कवि ! गुनुगुनाओ आज.....
सखि ! गुनगुनाओ आज ,
एसा गीत कोई ।
बहने लगे रवि रश्मि से भी,
प्रीति की शीतल हवाएं ।
प्रेम के संगीत सुर को-
लगें कंटक गुनगुनाने |
द्वेष द्वंद्वों के ह्रदय को -
रागिनी के स्वर सुहाएँ.
वैर और विद्वेष को ,
बहाने लगे प्रिय मीत कोई ||
अहं में जो स्वयं को
जकडे हुए |
काष्ठवत और लोष्ठ्वत
अकड़े खड़े |
पिघलकर -
नवनीत बन जाएँ सभी |
देश के दुश्मन , औ आतंकी यथा-
देश द्रोही और द्रोही-
राष्ट्र और समाज के ;
जोश में भर लगें वे भी गुनगुनाने,
राष्ट्र भक्ति के वे -
शुच सुन्दर तराने |
आज अंतस में बसालें ,
सुहृद सी ऋजु नीति कोई ||
वे अकर्मी औ कुकर्मी जन सभी
लिप्त हैं जो
अनय और अनीति में |
अनाचारों का तमस-
चहुँ ओर फैला ;
छागये घन क्षितिज पर अभिचार के |
धुंध फ़ैली , स्वार्थ, कुंठा , भ्रम तथा-
अज्ञान की |
ज्ञान का इक दीप
जल जाए सभी में |
सब अनय के भाव , बन जाएँ -
विनय की रीति कोई ||