बुधवार, 18 मई 2016

का का प्र गीत....अभी तो शेष है मुझमें--डा श्याम गुप्त ...



जीवन-दृष्टि ---काव्य संग्रह के गीत ------

कारण  कार्य व  प्रभाव  गीत....अभी तो शेष है मुझमें ......


अभी तो शेष है मुझमें ,
अथक संघर्ष की क्षमता |
       
          तिमिर होने लगी है किन्तु -
              धुंधली सी किरण भी है |
                 मुझे  लगता है यह संदेह,
                     बस यूंही अकारण है ||

अँधेरे भेद कब पाए ,
भला उजियार की क्षमता |

     साथ मेरे चले जो भी ,
         वही झिलमिल किरण होगा |
             राग दीपक की लहरी से,
                 तिमिर का तम हरण होगा ||

समझ तूफ़ान कब पाए,
तरणि-संघर्ष की क्षमता |

       बहुत चाहा, नहीं जलयान,
            तट की शरण जा पाये |
               धैर्य संकल्प के आगे ,
                   कहाँ तूफ़ान टिक पाए ||


   कहाँ साए की ठंडक में,
  धूप की तपन सी क्षमता |

       पला सायों में उसने कब ,
           जहां का दर्द जाना है |
             तप दिनभर वही समझा ,
                दर्दे-गम का तराना है ||

  अँधेरे भ्रम के कब समझे  ,
  मौन विश्वास की क्षमता |

        नहीं होती कोइ सीमा ,
            किसी भ्रम के निवारण की |
                 नहीं होती मगर श्रृद्धा,
                    कभी यूंही अकारण ही ||


   अहं का गीत क्या जाने ,
  समर्पण भाव की क्षमता |

         अहं में अनसुनी चाहे,
             करो तुम वन्दना मेरी |
                 समर्पण भाव में मैं तो,
                    तुम्हारे छंद गाता हूँ ||


रविवार, 15 मई 2016

भारतीय साहित्य में स्त्री-पुरुष के परस्पर व्यवहार का संतुलित रूप -डा श्याम गुप्त...

भारतीय साहित्य में स्त्री-पुरुष के परस्पर व्यवहार का संतुलित रूप 
          भारतीय संस्कृति व प्रज्ञातंत्र में तथा तदनुरूप भारतीय साहित्य में, स्त्री-पुरुष या पति-पत्नी के आपसी व्यवहार के संतुलन का अत्यधिक महत्व रखा गया है | आज भी यह भाव परिलक्षित करती हुईं ‘किस्सा तोता-मैना’ की कथाएं स्त्री-पुरुष के आचार-व्यवहार की समता व समानता की कहानियां ही हैं जिनमें दोनों के ही अनुचित आचरणों का विविध रूप से वर्णन किया गया है | यदि पुरुष प्रधान समाज में यह अपेक्षा थी कि महिलायें पुरुष की महत्ता को पहचानें व मानें एवं यहाँ तक कि वे पति की चिता पर सती भी होजायं, तो पुरुष से भी यही अपेक्षा की जाती थी कि वे महिला के अधिकार व सम्मान सर्वाधिक ध्यान रखें |


         यद्यपि विभिन्न कथाओं आख्यानों में पति या प्रेमी के लिए बिछोह सहने वाली महिलाओं की जितनी कथाएं हैं उतनी पुरुषों की नहीं, जबकि पुरुषों के भी स्त्री के प्रति बिछोह दुःख व पीढा की भी उतनी ही घटनाएँ उपलब्ध हैं | क्या कोई आज यह मानने को तैयार होगा कि किसी पुरुष ने भी इसलिए अपने प्राण त्याग दिए कि वह पत्नी के बिना जीवन नहीं बिता सकता था |

          दैव-सभ्यता अथवा मानव सभ्यता के आदिकाल में स्वयं शिव, सती का शरीर लेकर समस्त ब्रह्माण्ड में घूमते रहे, यह किसी भी पुरुष का स्त्री के प्रति सर्व-सम्पूर्ण समर्पण था| पुरुरवा का उर्वशी के विरह में समस्त उत्तराखंड में घूमते रहना, महाराजा अज द्वारा पत्नी महारानी इंदुमती की मृत्यु पश्चात सदमे से कुछ समय उपरांत ही देह त्याग देना, दुष्यंत की शकुन्तला के लिये व्याकुलता से खोज, मेघदूतम के यक्ष का प्रेमिका को बादल द्वारा भेजा गया सन्देश, भृंगदूतं काव्य में राम का सीता की खोज हेतु भ्रमर को भेजना,  दशरथ का कैकेयी के कारण प्राण त्याग, स्वयं राम का सीता के अपहरण के समय राम रोते हुए समस्त वन-पेड़ पौधों, पशु-पक्षियों से विरह-व्यथा कहते हुए विक्षिप्त की भाँति घूमते रहे | सीता के लिए सागर सेतु निर्माण, महासमर, सीता वनगमन के वियोग में दूसरा विवाह न करना एवं सीता के धरती में समा जाने के उपरांत सरयू में जल समाधि लेना, कि वे पत्नी के बिना नहीं रह सकते थे, श्री कृष्ण का वन में राधे राधे रटते हुए घूमते रहना, राधा व गोपियों हेतु उद्धव को भेजना आदि घटनाएँ इस तथ्य की साक्षी हैं कि पुरुषों/पतियों ने भी इतिहास में स्त्री/पत्नी के लिए उतने ही, कष्ट सहे हैं एवं उत्सर्ग किया है जितना स्त्रियों ने |  


