इन्द्रधनुष-----स्त्री-पुरुष विमर्श पर डा श्याम गुप्त का का उपन्यास ....अंक १ से ४ तक....
’ इन्द्रधनुष’ ------ स्त्री-पुरुष विमर्श पर एक नवीन दृष्टि प्रदायक उपन्यास (शीघ्र प्रकाश्य ....)अंक एक
सुमि तुम !
के जी ! अहोभाग्य , क्या तुमने पुकारा ?
नहीं ।
मैंने भी नहीं, फिर....
हरि इच्छा, मैंने कहा ।
वही खिलखिलाती हुई उन्मुक्त हंसी ।
चलो , समय ने मेहरबान होकर एक बार फिर साथ साथ चलने का अवसर दिया । सच बताऊँ , आज सचमुच मैंने याद किया था ...जाने क्यों .....खैर छोडो । कहाँ जाना है, सुमि ने पूछा ।
बंबई , असोशियेशन की कान्फ्रेंस है
क्या नेता बन गए हो ? सुमि ने पूछा ।
नहीं , मैंने कहा---
'आसमाँ की तो नहीं चाहत है मुझको ,
मैं चला हूँ बस जमीन के गीत गाने ।'
हूँ, वही तेवर,अच्छा लगा ।
और तुम कहाँ जा रही हो ?
वहीं जहां तुम ।
गुड---'वहीं है आशियाँ मेरा जहां तू मुस्कुराई है।'
पी जी परीक्षा लेने जा रही हूँ , मेडीकल कालेज में प्रोफ़ेसर हूँ । सुमि ने बताया ।
अच्छा मेरी जगह तुम घेरे हुए हो ।
ये क्या बात हुई ।
अच्छा स्त्रियों के सर्विस करने के बारे में तुम्हारे विचार क्या हैं ? उसकी सामाजिक उपादेयता व अनुपादेयता क्या है?
तुमतो मिलते ही शुरू होगये, श्योरली तुम्हारे दिमाग में कुछ चल रहा है । इतने वर्षों बाद मिले हैं और....
' न हाल पूछा न चाल, मिलते ही शुरू होगये,
पूछो तो कहाँ थे, क्या थे और अब क्या होगये ।'
वाह ! क्या बात है..क्या बात है....मैंने कहा। अच्छा किस विशेषज्ञता की परीक्षा लेने आई हो , तुम किस डिसिप्लिन में विशेषज्ञ हो ?
मैंने एम् एस, स्त्री चिकित्सा विज्ञान में किया है ।
मैंने.......
एम् एस सर्जरी ...मुझे पता है तुम्हारे लेखों व पुस्तकों से ।
हूँ, वेरी स्मार्ट..हमसे तेज !
" मेरे ख्याल से हायर प्रोफेशनल्स, चिकित्सक, उच्च अधिकारी, प्रोफ़ेसर आदि की उच्च स्थिति से अन्यथा सेवा स्त्रियों को नहीं करनी चाहिए, जब तक विशेष परिस्थिति न हो । उन्हें स्वयं का व्यक्तिगत विशेषज्ञ कर्म, व्यबसाय करना चाहिए जहां वे स्वयं ही 'बॉस' हैं । क्योंकि मातहत सेवाओं में तो स्त्रियों के होने से शोषण-चक्र को ही बढ़ावा मिलता है । सिर्फ सर्विस के लिए या समय काटने के लिए , यूंही और आय बढाने के लिए सर्विस का लाभ नहीं है । यदि आप 'हाईली पेड' नहीं हैं तो आपको घर व दफ्तर दोनों का दायित्व संभालना पडेगा और बहुत से समझौते करने पड़ेंगे ।" सुमि ने स्पष्ट किया ।
अब अपनी भी कहदो, पेट में पच नहीं रहा होगा ।
" यदि सारी स्त्रियाँ सर्विस करने लगें तो देश में दोसौ प्रतिशत स्थान तो होंगे नहीं; ज़ाहिर है कि वे पुरुषों का ही स्थान लेंगी और पुरुषों में बेरोज़गारी का कारण बनेंगीं। कोई पति-पत्नी युगल अधिक कमाएगा व अधिक खर्चेगा, कोई दोनों ही बेरोज़गार होंगे, कोई एक ही, अतः सामाजिक असमानता,असमंजसता,भ्रष्टाचरण को बढ़ावा मिलेगा । कुछ पुरुष स्त्रियों की कमाई पर मौज उड़ायेंगे कुछ ताने बरसाएंगे । अतः पारिवारिक द्वंद्व भी बढ़ेंगे । यदि स्त्रियाँ सामान्यतः नौकरी न करें तो लगभग सभी युवक रोज़गार पायेंगे व सामाजिक समरसता रहेगी । पुरुष स्वयमेव समुचित वेतन के भागी होंगे ।"
'किन्तु प्राचीन व प्रागैतिहासिक युगों में भी तो सदा स्त्री-पुरुष दोनों साथ साथ काम करते थे ।' सुमि ने प्रश्न उठाया, 'मध्यकाल में और आज भी अधिकाँश वर्गों में, गाँवों में भी स्त्रियां पुरुषों के साथ साथ सभी कार्य करती हैं । फिर उनकी आर्थिक सुरक्षा का दायित्व किस पर होगा ?'
निश्चय ही पति -परिवार के साथ कार्य करना, खेतों पर कार्य, व्यवसाय संभालना तो सदा से ही नारी करती आरही है । कैकेयी का युद्ध में साथ देना, रानियों का अन्तःपुर की व्यवस्था संभालना, राधा का नेतृत्व, द्रौपदी का अन्तःपुर संचालन तो प्रसिद्ध हैं । परन्तु प्रश्न अन्य की चाकरी करने का है, सेवा का है, जो सामंती व्यवस्था की देन है तथा स्त्री-पुरुष उत्प्रीडन, शोषण व द्वंद्व की परिणामी स्थिति उत्पन्न करती है । मैंने कहा ।
हूं, बात में दम तो है । क्या-क्या और कहाँ तक सोचते रहते हो , अभी तक । वह हंसते हुए कहती गयी । 'अच्छा कहाँ ठहरोगी ?' मैंने पूछा ।
मेडीकल कालेज के गेस्ट हाउस में । और तुम ?
मेरीन ड्राइव पर ।
सागर तीरे..... किनारे बैठने की आदत गयी नहीं अभी तक । वेरी बेड ।
' मुझे आवाज़ देती है उमड़ती धार नदिया की
किनारे इसलिए ही तो मुझे अब रास आते हैं ।'....अरे गेस्ट हाउस है , चर्च गेट पर , मैंने बताया ।
चलो साथ साथ मेरीन ड्राइव पर घूमने का आनंद लेंगे । पुरानी यादें ताजा करेंगे ।
रमेश कहाँ है ? मैंने पूछा ।
दिल्ली, बड़ा सा नर्सिंग होम है, अच्छा चलता है ।
क्या सोचने लगे ?
यही कि तुमने अपना नर्सिंग होम क्यों नहीं ज्वाइन किया !
