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शुक्रवार, 11 जनवरी 2013
मंगलवार, 1 जनवरी 2013
सोने की लंका में ..... डा श्याम गुप्त
(--- आज अनाचरण व् मर्यादाहीनता के युग में जब पुरुष ( एवं स्त्रियाँ स्वयं भी ) स्वर्ण अर्थात धन, कमाई, भौतिक सुखों के पीछे दौड़ रहे हैं जो स्वयं इस अनाचरण का मूल है .....स्त्रियों को ही आगे आना होगा ... उन्हें सीता, दुर्गा, अनुसूया, मदालसा, जीजाबाई , लक्ष्मीबाई बनना होगा, स्वयं को एवं पुरुष को सदाचार का मार्ग दिखाने ...यही युग की मांग है....)
रघुबर के नाम की भी, सुअना पावंदी है |
लंका तो सोने की, सोना ही सोना है ,
सोना ही खाना-पीना, सोना बिछौना है |
सोने के कपडे-गहने,सोने की बँगला-गाड़ी,
सोने सा मन रखने पर, सुअना पावंदी है || ... सोने की लंका में ....
सोने के मृग के पीछे, क्या गए राम जी,
लक्ष्मण सी भक्ति पर भी, शंका का घेरा है |
संस्कृति की सीता को, हर लिया रावण ने ,
लक्ष्मण की रेखा ऊपर, सोने की रेखा है ||
अपना ही चीर हरण, द्रौपदि को भाया है ,
कृष्ण लाचार खड़े, सोने की माया है |
वंशी के स्वर में भी, सुर-लय त्रिभंगी है ,
रघुवर के नाम की भी रे नर ! पाबंदी है || ...सोने की लंका में ...
अब न विभीषण कोई, रावण का साथ छोड़े ,
अब तो भरत जी रहते, रघुपति से मुख मोडे |
कान्हा उदास घूमे, साथी न संगी हैं ,
माखन से कौन रीझे, ग्वाले बहुधंधी हैं ||
सोने के महल-अटारी, सोने के कारोबारी,
सोने के पिंजरे में मानवता बंदी है |
हीरामन हर्षित चहके, सोने के दाना-पानी -
पाने की आशा में, रसना आनंदी है || ...सोने की लंका में...
कंस खूब फूले-फले, रावण हो ध्वंस् कैसे,
रघुवर अकेले हैं, लंका में पहुंचें कैसे |
नील और नल के छोड़े पत्थर न तरते अब ,
नाम की न महिमा रही सीताजी छूटें कैसे ||
अब तो माँ सीता !तू ही, आशा की ज्योति बाकी ,
जब जब हैं देव हारे, माँ ! तू ही तारती |
खप्पर-त्रिशूल लेके, बन जा रणचंडी है ,
भक्त माँ पुकारें, राम की भी रजामंदी है || --- सोने की लंका में ..||
कंस खूब फूले-फले, रावण हो ध्वंस् कैसे,
रघुवर अकेले हैं, लंका में पहुंचें कैसे |
नील और नल के छोड़े पत्थर न तरते अब ,
नाम की न महिमा रही सीताजी छूटें कैसे ||
अब तो माँ सीता !तू ही, आशा की ज्योति बाकी ,
जब जब हैं देव हारे, माँ ! तू ही तारती |
खप्पर-त्रिशूल लेके, बन जा रणचंडी है ,
भक्त माँ पुकारें, राम की भी रजामंदी है || --- सोने की लंका में ..||
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