिसकी नायिका   राम कथा के  दो महत्वपूर्ण व निर्णायक पात्रों  व खल नायिकाओं में से एक है , महानायक रावण की भगिनी --शूर्पणखा | अगीत विधा के षटपदी छंदों में निबद्ध यह कृति-वन्दना,विनय व पूर्वा पर शीर्षकों के साथ  ९ सर्गों में रचित है |
 
सर्ग-६--शूर्पणखा -----प्रथम भाग ---


  पिछले पोस्ट  सर्ग-५- में..राम, लक्ष्मण, सीता- पन्चवटी में जन जागरण अभियान में संलग्न होते हैं।  प्रस्तुत सर्ग-६--शूर्पणखा --में इस जन जागरण अभियान के बारे में राक्षस-प्रशासन को भनक लगती है और विभिन्न गतिविधियां प्रारम्भ होजाती हैं....कुल छंद ..४५ ...जिन्हें तीन पोस्टों में वर्नित किया जायगा । प्रस्तुत है प्रथम भाग..छंद -१ से १५ तक...
१- 
शान्त सौम्य सुन्दर था वन का-
वातावरण, था स्थिर  जीवन |
जाग चुका था वन-प्रदेश अब,
विविध सूचना लगीं पहुचने;
जनस्थान तक इस हलचल की ,
सह न सके जिसको राक्षसगण ||
२-
रावण के अधिग्रहीतक्षेत्र में,
रहती थी भगिनी शूर्पणखा | 
मिली सूचना गुप्तचरों से,
दो मानव पुरुषोंका अक्सर;
घूमते रहना दंडक वन में,
जो थे अति सुन्दर बलशाली ||
३-
जनस्थान की स्वामिनि थी वह,
था अधिकार दिया रावण ने  |
पर, पति की ह्त्या होने पर,
घृणा द्वेष का जहर पिए थी |
पूर्ण राक्षसी भाव बनाकर,
अत्याचार लिप्त रहती थी || 
४-
कैकसि और विश्रवा मुनि की,
थी सबसे कनिष्ठ संतान |
अतिशय प्रिय,परिवार दुलारी,
सारी  हठ  पूरी होती  थी |
मीनाकृति सुन्दर आँखें थीं,
जन्म नाम मीनाक्षी पाया ||
५-
लाड-प्यार में पली-बढ़ी वह,
माँ कैकसि सम रूप गर्विता | 
शूर्प व लम्बे नख रखती थी,
शूर्पनखा इसलिए कहाई |
शुकाकृति थी सुघढ़ नासिका,
शूर्पनका भी कहलाती थी ||
६-
शूर्प सुरुचिकर लम्बे नख थे,
रूपवती विदुषी नारी थी |
साज-श्रृंगार ,वेश-भूषा से,
निपुण विविध रूप सज्जा में |
नित नवीन रूप सजाने में,
उसको अति प्रसन्नता होती ||
७-
दूर दूर से साज श्रृंगार के ,
और केश विन्यास कला के ;
कुशल शिल्पियों को बुलवाकर,
नित प्रति नव श्रृंगार कराती |
जाने कितने पुरुषों को नित,
काम ज्वार में जला डालती ||
८-
अश्मक द्वीप,अश्मपुर शासक,
कालिकेय दानव, विद्युत्जिह्व ;
प्रेमी था वह,  शूर्पणखा का ,
रावण को स्वीकार नहीं था |
हत्यारा था लंकापति के,
प्रमुख रक्ष-मंत्री सुकेतुका ||
९-
पर भगिनी  ने त्याग के लंका,
हठ कर रचा लिया था स्वयंबर |
दानव से राक्षस का रिश्ता,
क्रोधित होकर दशकंधर   ने-
सिरोच्छेद कर विध्युत्जिह्व का,
 नष्ट  कर दिया अश्मकपुर को ॥
१०-
वेवश क्रोधित शूर्पणखा ने,
 त्याग दिया था लंकापति को|
जनस्थान के सेनापति वे,
भ्राता-खर, दूषण, त्रिशिरा थे |
रहने लगी वहीं निश्चय कर,
पूर्ण रूप स्वच्छंद भाव से ||
११-
यद्यपि कहा दशानन ने था,
वीर हजारों हैं,  शूर्पणखा !
जिससे कहे , उसी से वर दूं |
पुनर्विवाह, विधवा विवाह भी,
वेद-विहित, शास्त्र सम्मत है ;
अथवा जैसा भी प्रिय तुमको ||
१२-
पर भ्राता ! यह प्रथम-प्रीति तो,
सदा एक से  ही  होती  है |
बिकने वाली वस्तु राह में,
प्रीति नहीं होती है रावण |
कोइ तोड़ नहीं है अब तो,
इस विछोह पीड़ा का जग में ||
१३-
स्त्री के मन के भावों को,
मन की इच्छा को, पीड़ा को ;
कभी न तुमने समझा भ्राता |
उत्प्रीडन ही सदा किया है,
तुमने नारी मर्यादा का;
फल भी तुम्हें भुगतना होगा ||
१४-
काश आपने, राज्य दंभ में,
जग विजयी, अभिमान भावसे-
परे, प्रेम भी समझा होता |
नारी, बहन, माँ, पत्नी मन को-
महानता तज, देखा होता ,
दे न सका उत्तर दशकंधर ||
१५-
पति ह्त्या से आग क्रोध की,
लगी धधकने शूर्पणखा में |
पुरुष जाति प्रति घृणा भाव में,
शीघ्र बदलकर तीब्र होगई |
कामदग्ध रूपसी बन गयी,
एक वासना की पुतली वह ||   ----  क्रमश:  सर्ग ६-शूर्पणखा..द्वितीय भाग .......
 