         वस्तुतः परवर्ती काल में एवं भक्ति साहित्य में पुरुष का नारी के प्रति इस प्रकार का प्रेम नहीं दिखलाया गया है, जहां महिला-भक्त का भगवान् के प्रति भक्त-प्रेम दर्शित है वहीं पुरुष-भक्त का देवी के प्रति पुत्रवत वात्सल्य प्रेम दर्शाया गया है | इस प्रकार कालान्तर में पुरुषों के समर्पण एवं पत्नी-स्त्री के लिए त्याग की कथाएं भुला दी गयीं | पुरुष प्रधान समाज में नारी की महत्ता व महत्त्व की सदैव प्रधानता बनी रहे एवं नारी,  समाज व पुरुष का प्रेरणा-श्रोत बनी रहे अतः नारी के त्याग की कथाएं प्रमुखता पाती रहीं |

शनिवार, 14 मई 2016

हर बात पर कहते हो कि तू क्या है ----डा श्याम गुप्त ...

आज का इन्द्रभान गर्ल्स इंटर कालिज, कालामहल, आगरा


                   हर बात पर कहते हो कि तू क्या है ---


        किसी आलेख में गालिव के जन्मस्थान आगरा में उनके निजी

 मकान का कोई पक्का चिन्ह न होने परन्तु उस स्थान पर बड़ी 

हवेली एवं किसी गर्ल्स स्कूल के होने का उल्लेख से बचपन की 

स्मृतियों के द्वार खुलने लगते हैं | मेरा जन्मस्थल आगरा जिले के

गालिव

कडाही का हलुवा

भाड़ व भड़भूजा
ग्राम मिढाकुर है परन्तु जमींदारी समाप्त होने पर हम आगरा चले 

आये अतः मेरा सम्पूर्ण शैशव एवं बचपन आगरा में ही 

बीता है |  


        कालामहल में बड़े साहब की पुश्तैनी बड़ी हवेली की दुकानों में एक दुकान मेरे पिताजी की भी थी | बड़े साहब नगर के बड़े वकीलों में थे | सुनते रहते थे कि यह हवेली मुग़लकाल के बाद अंग्रेजों के कब्जे में आई और किसी अँगरेज़ बड़े साहब ने वकील साहब के पितामह को उनकी सेवा हेतु उपहार में देदी थी| आजकल वकील साहब ही बड़े साहब थे| कालामहल में यह प्रसिद्द हवेली थी, और वकील साहब का व्यवहार अँगरेज़-साहबों की भांति ही था यथा महंगी केप्स्टन की सिगरेट सदा मुंह में लगाये रहना, बच्चों का अंग्रेज़ी स्कूलों में पढ़ना, अंग्रेज़ी बोलना, देशी वस्तुओं पर नाक-भौं सिकोड़ना, सामान्यजन से दूरी बनाये रखना | यद्यपि अब आमदनी का ज़रिया केवल दुकानों से आने वाली किराए की आय ही रह गयी थी परन्तु साहबी अन्दाज़ अभी भी बाकी थे| मैं कभी कभी दुकान पर चला जाया करता था और कभी कभी किराया या वकीलसाहब को सिगरेट देने कोठी के अन्दर भी | उनके पुत्र-पुत्रियाँ भी साहबी अकड़ में ही रहा करते थे, यद्यपि हवेली का दुकांन से उधार-खाता भी चलता था | बाज़ार में अन्य दुकानदारों आदि से भी उनका यही व्यवहार था| 


        हमारी दुकान के सामने वाली कतार में इन्द्रभान गर्ल्स स्कूल था जो नगर का प्रतिष्ठित स्कूल था| कुछ अन्य दुकानें तथा साथ में ही एक भाड़ था जिस पर चने-मूंगफली आदि भूने जाते थे साथ ही साथ शकरकंद भी | | शायद यह बिल्डिंग भी हवेली वालों की ही थी जिसे किसी अन्य को बेच दिया गया था | 


         भड़भूजा बड़े शायराना अंदाज़ वाला था( यह मैं अपने आज के विचार-अंदाज़ से कह रहा हूँ, उस समय तो प्राइमरी कक्षा के छात्र को कुछ पता ही नहीं था| )  जो बड़े काव्यमय अंदाज़ में भुने हुए शकरकंद को ‘जलवा ही जलवा है, कड़ाही का हलुवा है’ कहकर बेचा करता था, और हम बच्चे लोग उसकी नक़ल बनाया करते थे | खरीददार एवं आप-पास के अन्य निवासी भी इसी प्रकार शायराना, काव्यमय भाषा प्रयोग करते थे | कई बार अन्य दुकानदारों व भड़भूजे से भी बड़े साहब की नोंक–झोंक होजाया करती थी| उनकी साहबी तेवरों पर पीठ पीछे लोग हंसा भी करते थे | भड़भूजे से तकरार पर कई बार वह यह भी कहा करता था,—आप तो- ‘हरेक बात पर कहते हो कि तू क्या है... हुज़ूर हम भी इंसान हैं, रोज कमाते-खाते हैं तो क्या |’ 


        उस समय न मुझे शायरी का पता था, न शायर का, न गालिव का, न गालिव की शायरी का | परन्तु आज मुझे लगता है कि मेरी खुशनसीबी है | अवश्य ही यह वही स्थान होगा जहां गालिव ने जन्म लिया | तभी तो उनके प्रशंसक हर तबके के लोग थे, चाहे वे दिल्ली में जाकर बस गए, वहीं मशहूर हुए, परन्तु आगरा व दिल्ली का सांस्कृतिक रिश्ता तो अटूट था| 


न रहा बचपन वो हसरतो-आरजू के दिन

न वो जुस्तजू न अंदाज़े-गुफ्तगू के दिन |