बुधवार, 16 मार्च 2011

-- शूर्पणखा काव्य उपन्यास सर्ग-एक-चित्रकूट व सर्ग दो-अरण्य पथ . -डा श्याम गुप्त ...




   - नारी विमर्श पर अगीत विधा खंड काव्य .....रचयिता - शूर्पणखा काव्य उपन्यास-डा श्याम गुप्त  
                                
                                 विषय व भाव भूमि
              स्त्री -विमर्श  व नारी उन्नयन के  महत्वपूर्ण युग में आज जहां नारी विभिन्न क्षेत्रों में पुरुषों से कंधा मिलाकर चलती जारही है और समाज के प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति की  ओर उन्मुख है , वहीं स्त्री उन्मुक्तता व स्वच्छंद आचरण  के कारण समाज में उत्पन्न विक्षोभ व असंस्कारिता के प्रश्न भी सिर उठाने लगे हैं |
             गीता में कहा है कि .."स्त्रीषु दुष्टासु जायते वर्णसंकर ..." वास्तव में नारी का प्रदूषण व गलत राह अपनाना किसी भी समाज के पतन का कारण होता  है |इतिहास गवाह है कि बड़े बड़े युद्ध , बर्बादी,नारी के कारण ही हुए हैं , विभिन्न धर्मों के प्रवाह भी नारी के कारण ही रुके हैं | परन्तु अपनी विशिष्ट क्षमता व संरचना के कारण पुरुष सदैव ही समाज में मुख्य भूमिका में रहता आया है | अतः नारी के आदर्श, प्रतिष्ठा या पतन में पुरुष का महत्त्वपूर्ण हाथ होता है | जब पुरुष स्वयं  अपने आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक, धार्मिक व नैतिक कर्तव्य से च्युत होजाता है तो अन्याय-अनाचार , स्त्री-पुरुष दुराचरण,पुनः अनाचार-अत्याचार का दुष्चक्र चलने लगता है|
                 समय के जो कुछ कुपात्र उदाहरण हैं उनके जीवन-व्यवहार,मानवीय भूलों व कमजोरियों के साथ तत्कालीन समाज की भी जो परिस्थिति वश भूलें हुईं जिनके कारण वे कुपात्र बने , यदि उन विभन्न कारणों व परिस्थितियों का सामाजिक व वैज्ञानिक आधार पर विश्लेषण किया जाय तो वे मानवीय भूलें जिन पर मानव का वश चलता है उनका निराकरण करके बुराई का मार्ग कम व अच्छाई की राह प्रशस्त की जा सकती है | इसी से मानव प्रगति का रास्ता बनता है | यही बिचार बिंदु इस कृति 'शूर्पणखा' के प्रणयन का उद्देश्य है |
                   स्त्री के नैतिक पतन में समाज, देश, राष्ट्र,संस्कृति व समस्त मानवता के पतन की गाथा निहित रहती है | स्त्री के नैतिक पतन में पुरुषों, परिवार,समाज एवं स्वयं स्त्री-पुरुष के नैतिक बल की कमी की क्या क्या भूमिकाएं  होती हैं? कोई क्यों बुरा बन जाता है ? स्वयं स्त्री, पुरुष, समाज, राज्य व धर्म के क्या कर्तव्य हैं ताकि नैतिकता एवं सामाजिक समन्वयता बनी रहे , बुराई कम हो | स्त्री शिक्षा का क्या महत्त्व है? इन्ही सब यक्ष प्रश्नों के विश्लेषणात्मक व व्याख्यात्मक तथ्य प्रस्तुत करती है यह कृति  "शूर्पणखा" ; जिसकी नायिका   राम कथा के  दो महत्वपूर्ण व निर्णायक पात्रों  व खल नायिकाओं में से एक है , महानायक रावण की भगिनी --शूर्पणखा | अगीत विधा के षटपदी छंदों में निबद्ध यह कृति-वन्दना,विनय व पूर्वा पर शीर्षकों के साथ  ९ सर्गों में रचित है |
 प्रस्तुत सर्ग -१-चित्रकूट से  इस काव्य-उपन्यास की मूल कथा प्रारम्भ होती है...महाकाव्यों व खंडकाव्यों की रीति के अनुसार मूल नायक के चरित्र को उभारने के क्रम में उसके चारों ओर की परिस्थियों ,अन्य पात्रों , स्थानों, घटनाओं के वर्णन की आवश्यकता होती है ..अतः यह कृति राम के चित्रकूट निवास व वहां की घटनाओं से प्रारम्भ होती है......कुल छंद २५ जो दो भागों में प्रस्तुत किया जायगा  --प्रस्तुत है सर्ग एक चित्रकूट का भाग एक ---छंद -१ से १२ तक ....