'तुम्हारे कारण केजी ...लिखने पढ़ने की बुरी आदत पडगई है न । प्राइवेट नर्सिंग होम में तो इतना समय ही नहीं मिलता । दिन भर काम में जुटे रहो, लोग चैन से बैठने ही कहाँ देते हैं ।' वह हँसने लगी , फिर बोली. अरे ..डोंट बी डिप्रेस्ड...वास्तव में तो वह सर्जीकल क्लिनिक है, गायानोकोलोजी नहीं बाप-बेटे मिल कर चला लेते हैं । फिर मेडीकल कालेज से भी तो सम्बद्दता रहनी चाहिए न ।
तुम्हारी शायरी और डांस ?
फुर्सत ही कहाँ है ।
और फेमिली ?
प्लान्ड, एक बेटा है, एमबीबीएस कर रहा है ,पिता का हाथ बंटाता है। बेटी एमसीए करके अपने पति के पास ।
सुखी हो ?
बहुत, अब तुम बताओ ।
एक प्यारी सी हाउस मेनेजर पत्नी है सुभी ..सुभद्रा । बेटा बी टेक कर रहा है और बेटी एम बी ए ...बस ।
सदा की तरह संतुष्ट और परम सुखी, वह बोली, और कविता ?
क्या दो पर्याप्त नहीं हैं ? मैं हंसा ।
तुम्हें याद है अब तक वो पागलपन !
'जमाने के कभी में साथ यारा चल नहीं पाया ,
मगर यादें मुझे अब भी जवाँदिल करती जाती हैं।'
मैं किसी नयी काव्य-रचना की बात कर रही हूँ ।
पता है, एक नवीन संग्रह छापा है ..' तेरे नाम ' ।
'मेरे नाम '
नहीं -'तेरे नाम '।
ओह! मेरे नाम क्या है उसमें ?
"तू ही मितवा है तेरा नाम तू ही तू जमाने में ।
जमाने नाम तेरे और क्या अब मैं भला करदूं ।".........देखलेना, कल सुबह पेश करूंगा।
और वह साइक्लिस्ट ?
अपने पति के पास, मैंने हंसते हुए कहा ।
हूँ, और क्या ख़ास उपलब्धि इस बीच, मैंने पूछा ।
अमेरिका व आस्ट्रेलिया का प्रोफेशनल दौरा, और छः माह अमेरिका प्रवास ।
वाह! अमेरिका में हमें याद किया या नहीं ।
नहीं, पर तुम बहुत याद आते रहे । वह मुस्कुराने लगी ।
इसका क्या अर्थ ? मैंने साश्चर्य पूछा ।
भूलने, याद न करने और याद आने में फर्ख है ......
'अब भला याद करें भी तो तुम्हें कैसे करें ,
हम तो भूले ही नहीं सुन के मुस्कुराओगे ।'
वाह ! मान गए सुमि ।
तो अब मुझे और क्या चाहिए ।
हूँ, बड़ा सुन्दर एडवांस देश है अमेरिका, खुले लोग, खुले विचार कैसा लगा ?
हाँ , खुली खुली सड़कें ,मीलों दूर तक फ़ैली हुयी, साफ़-सुथरी बड़ी-बड़ी इमारतें , शानदार केम्पस , चमचमाती हुई गाड़ियां , स्वर्ग का सा असीम नैसर्गिक सौंदर्य ....।
तो लौट क्यों आई हो ?
वहां के जी नहीं है न, वह हंसकर कहने लगी ।
मैं हंसा...फिर बोली ......'जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी'.. है न ।
मैं सोचता हूँ ..मुझे भी हो आना चाहिए ।
' वास्तव में वहां कुछ नहीं है के जी, वहां मूलतः खाओ-पियो -मौज उडाओ संस्कृति है । वहां सब कुछ बिकता है, देह से लेकर ज्ञान अनुभव तक....चित्रकारी भी बेचने के लिए, पर्यटन भी उसकी फिल्म बेचने के लिए, मैत्री भी खबर बेचने के लिए । अब तो कोख भी बिकती है । जो बिकाऊ नहीं है वह बेकार है ।' वह कहती गयी ।' वे लोग तुम्हें कुछ नहीं दे पायेंगे.. के जी, हाँ तुम उन्हें बहुत कुछ दे सकते हो ।
' ठीक है सुमि, पर हम निगेटिव लोगों से ही अधिक सीखते हैं । जैसे असफलताएं हमें बहुत सिखा जाती हैं बजाय सफलताओं के । नकारात्मकता का एक सकारात्मक पक्ष यह भी है कि हम इनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं ।'
वाह ! क्या बात है के जी...नकारात्मकता का भी सकारात्मक पहलू । चलो सो जाओ, सुबह बातें होंगी, फ्री टाइम में मेरीन-ड्राइव घूमना है तुम्हारे साथ, बहुत सी बातें करनी हैं ।
राजधानी एक्सप्रेस तेजी से भागी जारही थी । सामने की बर्थ पर सुमि कम्बल ओढ़ कर सोने के उपक्रम में थी और मेरी कल्पना यादों के पंख लगा कर तीस वर्ष पहले के काल में गोते लगाने लगी ।
अंक -दो
सुमित्रा कुलकर्णी, कर्नल रामदास की इकलौती पुत्री, मेडीकल कालिज में मेरी सहपाठी,बीच पार्टनर, सीट पार्टनर; सौम्य, सुन्दर, साहसी, निडर, वाकपटु, स्मार्ट, तेज-तर्रार । लगभग सभी विषयों में पारंगत; स्वतंत्र, स्पष्ट व् खुले विचारों वाली, वर्तमान में जीने वाली, मेरी परम मित्र। हमारी प्रथम मुलाक़ात कुछ यूं हुई ।
चिकित्सा महाविद्यालय में प्रथम वर्ष, रेगिंग जोर-शोर से जारी थी हम सभी नए छात्र क्लास रूम में बैठे थे , प्रोफ. सिंह के इंतजार में । अचानक द्वितीय वर्ष के सीनियर छात्र कक्ष में घुस आये और रेगिंग प्रारम्भ । आदेश हुआ --सभी लडके जल्दी से अपनी क्लास की न. १ से लेकर न. १० तक ब्यूटी-टापर्स लड़कियों के नाम की लिस्ट लिख कर दें । हाँ -कारण भी बताएं । जों जितनी देर करेगा उतने ही थप्पड़ों का हकदार होगा ।
अभी तक तो क्लास में लड़कों के नाम भी ठीक तरह से ज्ञात नहीं होपाये थे, लड़कियों की तो बात ही क्या । घबराहट में उपस्थिति रजिस्टर में मेरे से दो स्थान आगे सुमित्रा नाम आता था वही लिख दिया । आगे क्या होना है इसका तो किसी को ज्ञान ही कहाँ था ।
