मंगलवार, 28 जून 2016

पुरुषार्थ ...विश्व सत्यं शिवं सुन्दरं क्यों...... कहानी -- डा श्याम गुप्त...

पुरुषार्थ ...विश्व सत्यं शिवं सुन्दरं क्यों...... कहानी 

             आधुनिक विज्ञान, दर्शन, अद्यात्म व अनुभव किसी समारोह हेतु सभा-स्थल पर एकत्र हुए तो परिचय प्रारम्भ हुआ |

                                 युवा ऊर्जा एवं ज्ञान से दीप्त विज्ञान ने बताया- मैं विज्ञान हूँ, प्रत्येक वस्तु व तथ्य के बारे में प्रयोगों पर विश्वास रखता हूँ, विस्तृत प्रयोगों के पश्चात ही प्रतिशत प्रतिफल के आधार पर निश्चित परिणाम के ज्ञान के पश्चात् ही सिद्धांत बनाता हूँ... मानव के उन्नत व प्रगति के कृतित्व हेतु |

             ललाट पर दीर्घ कालीन व्यवहारिक ज्ञान से अनुप्राणित अनुभव ने कहा- मैं तो जीवन के लम्बे अनुभव के बाद नियम बनाता हूँ तत्पश्चात सिद्धांत एवं प्राणी को ज्ञान प्रदान कर उन पर चलने की प्रेरणा देता हूँ |

            सुदर्शन व्यक्तित्व एवं शास्त्रीय ज्ञान से तेजस्वित दर्शन बोला- मैं तर्क व अनुभवों को शास्त्रीय तथ्यों की तुला पर तौल कर प्राणी को परमार्थ हित व सत्य के दर्शन कराता हूँ ताकि वह उच्च नैतिक आचरण एवं सत्य पर चले |

            धीर-गंभीर वाणी में अद्यात्म ने कहा – मैं परहित व परमार्थ कर्म को ईश्वर प्रेरणा व ईश्वर- प्रणनिधान द्वारा जीव को सत्य व कल्याण पर चलने को प्रेरित करता हूँ |

              वे वाद-विवाद व तर्क-वितर्क द्वारा स्वयं को अन्य से श्रेष्ठ सिद्ध करने में लगे थे कि लगे कि एक सुन्दर एवं तेजस्वी युगल ने प्रवेश किया |

अपना परिचय दें श्रीमान, सभी ने कहा |

             मैं कला हूँ – प्रत्येक वस्तु, तथ्य व कृतित्व को समुचित रूप से कैसे किया जाय इसका ज्ञान कराती हूँ ताकि वह सुन्दरतम हो | मैं ही श्रेष्ठ हूँ |
           मैं ज्ञान हूँ उसका साथी कहने लगा – और मैं ही तो आप सब में अनुप्राणित हूँ, यदि मैं ही न रहूँ तो विज्ञान, अनुभव, अद्यात्म, दर्शन, कला..... सत्य का ज्ञान कैसे कर पायेंगे एवं अपने को कैसे व्यक्त करेंगे | मैं ही सर्वश्रेष्ठ हूँ |

              वे आपस में पुनः तर्क-वितर्क में उलझ गए | तभी कर्मठता से हृष्ट-पुष्ट काया वाले एक अन्य व्यक्ति ने प्रवेश किया एवं झगड़े का कारण जानकर हँसते हुए, बोला –
‘मैं ही आप सबको, संसार को व प्राणी को कृतित्व में प्रवृत्त करता हूँ मैं ही सर्वश्रेष्ठ हूँ |’

 सबने साश्चर्य पूछा, आप कौन है श्रेष्ठ्वर ?
‘मैं कर्म हूँ |’

             तभी सौम्य वेशधारी, ललाट पर चन्दन-लेप की शीतलता धारण किये हुए धर्म अवतरित हुआ और कर्म को लक्ष्य करके कहने लगा, ‘ परन्तु मित्र, तुम भी मेरे आधार पर चले बिना प्राणी को परमार्थ भाव पर उन्मुख नहीं कर सकते| अतः मैं श्रेष्ठतम हूँ |

           एक ओर चुपचाप बैठे ‘प्राण’ ने वाद-विवाद में भाग लेते हुए कहा, मैं ही महानतम हूँ, जिस जीव के हेतु आप हैं, मैं ही तो उसमें समाहित रहता हूँ, तभी वह जीव अनुप्राणित होता है ...जीव कहलाता है |

              उसी समय प्रतिभा से जगमगाते हुए आनन से महिमा मंडित एक अति तेजस्वी व्यक्तित्व ने प्रवेश किया, जिसके साथ-साथ ही एक छाया पुरुष भी चल रहा था | दोनों ही अश्विनी बन्धुओं की भाँति एक ही रूप थे ...रूप, रंग, आकार व तेज में एक समान थे |
           एक कहने लगा,’ आप सब महान हैं परन्तु आप सबका अपना स्वयं का अस्तित्व ही क्या है अतः झगडे का कोई आधार ही नहीं |

‘ इसका क्या अर्थ ?’ सभी ने एक साथ पूछा |

                ‘मैं ही आप सबमें समाहित होकर एवं स्वयं में आप सबको समाहित करके सृष्टि के प्रत्येक कृतित्व में प्रवृत्त होता हूँ तभी विश्व एवं विश्व का प्रत्येक कृतित्व आकार लेता है एवं सत्यं, शिवं, सुन्दरं होता है |’

सुन्दरम..सुन्दरं.... आप कौन हैं श्रेष्ठ्वर, सभी एक साथ कहने लगे |

मैं पुरुषार्थ, अपने साथी की आत्मा हूँ न...यह मानव है यह मेरा शरीर है |

साधुवाद...साधुवाद....श्रेष्ठ है ..सत्य है ...यह कहते हुए वे सब उनमें प्रविष्ट होगये |

सोमवार, 6 जून 2016

क्या वैज्ञानिक प्रगति के साथ ज्ञान का क्षरण हो रहा है --डा श्याम गुप्त...