[ कुंजिका--  (१)= लंकापति रावण ने विन्ध्य के दक्षिण का अधिकाँश  प्रदेश अपने अधिकार में कर लिया था, कुछ बलशाली राज्यों को मित्र  या स्वतंत्र सत्ता मान लिया था | शायद वास्तव में सारे झगड़े  व कहानी की वजह यही राजनैतिक स्थिति थी |...(२) = राम व लक्षमण..जो स्थान व स्थिति का जायजा लेने घूमते रहते थे ..  (३) = वन प्रदेश व आबादी वाले रावण के अधिग्रहीत क्षेत्र का शासन रावण के शूर्पनखा को दिया हुआ था -खर के सेनापतित्व में ..  ४= माली-सुमाली दीपों के अधिष्ठाता राक्षस राज सुमाली की पुत्री कैकसी जो रावण व कुम्भकरण की माँ थी ... ५= विश्रवा -ब्रह्मा के पौत्र (  पुलस्त्य मुनि के पुत्र )--जिनकी पत्नी देवपर्णी( ऋषि भारद्वाज की पुत्री ) से कुबेर का जन्म हुआ था , जिन्हें लोकपाल   धनेश और लंकापति बनाया  गया | ऐसे ही पुत्र प्राप्ति की इच्छा से  कैकसी ने पिता के कहने पर विश्रवा से अनुनय -विनय कर के विवाह किया अपनी अन्य तीन बहनों-राका, मालिनी व पुष्पोत्कटा  के साथ | क्योंकि ऋषि ने शाम ( दिन ) के समय अनिच्छा से सम्बन्ध स्थापित किया था अतः संतति राक्षस-भाव हुई | राका से -खर व शूर्पणखा, मालिनी से--विभीषणपुष्पोत्कटा से --दूषण व त्रिसिरा |... (६) = लंका के निकट की छोटे छोटे द्वीपों में से एक द्वीप ....(७)...रावण का राक्षस-कुल  मंत्री जिसे अपनी माता से सम्बन्ध रखने पर नाराज होकर विद्युत्जिह्व --जो दानव-कुल का था -- ने दोनों को मार डाला था | अतः रावण नाराज था |...(८) = खर के प्रधान सेनापतित्व में तीनों भाई राक्षसों द्वारा अधिग्रहीत  भारतीय भूभाग के रक्षक थे | 