सभी कागजों को सरसरी तौर पर देखकर सीनियर छात्र ने एक कागज़ निकाल कर हंसते हुए कहा..... ' कौन है यह, सिर्फ एक ही नाम, एक मैं और एक तू ,..अच्छा, श्री कृष्ण गोपाल गर्ग जी ...आइये डाक्टर साहब , पढ़िए जोर से क्या लिखा है आपने ।'
सबको काटो तो खून नहीं । खैर, डरते-डरते मैंने सुमित्रा कुलकर्णी का नाम पढ़ा और कारण की कोई और नाम याद ही नहीं है । सारी क्लास ठहाकों से गूँज उठी । सुमित्रा ने आश्चर्य मिश्रित क्रोध से मेरी और देखा तो मैंने हाथ जोड़ दिए । क्लास में फिर ठहाके गूंजे । सजा दीगयी -परसों तक सारी लड़कियों के नाम लिख कर देने हैं और गुण भी । सोमवार ७.३० ए एम, यहीं पर ...साथ में 'डिसेक्टर' के पहले पृष्ठ को भी रट कर सुनाना है..शब्द व शब्द ।
' रेगिंग का वास्तविक उद्देश्य शिक्षकों, छात्रों, सीनियर व जूनियर साथियों , महिला-पुरुष साथियों में आपसी संवाद, विचार-विनिमय, सहृदयता, अंतरंगता का माहौल बनाना है ताकि पांच वर्ष के कठोर अध्ययन- साधना का क्रम व कठिन परिश्रम का लम्बा समय तनाव रहित व सामान्य रहे । पूरा विद्यालय एक परिवार की भाँति रहे। आपसी ताल मेल द्वारा ज्ञान, व्यवसायिक ज्ञान व व्यवहारिक ज्ञान का तालमेल बने, जो अभी तक सिर्फ पुस्तकीय -एकेडेमिक ज्ञान तक सीमित था। इसका उद्देश्य अंतर्मुखी व्यक्तित्व को बहिर्मुखी बनाना भी है । यह चिकित्सा जैसे सामाजिक -सेवा व्यवसाय क्षेत्र व व्यवहार जगत में उतरने के लिए आवश्यक है । सेवा, सौहार्द, सदाशयता सहृदयता, मानवीयता आदि भाव छात्रों के अन्दर उत्पन्न हों तथा अन्दर छिपी हुई प्रतिभा , अतिरिक्त सर्जनात्मकता को बाहर लाना भी इसका उद्देश्य है ।'......नवागंतुक छात्रों की स्वागत-समारोह या रेगिंग पार्टी के अवसर पर चिकित्सा महाविद्यालय के प्रिंसीपल -डाक्टर के सी मेहता..एम एस, ऍफ़ आर सी एस (लन्दन) ,ऍफ़ आर सी एस ( एडिनबरा )...रेगिंग पर अपना अभिभाषण प्रस्तुत करते हुए उसकी उपादेयता व आवश्यकता पर प्रकाश डाल रहे थे , जिसका जोर से करतल-ध्वनि से स्वागत किया गया ।
रेगिंग पार्टी प्रथम वर्ष के नवागंतुक छात्रों को सीनियर छात्रों द्वारा दी जाती है । तत्पश्चात रेगिंग को पूरी तरह समाप्त समझा जाता है ।फिर प्रारम्भ होती है अध्ययन-अध्यापन की कठोर साधना, लगभग प्रत्येक वरिष्ठ क्षात्रों व अध्यापकों के सहयोग से ।
जूनियर व सीनियर क्षात्रों द्वारा विभिन्न सांस्कृतिक आयोजन-कार्यक्रमों के पश्चात रात्रिभोज के साथ समारोह समाप्त हुआ तो सभी छात्र आपस में हंसी-मज़ाक के साथ-साथ आने वाले पांच वर्षों के भावी जीवन के विविध तानों-बानों के भाव -स्वप्नों में उतराते हुए चल दिए ।
मैंने चलते हुए सुमित्रा से कहा, 'सुमित्रा जी, आपका गायन वास्तव में सुन्दर था, बहुत-सुन्दर ।
'आपको नाम या होगया मेरा ?' उसने गर्दन टेडी करके पूछा ।
'एस, ऑफकोर्स ', मैंने उसे घूरते हुए पूछा , क्यों ?
कुछ नहीं , वह मुस्कुराती हुई चल दी ।
* * ** **
फिजियो-लेब में सुमित्रा मेंढक आगे बढाते हुए बोली, कृष्ण जी ये मेंढक ज़रा 'पिथ' कर देंगे ।
क्यों, क्या हुआ। मैंने हाथ आगे बढाते हुए पूछा ?
अभी ज़िंदा है, और बार-बार फिसल जाता है ।
तो क्या मरे को 'पिथ' किया जाना चाहिए ? मैंने मेंढक को पकड़ते हुए कहा, 'ब्यूटीफुल' ।
कौन? क्या ! उसने चौंक कर पूछा ।
ऑफकोर्स, मेंढक, मैंने कहा, देखो कितना सुन्दर है, है न ?
आपके जैसा है, वह चिढ कर बोली ।
मैं तुम्हें सुन्दर लगता हूँ ?
नहीं, मेंढक... वह मुस्कुराई ।
अच्छा, तभी यह इतना सुन्दर है, मैंने नहले पर दहला जड़ा । देखो इसकी सुन्दर टांगें चीन में बड़े चाव से खाई जाती हैं ।
इतनी अच्छी लगती हैं तो पैक करके रखदूं, ले जाने के लिए; उसने शरारत से कहा ।
टांगें तो तुम्हारी भी अच्छी हैं, सुन्दर ....क्या उन्हें भी.....।
शट अप, क्या बकवास है ।
जो दिख रहा है वही कहा रहा हूँ ।
हूँ ! वह पैरों की तरफ सलवार व जूते देखने लगी ।
' सब दिखता है, आर-पार, एक्स रे निगाहें होनी चाहिए ।', मैंने सीरियस होकर उसे ऊपर से नीचे तक घूरकर देखते हुए कहा । वह हड़बड़ा कर दुपट्टा सीने पर सम्हालती हुई एप्रन के बटन बंद करने लगी । मैं हंसने लगा तो सुमित्रा सर पकड़ कर स्टूल पर बैठ गयी । बोली ..
चुप करो, मेरा मेंढक बापस करो, फेल कराना है क्या ?
'लो हाज़िर है तुम्हारा मेंढक' मैंने एक कदम उसकी तरफ आगे बढ़कर मेंढक देते हुए कहा,'क़र्ज़ रहा'।
वह चुपचाप अपना प्रेक्टीकल करने लगी ।
** ** **
रात्रि के लगभग नौ बजे जब लाइब्रेरी से 'स्वच्छ व पेय जल' एवं दुग्ध की संरचना '...पर सिर मार कर बाहर आया तो सुमित्रा आगे-आगे चली जारही थी, अकेली । मैंने उसके साथ आकर चलते चलते पूछा ...'अरे! इतनी रात कहाँ से ?'
जहां से आप ।
ओह! बीच में रास्ता सुनसान है, आपको डर नहीं लगेगा, क्या हास्टल छोड़ दूं ?