***क्या वैज्ञानिक प्रगति के साथ ज्ञान का क्षरण हो रहा है ?***

------- क्या वैज्ञानिक प्रगति के साथ ज्ञान का क्षरण हो रहा है ? हाँ, निश्चय ही अति-भौतिक प्रगति के साथ मनुष्य का शारीरिक व मानसिक क्षरण होता है| तेजी से भौतिक या वैज्ञानिक प्रगति हेतु विभिन्न जानकारियों की आवश्यकता होती है, उनके पीछे भागना होता है, स्वयं को अपडेट रखना होता है अतः विविध ज्ञानार्जन हेतु समय ही नहीं होता | धीरे धीरे मन, मस्तिष्क ,शरीर आलसी व अकर्मण्य होने लगता है मस्तिष्क में उच्च ज्ञान व संवेदना के तंत्र अवांछित ( disuse atrophy) होने लगते हैं| असमय ही गंजापन, कम उम्र में वार्धक्य, मानसिक रोग आदि उत्पन्न होने लगते हैं| तभी तो अमेरिका में सर्वाधिक मानसिक रोगी व मानसिक चिकत्सालय हैं |
-------- टीवी को बुद्धू बक्सा इसीलिये तो कहा जाता है | कहानी-कथा पढ़कर, सुनकर उसके वर्णनों की कल्पना मन-मस्तिष्क को उर्वरा बनाती थी परन्तु सब कुछ सामने होने से वह कल्पना शक्ति प्रयोग ही नहीं हो पाती |
---यही कार्य गूगल द्वारा हो रहा है प्रत्येक जानकारी तैयार मिलने पर उसकी खोज हेतु ज्ञानार्जन, विविध उपक्रम करने की आवश्यकता ही नहीं, अतः स्मृति की आवश्यकता न रहने से वह भी क्षीण होती जा रही है|
-----बनावटी कल्पित फंतासी व विज्ञान कथाएं, बाल कथाएं आदि जिनमें धर्म, समाज, ईश्वर, सभ्यता, संस्कृति का जिक्र नहीं या विकृत आधुनिक रूप प्रदर्शन द्वारा इस सभी प्रकार के क्षरण में वृद्धि का कारक होती हैं| इस प्रकार मनुष्य बनावटी सभ्यता, सम्वेदनशीलता, सामाजिकता के मध्य सिर्फ स्व में स्थित, आत्म-केन्द्रित होकर पीछे की ओर...समष्टि से व्यष्टि की ओर प्रवाहित होने लगता है तथा सामाजिकता से दूर होने से मानवता से भी कटने लगता है |


--------परन्तु प्रश्न यह भी है कि वैज्ञानिक प्रगति व भौतिक उन्नति भी तो आवश्यक है | जैसा यजुर्वेद एवं ईशोपनिषद में कहा गया है ...

****‘विद्यांचाविध्या यस्तद वेदोभय सह:....’***
-----अर्थात विद्या ( वास्तविक ईश्वरीय-मानवीय-शास्त्रीय ज्ञान ) एवं अविद्या ( सांसारिक भौतिक-वैज्ञानिक ज्ञान- व्यवसायिक, प्रोफेशनल जानकारियाँ ) दोनों को ही साथ साथ जानना चाहिए|
---------- तो क्या किया जाना चाहिए ? वस्तुतःअति-भौतिकता एवं तेजी से भागने की अपेक्षा, शनै:-शनै : सम गति से धीरज के साथ प्रगति पथ पर बढ़ना चाहिए, प्रकृति के साथ तादाम्य करके ...उससे विरोध या युद्ध करके नहीं, मानव स्वयं को प्रकृति के अनुसार ढाले ..प्रकृति को तोड़े-मरोड़े नहीं |
------प्रगति के साथ सदैव ईश्वर पर विश्वास, आस्था, श्रद्धा अर्थात ईश्वर- प्रणनिधान के साथ मानवीय व्यवहार के पांच धर्म-तत्व ...धर्म, प्रेम, न्याय, संकल्प व धैर्य ...जो भगवान श्रीकृष्ण ने द्रौपदी को बताये थे,जो उनकी मित्रता की रीढ़ बने ...वही उपरोक्त श्लोकार्ध के द्वितीय अर्ध में कथन है ....
*** ’अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्यायां अमृतंनुश्ते |’ ****
----...अर्थात अविद्या से मृत्यु को ( संसार को, भौतिकता को ) जीतकर विद्या से अमृतत्व ( जीवन संतुष्टि, परमशान्ति, जीवन लक्ष्य-प्राप्ति का परमानंद, ब्रह्मानंद, मुक्ति मोक्ष कैवल्य) प्राप्त करें |