  प्रस्तुत द्वितीय भाग में  शूर्पणखा के आत्म-मुग्धता के क्षणों में उसकी मनोदशा को दर्शाया गया है ...... छंद १६ से ३१ तक----
१६-
प्रेम पगी वह सुन्दर रूपसि,
एक कुटिल राक्षसी बन गयी |
सुन्दर पुरुष-नारियां उसके,
खेल-घृणा का पात्र हो गए |
पूर्ण वासना करके अपनी,
दे देती थी मृत्यु सभी को ||
१७-
सुन्दर पुरुष देखकर उसकी,
काम -वासना बढ़ जाती थी |
और लक्ष्य कर सुन्दर नारी,
क्रोध-ईर्ष्या जग जाती थी |
क्रोध-अग्नि व पाप-कर्मों की,
आत्म-ग्लानि में झुलस रही थी ||
१८-
रावण के प्रति क्रोध घृणा से,
अवचेतन में बैर भावना ;
अथवा बदले की इच्छा से,
स्वयं अग्नि में झुलस रही थी |
पश्चाताप-अग्नि में रावण,
जलता रहे ताकि जीवन भर ||
१९-
नहीं रह सकी थी वह स्थिर,
भोग संस्कृति पली बढ़ी थी |
शुद्ध सात्विक आचारों में,
नहीं सिखाया जाता रहना |
कामाचार, स्वच्छंद आचरण-
पर कोई प्रतिबन्ध न होता ||
२०-
सुन्दर पुरुष देखकर उनकी,
काम भावना बढ़ जाती है |
और  तिरोहित  होजाता है,
अनुचित-उचित भाव सब मन से |
पर-उत्तम कुलशील नारियां ,
मन व्रत कर्म से दृढ रहती हैं ||
२१-
यह दायित्व पुरुष का ही है ,
सदा रखे  सम्मान नारि का |
अत्याचार न हो नारी पर,
उचित धर्म व्रत अनुशीलन का,
शास्त्र ज्ञान मिले उनको भी ;
हो समाज स्वस्थ दृढ सुन्दर ||
२२-
स्वर्णमयी लंका नगरी को,
तुरत सैनिकों को भिजवाया |
विविधि रूप सज्जा के उपकरण१,
सिद्ध पुरुष सौन्दर्य कला के ;
वशीकरण की कला निपुण जो,
बुलवाए निज रूप सजाने ||
२३-
सोच रही थी ,रमा व रम्भा,
कहते अति सुन्दर नारी हैं |
पर इस उमंगाते यौवन में ,
संसृति भर का सौन्दर्य भरा |
मेरे जैसी ललाम बाला,
विधि ने न रची होगी कोई ||
२४-
प्रकृति भी झुक झुक जाती है,
छवि निरखि अतुल सौन्दर्य राशि |
मादकता  भी  है  शरमाती,
इन नयनों का मद देख देख |
उन्नत उरोज ,कटि-क्षीण निरखि,
मुनियों के ध्यान छूट जाते ||
२५-
गति से इन पीन नितम्बों की,
कामी पुरुषों का चित डोले ;
यह भूतल भी हिल उठता है |
मेरे इस मन से भी कठोर,
ये  हैं  मेरे  गर्वोन्नत  कुच;
मदिराचल भी शरमा जाता ||
२६-
जाने कितने काम पिपासित,
प्रणयी नर-गन्धर्व, सुर-असुर;
काम-केलि से ध्वस्त  हुए हैं |
सौन्दर्य-गर्वोन्नत सिरों को,
जाने कितनी पत्नियों के-
झुका, मान -मर्दन कर डाला ||
२७-
लोलुप भ्रमरों की बातें क्या,
ललचाते अतुलित शूर वीर |
इस तन की कृपा-प्रणय भिक्षा -
हित, कितने ही पद-दलित हुए |
पर आज मुझे क्यों लगता है,
संगीत फूटता,कण कण से ||
२८-
गुप्त रूप से स्वयं पहुंचकर,
छुप कर देखा शूर्पणखा ने |
नर ये सुन्दर-वीर कौन हैं ,
साथ एक है सुन्दर नारी |
ऋषि जैसे नहीं कोमलांग ये,
नहीं योग्य हैं कठोर तप के ||
२९-
क्या धर कर नर रूप विजन में,
विचर रहे हैं - नर-नारायण |
साथ कौन है सुन्दर नारी ,
किन्तु मुझे क्या, कोई भी हो |
पुरुषोचित सौन्दर्य-शौर्य से,
काम-वासना जाग उठी थी ||
३०-
क्या ये स्वयं कामदेव हैं,
अथवा द्वय अश्विनी-बंधुये|
मधुमय नील-कमल सी शोभा,
बरबस ही छीने जाती है,
सारा संचित प्रेम ह्रदय का ;
यही गुप्त-धन है नारी का ||
३१-
जी करता है, प्रेम सुधारस,
छक करके रस-पान करूँ मैं |
खिल खिल हंसती कुमोदिनी बन,
उन अधरों का मधुपान करूँ |
यायावरी, कुटिल माया तज ,
सुख से जीवन शेष बिताऊँ ||   -----क्रमश :  भाग तीन....