अजीब हैं, डर की क्या बात है ? वह बोली ।
ओके, गुड नाईट , बाय, मैंने कहा और आगे बढ़ गया ।
'थैंक्स गाड ' जल्दी पीछा छूटा, वह बड़-बडाई ।
पर सात कदम तो चल ही लिए हैं , मैंने मुड़कर मुस्कुराते हुए कहा ।
क्या मतलब?', उसने सर उठाकर देखा ।
बाय, मैंने चलते हुए कहा ।
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स्पोर्ट्स वीक के अंतिम दिन छात्राओं के लिए 'मटका दौड़ ' व छात्रों के लिए 'गधा दौड़' का आयोजन था । लड़कियों को रंग से भरा हुआ घडा सिर पर रखकर दौड़ना था । या तो भीगने के डर से धीरे धीरे चलकर रेस हार जाएँ, या तेजी से दौड़कर सारे कपडे रंग से भिगोलें । कपडे भी सफ़ेद ही होने चाहिए ।
सुमित्रा तेजी से दौड़कर यथास्थान पहुँची तो कपडे पूरी तरह से लाल रंग से सराबोर थे और शरीर से चिपक कर रह गए थे । चेहरा पूरी तरह से लाल रंग से रंगा हुआ था। कम या अधिक सभी लड़कियों का यही हाल था मानो हरे, पीले, लाल रंग में डुबकी लगा कर आयी हों । कुछ तो बीच में ही घडा फैंक कर भाग खड़ी हुईं । मैंने अचानक सुमित्रा के सामने आकर कहा , ' क्या जीतने के चक्कर में पूरा भीगने के आवश्यकता थी ?'
वह अचकचा गयी, फिर बोली, आप क्या जानें ...इस तरह भीगने में कितना आनंद आता है, भीगने का भीगना, जीत प्रशंसा व् पुरस्कार अलग से बोनस में । दुगुने लाभ के बात है । समझे ? तन से मन से रंग जाने को जी करता है ।
और आप ही कौन से कम एक्साईटेड थे, वह कहने लगी, ' गधे को ऐसे दौड़ा रहे थे जैसे खानदानी गधा -सवारी गांठने वाले हों । और गधा भी क्या खानदानी गधा निकला -जिद्दी ..कि मैं तो ऐसे गधे के साथ नहीं दौड़ता । और न दौड़ा तो न दौड़ा ।
मैं उसे घूरकर देखने लगा तो मुस्कुराती हुई दौड़कर लड़कियों के झुण्ड में गायब होगई ।
अंक -तीन
एनाटोमी डिसेक्शन हाल की सीट पर मैंने पूछा ,' सुमित्रा जी ,सियाटिक नर्व को कहाँ से निकाला जाय , बिलकुल दिमाग से ही उतर गया है ?
है भी !, जाने क्या क्या भरे रखते हैं, दिमाग में ?
उसने हाथ से चाकू लगभग छीन कर चुपचाप चीरा लगाकर फेसिया तक खोल दिया , बोली ' आगे बढूँ या ...'
'अभी के लिए बहुत है ', मैंने कहा ,' एक दम आगे बढ़ना ठीक नहीं ...
" आपने चिलमन ज़रा सरका दिया ,
हमने जीने का सहारा पालिया ।"
वह चुपचाप अपना प्रेक्टिकल करती रही । बाहर आकर बोली ,' कृष्ण जी उधार बराबर ।'
'और सूद!', मैंने कहा ।
'सूद' वह आश्चर्य से देखने लगी !
' वणिक पुत्र हूँ ना ।'
' क्या सूद चाहिए ?' वह सोचती हुई बोली ।
'हुम sss.... चलो दोस्ती करलें, मैंने कहा ।
ओह ! वह सीने पर हाथ रखकर निश्वांस छोड़ती हुई बोली , ' ठीक है, मेरा तो नाम ही सुमित्रा है, सुखद-सुहाने मित्रों वाली, स्वयं अच्छी मित्र है जो, जो मित्र बनाती है तो बनाती है; नहीं तो नहीं ।'
निभाती भी है ?, मैंने कहा ।
' इट डिपेंड्स'...जो जिस लायक हो । सात कदम तो चल ही लिए हैं, वह मुस्कुराकर कहने लगी ।
'चलो काफी होजाय ' मैंने आमंत्रण दे डाला ।
काफी टेबल पर बैठकर मैंने उसका हाथ छुआ तो प्रश्नवाचक नज़रों से देख कर बोली ,' उंगली पकड़कर हाथ पकड़ना चाहते हैं ? इसे तो आप नहीं लगते मिस्टर .....।
' कृष्ण गोपाल ', मैंने कहा ।
'पता है, किसी भ्रम या उम्मीद में मत रहना । आशाएं विष की पुड़ियाँ होती हैं, कष्टदायी, बचे रहना ।
सुमित्रा जी, हमारा भी कुछ आत्म- सम्मान है । वैसे भी मैं नारी-सम्मान व पुरुष-सम्मान दोनों को ही समान महत्व देता हूँ । नारी का हर रूप मेरे लिए सम्मान जनक है । मैं 'नारी तुम केवल श्रृद्धा हो ' के साथ साथ आत्मसम्मान, विश्वास से भरपूर मर्यादित नारी की, पुरुष के कंधे से कन्धा मिला कर चलती हुई नारी की छवि का कायल हूँ । जब तक तुम स्वयं नहीं चाहोगी, मैं कुछ नहीं चाहूंगा ।
वाह ! क्या बात है । हम खुश हुए । वह वरद-हस्त मुद्रा में मुस्कुराई ।
सच सुमित्रा, यदि शिक्षा व स्त्री-शिक्षा के इतने प्रचार-प्रसार के पश्चात् भी शोषण व उत्प्रीणन जारी रहे तो क्या लाभ ? मैं बातें नहीं, कर्म पर विश्वास करता हूँ, परन्तु यथातथ्य विचारोपरांत । यह शोषण-उत्प्रीणन चक्र अब रुकना ही चाहिए । पर जब तक नारी स्वयं आगे नहीं आयेगी, क्या होगा ? नारी-शोषण में कुछ नारियां ही तो भूमिका में होती हैं । आखिर हेलन या बैजयंतीमाला को कौन विवश करता है अर्धनग्न नृत्य के लिए ? चंद पैसे । क्या आगे चलकर कमाई का यह ज़रिया वैश्यावृत्ति का नया अवतार नहीं बन सकता ।'
आखिर नारी क्या चाहती है ? नारी स्वातंत्र्य का क्या अर्थ हो ? मेरे विचार में स्त्री को भी पुरुषों की भाँति सभी कार्यों की छूट होनी चाहिए । हाँ, साथ ही सामाजिक मर्यादाएं, शास्त्र मर्यादाएं व स्वयं स्त्री सुलभ मर्यादाओं की रक्षा करते हुए स्वतंत्र जीवन का उपभोग करें । आखिर पुरुष भी तो स्वतंत्र है, परन्तु शास्त्रीय, सामाजिक व पुरुषोचि मर्यादा निभाये बगैर समाज उसे भी कब आदर देता है । वही स्त्री के लिए भी है । भारतीय समाज में प्राणी मात्र के लिए सभी स्वतन्त्रता सदा से ही हैं । हाँ, गलत लोग, गलत स्त्री तो हर समाज में सदा से होते आये हैं व रहेंगे । इससे सामाजिक संरचना थोड़े ही बुरी होजाती है ।अतः उसे कोसा जाय , यह ठीक नहीं । और 'समाज को बदल डालो' यह नारा ही अनुचित है अपितु 'स्वयं को बदलो ' नारा होना चाहिए । यही एकमात्र उपाय है आपसी समन्वय का एवं स्त्री-पुरुष, समाज-राष्ट्र की भलाई व उन्नति का ।
ब्रेवो! ब्रेवो !, वह ताली बजाती हुई बोली । पर यह भाषण तो मुझे देना चाहिए ।' और हाँ ....वह सोचती हुई बोली, ' ये शब्द व भाव तो कहीं पढ़े हुए लगते हैं ।'
" फिजाओं में भी गूंजेंगे कभी ये स्वर हमारे,
आप चाहें इन स्वरों में हम सजालें सुर तुम्हारे ।"
ठहरो, वह बोली, 'आपका पूरा नाम क्या है ?'