 १-
 प्रियजन परिजन मातु सहित सब,
सचिव , सैन्यगण और शत्रुहन; 
श्वसुर जनक के सहित सभी को,
कर अभिवादन यथायोग्य फिर;
गुरुजन गुरुतिय पद वंदन कर,
विदा भरत को किया राम ने ||
२-
सखा निषाद-राज को प्रभु ने,
विदा किया सम्मान सहित फिर |
पर्णकुटी सम्मुख बट-छाया,
सीता-अनुज सहित प्रभु बैठे;
और भरे मन बातें  करते ,
भरत के निश्छल प्रेम भाव की ||
३-
लक्षमण ! यह प्रेम भाव जग में,
सुन्दरतम, अनुपम, अतुल भाव |
जीवन-जग की सब परिभाषा,
है निहित इसी के अंतर में  |
यह प्रेम बसा है कण कण में,
इसलिए ईश  कण कण बसता ||
४-
लक्षमण बोले ,'प्रभु कण कण में,
है राम नाम की ही माया |'
जो नाम आपका एक बार,
लेता है, भव तर जाता है |
है प्रेम आपका ही प्रभुवर!
जो सरसाता है कण कण को ||
५-
पर भ्रात भरत के अतुल प्रेम,
की लक्ष्मण  कोइ परिधि नहीं |
वह निश्छल निस्पृह भ्रातृ-प्रेम,
सब सीमाओं की सीमा है  |
इस प्रेम-भाव का हे लक्ष्मण !
प्रभु स्वयं भक्त बन जाता है ||
६-
बन भक्ति, प्रेम और धर्मं-ध्वजा,
लक्ष्मण यह नेह-भक्ति जग में;
फहरेगी बन कर नाम -'भरत' |
भ्रातृ, सेव्य और  भक्ति प्रेम,
का होगा जग में नाम -भरत;
यश गाथा गायें दिग-दिगंत ||
७-
सीता बोलीं , ’लक्ष्मण तुम क्यों,
हो चुप चुप से उर में अधीर ?’
क्या भरत-प्रेम पर राम-कृपा -
से मन द्विधा के भाव भरे |
'माता मैं तो अति पुलकित मन',
लक्ष्मण बोले , पद गहि सिय के ||
८-
बड़भागी भरत,बसे उर प्रभु,
मैं अति बडभागी जो प्रभु की ; 
नित नित सेवा-सुख पाता हूँ | 
सुर मुनि व जगत को जो दुर्लभ,
सिय मातु सहित जो रघुवर की;
छवि के दर्शन नित नित पाऊँ ||
९- 
क्या भला चाह कर मुक्ति-मोक्ष,
प्रत्येक जन्म में हे माता!
इन चरणों का अनुगामी बन,
बस भक्ति मिले श्रेयस्कर है |
प्रभु-सुधा कृपा के वर्षण की,
अमृत-बूंदों का पान करूँ ||
१०-
मंदाकिनी-तट जल धारा में,
पद निरखि सिया के प्रभु पूछें -
बतलाएं प्रिये! ये पैर भला,
हम दोनों में किसके सुन्दर ?
बोलीं सिय,'भव्य चरण प्रभु के'-
इन चरणों से समता किसकी ||
११-
"जग-वन्दित पद जग-जननी के,
रति के भी पाँव लजाते हैं |''-
फिर भी हम कहते सत्य, नाथ !
'सुन्दर पद कमल आपके हैं ' |
विहँसे रघुनाथ न मानो तो,
तुम कहो उसी को बुलवाएँ ||
१२-
लक्ष्मण को दोनों ही प्रिय हैं,
हम दोनों के ही प्रिय लक्ष्मण |
वे सत्य-भाव से ही निर्णय ,
लेकर  के  हमें बताएँगे |
हँसि, राम बुलाये लक्ष्मण तब,
हे भ्रात ! करो निर्णय इसका ||   .......क्रमश:  चित्रकूट भाग दो....
 