{कुन्जिका--- १= श्रृंगार-प्रसाधन, -मेक-अप का सामान ....२=  मेक अप मेन, प्लास्टिक --सर्जन ...३= लक्ष्मी -जो सौन्दर्य की प्रथम प्रतिमा-प्रतिमान हैं, स्वयं सौन्दर्य, रूप-वैभव-एश्वर्य हैं ...४= रम्भा -स्वर्ग की सर्वश्रेष्ठ -सुन्दरतम कामिनी, नृत्यांगना  अप्सरा ....५=  आदि-विष्णु का मूल ब्रह्म-आत्मा  रूप -- सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ, सुन्दरतम  रूप-भावना ...६= देव वैद्य - अश्विनी कुमार, दो भाई-एक मात्र युगल-स्वरुप देव हैं , जो सदैव साथ साथ रहते हैं और कामदेव के समान ही सर्व-सौन्दर्य मय देव हैं | ...७= नारी मन की अगाधता का मूल कारण, ह्रदय मैं वसुधा की भाँति समस्त संसार के लिए  संचित प्रेम ..ही है और यही  उसका गुप्त-धन है जिसे बड़े -बड़े ज्ञानी-ध्यानी भी नहीं  जान पाते हैं ...स्वयं ब्रह्मा भी नहीं ...|
 

 प्रस्तुत तृतीय व सर्ग के अंतिम  भाग में शूर्पणखा राम व लक्ष्मण से प्रणय निवेदन करती है ----छंद ३२ से ४५ तक....
३२-
सब विधि सुन्दर रूपसि बनकर ,


काम बाण दग्धा, शूर्पणखा ;
पहुँच गयी फिर पंचवटी में |
चर्चारत थे राम व लक्ष्मण,
भरकर नयनों में आकर्षण ;
प्रणय निवेदन किया राम से ||


 ३३-
नव षोडसि सी इठलाकर के,
मुस्काती तिरछी चितवन से ;
बोली  रघुवर से -शूर्पणखा |
सुन्दर पुरुष नहीं तुम जैसा,
मेरे  जैसी  सुन्दर  नारी;
नहीं जगत में है कोइ भी ||
३४-
रही ढूंढती सारे जग में,
नहीं मिला तुम जैसा कोई ;
इसीलिये अब तक कुमारि हूँ |
तुम को देखा मन हरषाया,
विधि ने यह संयोग बनाया;
रचें स्वयंवर अब हम दोनों ||
३५-
मैं मुग्ध होगई हूँ तुम  पर,
मेरा मानस है मचल रहा;
तुम पूर्ण करो इच्छा मेरी |
सब सुख साधन वैभव होगा,
जीवन का अनुपम रस भोगो;
क्यों कष्ट वनों के सहते हो ||
३६-
सिय को इंगित कर प्रभु बोले-
अति ही अनुचित है यह भद्रे !
मैं इनका पति हूँ हे सुभगे !
जैसी तुम अब तक कुमारि हो,
वैसे ही कुमार लघु भ्राता ;
तुम प्रणय निवेदन वहां करो ||
३७-
इस प्रेम भरी सरिता का प्रिय,
यह प्रणय निवेदन स्वीकारो |
लक्ष्मण समीप जाके बोली-
तुम मुझको अंगीकार करो |
लक्ष्मण बोले-सुकुमारि सुनो,
मैं तो सेवक हूँ रघुवर का ||
३८-
मेरे  जैसे  सेवक से   क्या,
हे सुमुखि! तुम्हें मिल पायेगा |
मैं तो रघुवर के सम्मुख हूँ ,
बस एक भिखारी द्वार खड़ा |
तुम जैसी सुन्दर सर्वगुणी,
नारी के उपयुक्त राम हैं ||
३९-
कौशलपति हैं श्री राम प्रभु ,
सक्षम, समर्थ सब करने में;
तुम प्रणय निवेदन वहीं करो |
जब पुनः राम के निकट गयी,
बोले, जाओ हे नारि ! वहीं ;
क्रोधित हो बोली , शूर्पणखा ||
४०-
नारी की प्रणय याचना को,
क्या पुरुष कहीं ठुकराते हैं |