इतनी जल्दी भूल गयीं ? श्री कृष्ण गोपाल गर्ग ।
हूँ, शायरी, नारी विमर्श पर वही तार्किक भाव-उक्तियाँ ,कथोपकथन, कविता भी .....किसी पत्रिका में पढ़ती रही हूँ । कृष्ण गोपाल ..क्या तुम.. 'केजी' के नाम से ' नई आवाज ' में लिखते हो ? तुम 'केजी' हो !...मैं समझती थी कोई मिडिल एज का व्यक्ति होगा ।
मैं उसकी तीब्र बुद्धि का कायल होकर रह गया, और आँखों में आँखें डाल कर मुस्कुराया ।
वह हंसी, उन्मुक्त हंसी । कमीज की कालर ऊंचे करने के अंदाज़ में बोली, ' ये हम हैं, उड़ती चिडिया के पर गिन लेते हैं । तो तुम यहाँ क्या कर रहे हो ? तुम्हें किसी यूनिवर्सिटी में 'प्रोफ़ेसर आफ प्रोफेसी' होना चाहिए।'
' भई ! बातों से ही तो काम नहीं चलता न, कुछ खाने -पीने का भी तो जुगाड़ होना चाहए । फिर मेडीकल से अच्छा और क्या होसकता है, बातें की बातें , काम धंधा भी, सेवा भी ....और तुमसे जो मिलना था सिर खपाने के लिए, ताकि पूरा प्रोफ़ेसर बना जा सके ।' मैंने हंसते हुए कहा ।
' आई एम् इम्प्रेस्ड ', मैं तो केजी की फैन हूँ । बधाई, अब कोई कविता सुना ही दो ।'...वह गालों को हथेली पर रखकर, कोहनी मेज पर टिका कर श्रोता वाले अंदाज़ में बैठ गयी । मैंने सुनाया....
" मैंने सपनों में देखी थी ,
इक मधुर सलौनी सी काया ।
* *
अधखिले कमल लतिका जैसी ,
अधरों की कलियाँ खिली हुईं ।
क्या इन्हें चूम लूं यह कहते,
वह होजाती है छुई - मुई ।
* *
तुमको देखा मैंने पाया,
यह तो तुम ही थीं मधुर प्रिये ।।"
मैं आनंदानुभूति से सरावोर हो गयी हूँ केजी ! वह बोली ।
तो दोस्ती पक्की ।
हाँ ।
क्यों ?
"ज्ञान वैविध्य,बिना लाग लपेट बातें , नारी सम्मान भाव...नारी मन को छूते हैं, कृष्ण . और तुम्हें ?
"तुम्हारा आत्मविश्वास, सुलझे विचार और काव्यानुराग "..मुझे पसंद है सुमित्रा ।
" कहीं यह ' पहली नज़र में प्यार' .. का मामला तो नहीं बन रहा " , अचानक उसने सतर्क निगाहों से पूछा ।
हाँ शायद, मैंने कहा ...और तुम....?
पता नहीं, नहीं कर सकती , मजबूर हूँ । पर मित्रता से पीछे नहीं हटूंगी ।
क्यों मज़बूर हो भई ?
दिल के हाथों ..के जी, जी । तुम पहले क्यों नहीं मिले । मैं वाग्दत्ता हूँ,रमेश को बहुत प्यार करती हूं । शादी भी करूंगी ।...वह अरुणिम होते हुए चेहरे से कहती गयी ।
' ये रमेश कौन भाग्यवान है ?'
' मेरा पहला प्यार, हम एक दूसरे को बहुत चाहते हैं । दिल्ली में एमबीबीएस कर रहा है ।', उसने पर्स में से फोटो निकाल कर दिखाते हुए कहा, ' बहुत प्यारा इंसान है'।
'और मैं....?
"तुम...!...तुम...." वह जैसे ख्यालों से बाहर आती हुई बोली, 'तुम...तुम हो..अप्रतिम...बौद्धिक सखा...राधा के श्याम ...और मैं तुम्हारी काव्यानुरागिनी, समझे..।' वह सिर से सिर टकराते हुए बोली ।
अब मैं आनंदानुभूति से सराबोर हूँ, सुमि !
साथ छोड़कर भागोगे तो नहीं ?
नहीं.....
" हम तुम चाहे मिल पायं नहीं ,
जीवन में न तेरा साथ रहे ।
मैं यादों का मधुमास बनूँ ,
जो प्रतिपल तेरे साथ रहे ।।"
तो क्या देवदास बन जाओगे ? वह हंसी ।
क्या मैं इतना मूर्ख लगता हूँ ?........
" छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए ,
यह मुनासिव नहीं आदमी के लिए ।"
यह भी तो प्रेम का ही एक भाव है, सुमि ! एक उत्कृष्ट रूप में, मीरा व राधा का भी तो प्रेम था । यह पराकाष्ठा है प्रेम की । प्रेम को भौतिक रूप में पा लेना कोई इतनी बड़ी बात या उपलब्धि नहीं है, न उससे आपको कोई असाधारण सामाजिक, भावनात्मक या आध्यात्मिक प्राप्ति ही होती है जिसके लिए सारे बंधन, पारवारिक, सामाजिक मर्यादाएं, नैतिकता की सीमाएं तोडी जायं । तमाम कष्ट उठाकर कैरियर दांव पर लगाकर समाज के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न किया जाय । हाँ, प्राप्ति के अहं की तुष्टि अवश्य होती है । यह अशरीरी प्रेम एक उत्कृष्ट भाव है, परकीया होते हुए भी व्यक्ति को जीवन भर प्रफुल्लित रख सकता है, भक्त -भगवान के भाव की तरह ।
तुम्ही कह सकते हो यह सब, केजी '। सुमि भावुक होकर कहती गयी। सच है, 'फ्रेंडशिप सदा रहती है रिलेशनशिप नहीं ।' मित्रता चिरजीवी होती है........
" मन से तो मितवा हम होगये हैं तेरे
क्या ये काफी नहीं है तुम्हारे लिए ।
दोस्ती ऊंची मन की बहुत प्यार से,
मन की दुनिया है सब कुछ हमारे लिए ।"
मेरी कविता कैसी है, महाकवि केजी ।
आखिर शिष्या किसकी बनी हो, अच्छा चलो अब बताओ राधा व मीरा में कौन श्रेष्ठ है। तुम्हारा क्या ख्याल है ?
