रविवार, 15 मई 2016

भारतीय साहित्य में स्त्री-पुरुष के परस्पर व्यवहार का संतुलित रूप -डा श्याम गुप्त...

भारतीय साहित्य में स्त्री-पुरुष के परस्पर व्यवहार का संतुलित रूप 
          भारतीय संस्कृति व प्रज्ञातंत्र में तथा तदनुरूप भारतीय साहित्य में, स्त्री-पुरुष या पति-पत्नी के आपसी व्यवहार के संतुलन का अत्यधिक महत्व रखा गया है | आज भी यह भाव परिलक्षित करती हुईं ‘किस्सा तोता-मैना’ की कथाएं स्त्री-पुरुष के आचार-व्यवहार की समता व समानता की कहानियां ही हैं जिनमें दोनों के ही अनुचित आचरणों का विविध रूप से वर्णन किया गया है | यदि पुरुष प्रधान समाज में यह अपेक्षा थी कि महिलायें पुरुष की महत्ता को पहचानें व मानें एवं यहाँ तक कि वे पति की चिता पर सती भी होजायं, तो पुरुष से भी यही अपेक्षा की जाती थी कि वे महिला के अधिकार व सम्मान सर्वाधिक ध्यान रखें |


         यद्यपि विभिन्न कथाओं आख्यानों में पति या प्रेमी के लिए बिछोह सहने वाली महिलाओं की जितनी कथाएं हैं उतनी पुरुषों की नहीं, जबकि पुरुषों के भी स्त्री के प्रति बिछोह दुःख व पीढा की भी उतनी ही घटनाएँ उपलब्ध हैं | क्या कोई आज यह मानने को तैयार होगा कि किसी पुरुष ने भी इसलिए अपने प्राण त्याग दिए कि वह पत्नी के बिना जीवन नहीं बिता सकता था |

          दैव-सभ्यता अथवा मानव सभ्यता के आदिकाल में स्वयं शिव, सती का शरीर लेकर समस्त ब्रह्माण्ड में घूमते रहे, यह किसी भी पुरुष का स्त्री के प्रति सर्व-सम्पूर्ण समर्पण था| पुरुरवा का उर्वशी के विरह में समस्त उत्तराखंड में घूमते रहना, महाराजा अज द्वारा पत्नी महारानी इंदुमती की मृत्यु पश्चात सदमे से कुछ समय उपरांत ही देह त्याग देना, दुष्यंत की शकुन्तला के लिये व्याकुलता से खोज, मेघदूतम के यक्ष का प्रेमिका को बादल द्वारा भेजा गया सन्देश, भृंगदूतं काव्य में राम का सीता की खोज हेतु भ्रमर को भेजना,  दशरथ का कैकेयी के कारण प्राण त्याग, स्वयं राम का सीता के अपहरण के समय राम रोते हुए समस्त वन-पेड़ पौधों, पशु-पक्षियों से विरह-व्यथा कहते हुए विक्षिप्त की भाँति घूमते रहे | सीता के लिए सागर सेतु निर्माण, महासमर, सीता वनगमन के वियोग में दूसरा विवाह न करना एवं सीता के धरती में समा जाने के उपरांत सरयू में जल समाधि लेना, कि वे पत्नी के बिना नहीं रह सकते थे, श्री कृष्ण का वन में राधे राधे रटते हुए घूमते रहना, राधा व गोपियों हेतु उद्धव को भेजना आदि घटनाएँ इस तथ्य की साक्षी हैं कि पुरुषों/पतियों ने भी इतिहास में स्त्री/पत्नी के लिए उतने ही, कष्ट सहे हैं एवं उत्सर्ग किया है जितना स्त्रियों ने |  


         वस्तुतः परवर्ती काल में एवं भक्ति साहित्य में पुरुष का नारी के प्रति इस प्रकार का प्रेम नहीं दिखलाया गया है, जहां महिला-भक्त का भगवान् के प्रति भक्त-प्रेम दर्शित है वहीं पुरुष-भक्त का देवी के प्रति पुत्रवत वात्सल्य प्रेम दर्शाया गया है | इस प्रकार कालान्तर में पुरुषों के समर्पण एवं पत्नी-स्त्री के लिए त्याग की कथाएं भुला दी गयीं | पुरुष प्रधान समाज में नारी की महत्ता व महत्त्व की सदैव प्रधानता बनी रहे एवं नारी,  समाज व पुरुष का प्रेरणा-श्रोत बनी रहे अतः नारी के त्याग की कथाएं प्रमुखता पाती रहीं |

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