नारी का प्रेम न स्वीकारे,
यह तो प्रेम की अवज्ञा है |
प्रणयी नारी की काम-तृषा,
हरना ही धर्म है पुरुषों का ||
४१-
शठ ! अर्पण करने को मैं तो,
यह मादक यौवन लाई थी |
सोचा था काम-कला कोविद,
तुम अज्ञानी रसहीन मिले |
कमनीय मनोहर श्यामल छवि,
से मेरा मन भरमाया था ||
४२-
पर विष की श्यामलता है यह,
जो भरा हुआ है नस नस में |
समझा जिसको मधु-पुष्प-कुञ्ज,
निर्गंधजंगली कुसुम मिला |
शूर्पणखा को ठुकराने का,
तो दंड भोगना ही होगा ||
४३-
लक्ष्मण बोले, हे निशाचरी !
तुम नीति धर्म को क्या जानो
लज्जा ही नारी का गुण है,
निर्लज्ज नारि तुम क्या जानो |
निर्लज्ज कुकर्मी नीच पुरुष,
ही तो, तुमको वर सकता है ||
४४-
मैं भगिनी वीर दशानन की ,
अपमानित करके मानव तुम ;
जीवित कैसे रह पाओगे |
जिस नारी के कारण मुझको,
स्वीकारते नहीं , उसको ही-
लो मैं समाप्त कर देती हूँ  ||
४५-
क्रोधित होने पर मुखड़े की,
सारी सज्जा ही बिगड़ गयी |
धुल गयी रूप सज्जा सारी,
जो कृत्रिमतासे संवारी थी |
असली परिचय पा निशिचरि का,
भयभीत होगयीं थी सीता ||      -----क्रमश :  सर्ग-७ ..सन्देश -----


कुंजिका  --  १= प्रायः यह कहा जाता है क़ि राम ने झूठ बोला , लक्ष्मण तो विवाहित थे | परन्तु ' शठे शाठ्यं समाचरेत ' राम ने कहा जैसी तुम कुमारी हो वैसे ही वे भी कुमार हैं | शूर्पणखा स्वयम विधवा थी कुमारी नहीं , राम यह तथ्य व उसके मायावी रूप को जानते थे , इसी के साथ ही  लक्ष्मण  ने धैर्यवान  व द्रिडव्रती  होने की एक और परिक्षा उत्तीर्ण की |  राम उसको भ्रमित व क्रोधित करके असली रूप देखना चाहते थे और लंकापति को युद्ध का सन्देश भेजने के लिए किसी  उपयुक्त कारण  की उत्पत्ति ...  = सामान्य जनों के व्यवहार में --उस काल में नारी स्वतंत्र व स्वच्छंद थी और पुरुष के लिए प्रणय की इच्छुक  नारी की इच्छा को ठुकराना उचित नहीं माना जाता था | नारी किसी से भी पुत्र प्राप्ति की इच्छा कर सकती थी | यद्यपि यह प्रचलन श्रेष्ठता व उत्कृष्टता का मानक नहीं माना जाता था |.... = गंध हीन ...  =  बनावटी श्रृंगार -सज्जा , मेक-अप |


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