बाप रे ! घुमा फिराकर इतना टेड़ा सवाल ? अपनी तरह । दोनों ही श्रेष्ठता की सीमाएं हैं । तुम्हारी ही बात को आगे बढाती हूँ ....'.राधा -प्रेम व विरह दोनों का भाव है, मीरा सिर्फ दरद-दिवाणी है, प्रेम दिवानी है । राधा ने सब कुछ पाया फिर त्यागा । वह त्याग की महानता व पराकाष्ठा है । तभी राधा देवी स्वरूपा होपाई । मीरा बगैर पाए ही प्रेम दीवानी है, दर्द-दीवानी है । पाने का सुख जाने बिना विरह एक अन्य भाव है, भक्ति भाव है । परन्तु पाने के बाद छोड़ने का त्याग -विरह एक अनन्य भाव है । मीरा मानवी ही है ।'
' क्या विश्व में, सभ्यता के किसी दौर में, काव्य में, समाज व इतिहास में ...राधा जैसा चरित्र देखा-सुना है । कहीं एसा हुआ है कि परकीया नायिका, प्रेमिका को आदर ही नहीं अपितु देवी स्वरुप में प्रतिष्ठित किया गया हो । यहाँ तक कि पत्नी के स्थान पर देवता के साथ प्रेमिका को पूजा गया हो । यह सात्विक प्रेम की ही कहानी है ।'
'तो तुम राधा बनना चाहती हो !'
चाहने से क्या होता है, केजी । परिस्थितियाँ ही नियति बनकर व्यक्ति को भवितव्य की ओर धकेलती हैं तथा भविष्य तय करती हैं। हाँ, व्यक्ति की स्वयं की दृड़ता जो आदर्शों, विचारों, कुल व समाज की स्थिति से बनती है इसमें बहुत प्रभाव डालती है ।
' मैं समझ रही हूँ, तुम यह बात क्यों छेड़ रहे हो । तुम क्या कहलाना चाहते हो । परिस्थिति व नियति वश ही मैंने रमेश से प्रेम किया है, शादी का भी इरादा है । आज यद्यपि इस बदली हुई परिस्थित में मैं तुमको भी पसंद करती हूँ, बदल भी सकती हूँ, तुमसे भी विवाह कर सकती हूँ । परन्तु तुम्हारे ही अनुसार प्रेम में प्रिय को प्राप्त कर लेना उतना महत्वपूर्ण नहीं है कि बहुत सारे अवांछित पापड बेले जायं । यदि मैं तुम्हें प्रेम करते हुए भी ..रमेश से प्रेम विवाह करती हूँ तो क्या मेरे प्रेम की, मित्रता की महत्ता कम होती है ? मैं तो राधा भी हूँ, मीरा भी ......। संतुष्ट हो ।'
' जी '
'और कुछ पूछना है ?'
'नहीं जी '
' व्हाट द हेल '.... ये जी.. जी क्या लगा रखी है ? ' वह नाराज़गी से देखने लगी ।
' अब राधा और मीरा से तो सम्मान से ही पेश आना पडेगा न ।'
' धत...यू......।'
' वैसे सीता के बारे में आपकी राय ....।
फिर कभी, अब निकलो यहाँ से, नहीं तो मार खाजाओगे । वह मुझे लगभग धकेलती हुई चल दी ।
** ** **
छात्र संघ के चुनावों में सचिव, सांस्कृतिक प्रकोष्ठ के पद के लिए सुमित्रा को प्रत्याशी बनाया गया । सभी छात्र प्रत्याशी, तरह तरह के प्रचार कार्ड बनवाकर छात्रों में बाँटते थे । अपने अपने नवीन विचारों, भावों को प्रचार कार्ड के पीछे लिखा जाता था । सुमित्रा प्रसन्न मना व प्रसन्ना बदना दौड़ती हुई आयीं ।
कृष्ण ! कोई नया आइडिया सोचा जाय, एक दम नवीन । ये सारे कार्ड तो पढ़ कर फैंक दिए जाते हैं । मैं चाहती हूँ एसा कार्ड बने जो फैंका न जा सके, प्रिज़र्व करने लायक हो ।
'क्या अभी से अमर होने का प्रयास है ।' मैंने कहा तो वह गंभीर होकर मुझे देखती रह गयी ।
'मैंने कहा, एक 'बुक-मार्क' के आकार का कार्ड बनाओ और उसके पृष्ठ पर किसी इसी अच्छे चिकित्सा विषय की संक्षिप्त गाथा लिख दो कि सब पढ़ें । देखना तुम सालों साल पुस्तकों में प्रिज़र्व रहोगी ।' मैंने सुझाव दिया ।
सुपर्व..'.मुझे पता था, तुम्हारे पास हर प्रश्न का तुरंत रेडीमेड उत्तर अवश्य रहता है ।' सुमि ने प्रशंसापूर्वक सर हिलाते हुए कहा ।
दूसरे दिन सुमित्रा ने अपने प्रचार-पत्र का प्रारूप लाकर दिखाया । पुस्तक-चिन्ह के रूप में कार्ड के पीछे " श्रवण-पथ " का संक्षिप्त किन्तु पूर्ण व सारगर्भित वर्णन था ......
हीयरिंग पाथ वे ( श्रवण-पथ )
' स्टीरियोफोनिक' ( सम्मिश्र ) ध्वनियाँ सुनने के लिए मानव को दो कान दिए गए हैं, इसी कारण दिशा निर्धारण भी सुगम होता है । 'पिन्ना' (बाहरी कान ) ध्वनि को केन्द्रित करते हैं तथा यूस्टेकीयन ट्यूब (कर्ण नलिका ) की तरफ भेजते है । ध्वनि-श्रोत ( साउंड ) के समीप की वायु में मशीनी ऊर्जा रूपी तरंगें उत्पन्न होती हैं जो कर्ण-नलिका में प्रवेश करके टिम्पेनम या ईयर-ड्रम ( कान का पर्दा ) को कम्पन देती हैं । ये कम्पन मध्य-कर्ण स्थित तीन छोटी-छोटी अस्थियों --इन्कस, मेलियस, स्टेपीज़ ...द्वारा आतंरिक कर्ण स्थित ' काक्लिया' को कम्पित करती हैं । यहाँ पर कम्पनों की मशीनी ऊर्जा...विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित होकर श्रवण तंत्रिका ( आठवीं केन्द्रीय तंत्रिका नाडी ) के तंतुओं को विद्युत्-प्रवाह सन्देश देती हैं जहां से वे विद्युत-धारा के रूप में ' काक्लियर-केन्द्रक ' होते हुए ' मेड्यूला ' के 'सुपीरियर ओलिवरी काम्प्लेक्स ' पहुँच कर दोनों तरफ के कानों की सूचनाओं का आदान-प्रदान करते हैं ताकि ताल-मेल बना रहे । वहां से ' लेटरल लेमिनिस्कस ' होते हुए सन्देश 'मध्य मस्तिष्क' के 'इन्फीरियर कौलीकस' पहुंचते हैं, जहां पुनः दोनों ओर के कानों के स्नायु ( नर्व-तंतु) -क्रास ओवर होते हैं और अंत में 'मीडियल केलीकुलस' होते हुए ये संवेदन ध्वनि विद्युत् -प्रवाह 'उच्च-मस्तिष्क' ( सेरीब्रम ) के 'टेम्पोरल लोब' के 'एकोस्टिक एरिया' ( श्रवण-क्षेत्र ) पहुंचते हैं ; जहां विद्युत्-रासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा इन संवेदी सूचनाओं का विश्लेषण करके उचित उत्तर व आदेश प्रेषित होते हैं और हम सुनते हैं व प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं ।"
'एक्सीलेंट, सुपर्व, सिम्पली मार्वेलस। यू आर जीनियस सुमि ! ।' क्या आइडिया है । यह तुम्हारा प्रचार-पत्र, बुक-मार्क सालों साल चिकित्सा-विद्यालय के मन-मानस में, डाक्टरों-छात्रों के साथ अमर बन कर रहेगा ।
यह आशीर्वाद है ! वह मुस्कुराई, 'किन्तु मूल आइडिया तो तुम्हारा ही था ।', सुमि ने कहा ।
'पर क्रिया रूप में परिणत न होने पर शायद व्यर्थ ही रहता ।' मैंने प्रशंसात्मक नज़रों से कहा, 'बधाई'।
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अंक चार
" प्रेम होना या करना एक अलग बात है वह व्यक्ति के वश में नहीं है । अपने प्यार को प्राप्त कर लेना, प्रेमी से प्रेम-विवाह एक सौभाग्य की बात है । परन्तु एक अन्य पक्ष यह भी है कि प्रेम को भौतिक रूप में पा लेना या प्रेम विवाह कोई इतना महत्वपूर्ण व आवश्यक भी नहीं है कि उसके लिए संसार में सब कुछ त्यागा जाय । माता-पिता, रिश्ते-नाते, समाज, मान्यताएं, मर्यादाएं, बंधन व नैतिकता की सीमाएं तोडी जायं । अपना सारा केरियर दांव पर लगाया जाय । यह इतनी बड़ी उपलब्धि भी नहीं है कि प्राण त्यागने को भी प्रस्तुत रहा जाय, जो ईश्वरीय देन है । क्योंकि ' आत्म एव यह जगत है ' वस्तुतः हम प्रत्येक कार्य सिर्फ स्वयं के लिए ही करते हैं । परमार्थ में भी आत्म-सुख का भाव छुपा रहता है । सभी बंधन, सहयोग भी आत्मार्थ से ही जुड़े रहते हैं। हम देंगे तभी मिलेगा भी आत्मार्थ भाव ही है । अतः सिर्फ प्रेम-विवाह की जिद में सारा केरियर, सांसारिक सम्बन्ध यहाँ तक कि जीवन भी खोना पड़ता है तो शायद यह बहुत अधिक मूल्य है । संसार में ऐसी कौन सी प्रेम-कथा है जो इस तरह के सम्बन्ध में परिणत होकर उन्नत शिखर पर पहुँची हो, या जो सुखान्त हो एवं जिससे देश व समाज या व्यक्ति स्वयं उन्नत हुआ हो ।"
" प्रायः कहा जाता है कि महिलायें भावुक होती हैं । परन्तु यह सर्वदा सत्य नहीं है । वैदिक विज्ञान के अनुसार . पराशक्ति -पुरुष सिर्फ भाव रूप में शरीर या किसी पदार्थ में प्रविष्ट होता है जबकि अपरा-शक्ति नारी, प्रकृति, माया, शक्ति या ऊर्जा रूप है जो पदार्थों व शरीर के भौतिक रूप का निर्माण करती है । अतः पुरुष भाव-रूप होने से अधिक भावुक होते हैं, स्त्रियाँ इसका लाभ उठा पाती हैं ।"
' एक्सीलेंट , न्यू आइडियाज़ , नेवर हार्ड ऑफ़ '...एक दम नवीन विचार हैं, पहले कभी नहीं सुने गए ।
' स्टूडेंट कल्चुरल असोसिएशन ' के तत्वावधान में आयोजित वाद- विवाद प्रतियोगिता में " नारी-जागरण के सन्दर्भ में प्रेम, प्रेम-विवाह के बढ़ते चरण व नारी-पुरुष समानता " विषय पर मेरे द्वारा व्यक्त किये गए विचारों के उपरांत साथ में बैठे विनोद ने उपरोक्त वाक्य हाथ मिलाते हुए कहे ।
थैंक्स, मैं मुस्कुराया ।
क्या ये आपके ओरिजिनल विचार हैं ? अचानक पीछे की सीट पर बैठी हुई कुमुद नागर ने पूछा ।
ऑफकोर्स, मैंने हैरानी से कहा ।
' ओह माई गाड!' ..वह स्वयं ही बोली ।
क्या हुआ!
नथिंग ।
ठीक तो हो, मैंने पूछा ।
हाँ, मैं चलती हूँ ।
कुमुद की बगल में बैठी हुई सुमित्रा ने मेरी और देखा । फिर मुस्कुराकर बोली, 'फेंटास्टिक' , क्या बात है। ये उम्र और ये ऊंची ऊंची बातें कहाँ से सीखते हो ?
'पढो..पढो..और पढो । चिंतन-मनन करो, प्रत्येक बात पर ।' मैंने हंसते हुए कहा ।
मैं नहीं समझती किसी के पल्ले कुछ ख़ास पडा होगा । अधिकाँश के तो सिर के ऊपर से निकल गया होगा । ऊंची चीज़ है न ?
' क्या खींचने को कोई और नहीं मिला ?'
' मिले तो बहुत पर तुम जैसा नहीं ।'
जाओ, अपना भाषण पढो । बुलाया जारहा है, देखें क्या तीर चलाती हो ।
" स्त्री -पुरुष समानता का क्या अर्थ है ? ", सुमित्रा ने अपना वक्तव्य प्रारम्भ किया , " अपने कर्तव्यों और मर्यादाओं की सीमा में रहते हुए, स्त्री-पुरुष एक दूसरे का आदर करें । यदि पुरुषों का एक अलग संसार है तो नारी का भी एक 'स्व' का संसार है । कला, साहित्य, संगीत, गृहकार्य, सामाजिक-सांस्कृतिक सुरक्षा दायित्व में तो वे पुरुषों से आगे रहती ही हैं ।"
" स्त्री स्वतन्त्रता होनी ही चाहिए , पर क्या पुरुष से स्वतंत्रता ? या अपने सहज कार्यों से ?...नहीं न । तो स्त्री-जागरण व स्वतंत्रता का क्या अर्थ हो ? पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर समाज, देश व धर्म-संस्कृति के कार्यों में सामान रूप से भाग लेना । स्त्री स्वतन्त्रता सिर्फ पुरुषों के साथ कार्य करना, पुरुषों की नक़ल करना, पुरुषों की भाँति पेंट-शर्ट पहन लेना भर नहीं है । क्या कभी पुरुष..पायल, बिछुआ, कंकण, ब्रा आदि पहनते हैं ? सिन्दूर लगाते हैं । क्या कोई महिला पुरुषों के साथ नहाने-धोने, कपडे बदलने में सहज रह सकती है ? तो क्यों हम पुरुषों की नक़ल करें ? समानता होनी चाहिए , अधिकारों व कर्तव्यों के पालन में । एक व्यक्तित्व को दूसरे व्यक्तित्व को सहज रूप से आदर व समानता देनी चाहिए ।"
'एक्सीलेंट,बहुत खूब', सभी के सराहना के स्वर समवेत स्वर में हाल में गूँज उठे । हाल से बाहर निकलते हुए मैंने प्रशंसा के स्वर में कहा , ' रीयली एक्सीलेंट सुमि! जीनियस'..और स्त्री-पुरुष संबंधों पर तुम्हारे क्या विचार हैं ?
सुमि जोश में थी बोली, 'मैं समझती हूँ प्रत्येक व्यक्तित्व को एक मित्र, राजदार, भागीदार की आवश्यकता होती है। व्यक्ति अकेला कुछ नहीं होता । हम इसलिए हम हैं कि अन्य हमें वह मानते हैं, समझते हैं । ईश्वर तभी ईश्वर है जब भक्त उसे मानता व पूजता है। हाँ उसे स्वयं को उस स्तर तक उठाना चाहिए। सखियाँ तो सदा बचपन से होती ही हैं, परन्तु महिला मित्रों से केवल आधी दुनिया को जानने की संतुष्टि होती है। शेष आधी दुनिया जो पुरुषों की है उसे जाने बिना आत्म-तत्व की पूर्ण संतुष्टि नहीं होती । इसीलिये एक वय के उपरांत पुरुष मित्र भाने लगते हैं । यही बात पुरुषों के साथ भी है । यद्यपि इसमें हमारे शरीर-विज्ञान की मान्यताएं भी पार्ट-प्ले करती हैं । इसलिए महिलायें पति में सच्चा मित्र देखना चाहती हैं । पति तो कोई भी हो सकता है, परन्तु यदि सच्चा मित्र पति हो तो क्या कहना । और पति यदि सच्चा मित्र बन जाय तो दुनिया सुखद-सुहानी रहे । अतः पुरुषों को सच्चा मित्र पहले होना चाहिए । वैसे पुरुष की जो 'सृष्टिगत अहं या ईगो' है उसके कारण वह सदैव नारी का सुरक्षा कवच बनना चाहता है । नारी को भी यह अच्छा लगता है, क्योंकि इससे 'शक्ति' का अहं तुष्ट होता है । भाई, पिता, पुत्र , पति , मित्र..सभी में यह सुरक्षा कवच बनने का भाव होता है । यह जेनेटिक, संस्कारगत होता है। बस, जब पुरुष में किसी कारणवश हीन- भावना आ जाती है तभी वह केवल पति या मालिक होने का व्यवहार करके अपने अहं की तुष्टि करता है जो अति के रूप में अत्याचार-उत्प्रीणन में परिवर्तित हो जाता है। हाँ, कुछ उदाहरणों में यह नारी के सन्दर्भ में भी घटित होता है।"
' यूं आल्सो हैव एक्सीलेंट न्यू आइडियाज़ नैवर हार्ड ऑफ़ '...अचानक पीछे से विनोद की आवाज़ आई और साथ में तालियाँ ।
** ** **
अगले दिन लाइब्रेरी के सामने सुमित्रा को एक सीनियर छात्र डा नारंग से बात करते हुए देखा । मुझे देखते ही वह मुस्कुराकर माथे पर बल डालते हुए चली आयी ।
' भई, डा नारंग क्या गुरुमंत्र देरहे थे ?' मैंने हंसते हुए पूछा ।
ही....ही....ही.....वह हंसते हुए बोली , 'प्रशंसा कर रहे थे कि क्या भाषण दिया है, क्या मार्के की बात कहती हो ।' चलो काफी पिलायें ।
फिर...?
' मैंने कहा, कृष्ण मेरे इंतज़ार में है आप चलिए मैं उसे लेकर आती हूँ ।' ....ही...ही ... ही .... वह हंसने लगी ।
फिर क्या बोले ...!
' तेरे से कौन टक्कर ले, रे त्रिभंगी ! '
व्हाट ! ये कौन सी भाषा है ? ये उन्होंने कहा ।
'दैया रे दैया, अपनी ही बोली-बानी भुलाय दई, रे नटवर ! नगर में आय कै।'......ही .ही.... ही ......ही..... ही ... जैसे उसे हंसी का दौरा पड़ गया हो ।
अब कहो भी, क्या भीड़ इकट्ठा करने का इरादा है ।
' क्या कहूं ? ' वह हंसते हंसते वोली, ' फिर कभी कह कर फूट लिए ।'
भई उनका भी दिल रखलेना चाहिए था ।
'दिल से कह रहे हो?', फिर किस किस का दिल रखती रहूँगी, क्यों पचड़े में पडूँ ।' हाँ तुम बताओ ये क्या होगया है तुम्हें ?
अब मुझे क्या हुआ ?
कुमुद से तुमने क्या उलटा-सीधा कह दिया ?
अरे हाँ, उसे अचानक क्या हुआ था, अब ठीक है ?
'ठीक तो है महाज्ञानी जी,परन्तु तुमने उसे बहुत निराश कर दिया ।'
क्यों? मैंने क्या किया? जो कुछ कहा था तुम्हारे सामने ही तो कहा था,और उससे उसे क्या |
अरे बावा ! वह तुम पर लाइन मार रही थी ।' चाहती थी ।
'तो अब ?'
तुम्हारी बातें सुन कर सहम गयी । बोली, 'बड़े विचित्र विचारों वाला निर्मोही व नीरस व्यक्ति है।'
मैं हंसने लगा, 'चाहत बड़ी गहरी और ऊंची शय है' , है न सुमि ? 'जो इतनी जल्दी उतर जाय वह चाहत ही क्या । जो चंद बातों से घबरा जायं वो क्या जानें चाहत क्या है ।'
हूँ, सो तो है । सुमि ने सीरियस होकर सिर हिलाया ।
** ** **
छुट्टियों के बाद सुमित्रा जब दिल्ली से लौट कर आई तो कुछ उदास व चुप चुप थी। मैंने पूछा,
' क्या बात है, क्या किसी से लड़कर आई हो ? '
' नहीं भई ।', सुमित्रा बोली ।
'तो फिर क्या बात है ?'
सुमि चुप रही तो सुमन उपाध्याय ने बताया । कृष्ण जी, वो श्रुति की डेथ हो गयी है न ।
कौन श्रुति ? मैंने पूछा ।
केजी, भूल गए। अपने साथ फर्स्ट ईयर में एक लड़की थी श्रुति, जिसने बाद में दिल्ली मेडीकल कालिज में ट्रांसफर करा लिया था ।
अच्छा, वो एक दम गोरी, सुन्दर सी गोल-मटोल लड़की जो किसी आईऐएस की बेटी थी ।
हाँ, हाँ वही, उसकी मृत्यु होगई ।
कैसे ?
उसे 'पिट्यूटरी ट्यूमर' होगया था न, इसीलिये तो दिल्ली ट्रांसफर कराया था । पिछली बार अचानक मुलाक़ात हुई थी । वह 'स्टीरोइड' पर थी। आपरेट भी किया गया था। परसों ही बह चल बसी। 'सुमि ने बताया।'
'रियली सैड' तभी वह इतनी सुन्दर गोल-मटोल थी ।'
' हाँ, मेरी रूम-पार्टनर थी न' , सुमि डबडबाई आँखों से बोली , ' खूब हंसमुख व खूब बोलने वाली ।'
चलो काफी लेलो, जी ठीक होजायगा ।' मैंने कहा ।
नहीं मन नहीं है, मैं चलती हूँ ।
ठीक है, टेक केयर, ईश्वर की मर्जी । मैंने कन्धों पर हाथ रखते हुए कहा ।
वह सिर हिलाते हुए जबरदस्ती मुस्कुराई और सुमन के साथ चली गयी ।
--...क्रमश: ......अगली पोस्ट में .....
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धन्यवाद प्रसन्न जी....आभार ..
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