---पिछले सर्ग एक- चित्रकूट  भाग एक ---छंद -१ से १२  में..सीता व राम में , किस के पैर सुन्दर हैं इस पर विवाद हो रहा था, देखिये लक्ष्मण क्या निर्णय देते है...आगे.प्रस्तुत है सर्ग-१, भाग दो...छन्द १३ से२५ तक....
१३-
पग भव्य आपके प्रभु अति ही,
जो सकल भुवन के धारक हैं।
पर नेह-जलधि प्रभु के मन की,
सिय की पद-गागरि में छलके।
पद निरखि चलें, प्रभु के पीछे,
हो सिय पद की सुषमा दुगुनी ॥
१४-
पद-पंकज युगल, राम-सीता,
उर धारण करलें,  तर जायें।
अनुगमन करे इन चरणों का,
वह पाजाता है -अमृतत्व१   |
हरषाकर तब सिय-रघुवर ने,
लक्ष्मण को बहु आशीष दिए ||
१५-
पुष्पों को चुनकर निज कर से,
भूषण  रघुवर ने बना दिए |
स्फटिक-शिला पर हो आसीन,
सिय को पहनाये प्रीति सहित |
भ्रमित हुआ ,देखी नर-लीला-
जब सुरपति-सुत उस जयंत ने ||
१६-
समझाया था भार्या ने भी ,
देवांगना२  नाम- सुकुमारी ;
रूपवती,   विदुषी  नारी थी ,
भक्तिभाव,सतब्रत अनुगामिनि |
समझ न पाया,   अहंभाव में ,
विधि इच्छा पर कब किसका वश ||
१७-
रघुवर बल की करूँ परीक्षा,
सोचा, धर कर रूप काग का ;
चौंच मारकर सिय चरणों में ,
लगा भागने, मूढ़ -अभागा |
एक सींक को चढ़ा धनुष पर,
छोड़ दिया पीछे रघुवर ने ||
१८-
देवांगना ने किया उग्र तप,
यदि में प्रभु की सत्य पुजारिन;
क्षमा करें अपराध, हरि-प्रिया,
प्रभु-द्रोह-पाप से मुक्ति मिले;
जीवन दान मिले जयंत को,
अनुपम प्रीति राम की पाऊँ ||
१९-
धरकर राधारूप३  बनी वह,
पुनर्जन्म में प्रिया-पुजारिन;
भक्ति-प्रति की एक साधना,
स्वयं ईश की जो आराधना |
सफल हुआ तप, पूर्ण कामना,
कृष्ण रूप में, राम मिले थे ||
२०-
छिपने को सारे भुवनों में,
रहा दौड़ता इधर से उधर;
पर, नारी के अपराधी को,
भला कौन और क्यों प्रश्रय दे |
नारद बोले, क्षमा करेंगे,
वे, तू है जिनका अपराधी ||
२१-
 प्रभु चरणों में लोट-लोट कर,
माँ सीता की चरण वन्दना;
करके , क्षमा-दान फिर पाया-
रघुवर से, पर बिना दंड के;
अपराधी क्यों कोई छूटे,
एक नेत्र से हीन४ कर दिया ||  
२२-
बनचारी एवं ऋषि-मुनि गण,
खग मृग मीन ग्राम-नर-नारी |
थे प्रसन्न,सिय राम लखन जो,
बसे निकट ही,  पर्णकुटी में |
जैसे,   शोभित  होते वन में,
ज्ञान भक्ति वैराग्य, रूप धर ||
२३-
 यहाँ  सभी हमको पहचाने-
यदि परिजन आते रहते हैं,
कैसा फ़िर वनवास हमारा ।
कैसे हो उद्देश्य पूर्ण फ़िर।
गहन विचार राम के मन था,
स्वगत कहा,’अब चलना होगा’॥
२४-
क्या उद्देश्य! क्या कहा प्रभु ने,
एक प्रश्न की बनी भूमिका;
लक्षमण  के मन में, आतुर हो-
प्रश्न भाव प्रभु तरफ़ निहारा।
किन्तु राम थे गहन सोच में,
चुप रहना ही था श्रेयस्कर ॥
२५-
अन्तर्द्वद्व राम के मन था,
विश्वामित्र-बशिष्ठ योजना;
माँ कैकेयी का त्याग५, सभी-
यहीं रहे तो व्यर्थ रहें सब ।
राक्षस यहां तक नहीं आते,
आगे तो जाना ही होगा६ ॥      क्रमश: अगले अंक में...सर्ग-दो..अरण्यपथ...


{कुन्जिका--१=मोक्ष, अमरता, परम ग्यान, परम-पद; २= देवांगना जयन्त की पत्नी थी, विष्णु भक्त थी, चित्रकूट में एक स्थान (गांव) देवान्गना है संभवतया वह जयंत  का राज्य रहा होगा।;३= चित्रकूट के अन्चल में यह लोक-कथा है कि देवान्गना ही अगले जन्म में राधा बनी अपनी विष्णु भक्ति व बरदान के कारण ।;४= यही कारण है इस किम्बदन्ती का कि कौए को एक आंख से ही दिखाई देता है, परन्तु वह दोनों ओर आन्तरिक-नेत्र बदल बद्ल कर देख सकता है ।; ५= कुछ मतों के अनुसार राम का वनबास...वास्तव में कैकेयी (जिसे रामकथा का एक अन्य निर्णायक स्त्री कुपात्र समझा जाता है), जो एक चतुर कूटनीतिग्य थी-वशिष्ठ व विश्वामित्र और राम की दक्षिणान्चल स्वाधीनता नीति का एक कूट उद्देश्य था। ६= चित्रकूट वस्तुतःलंकापति रावण के भारतीय अधिग्रहीत क्षेत्र व अवध क्षेत्र की सीमा पर था , उसके आगे घनघोर वन प्रदेश था-जन स्थान जो राक्षसी अत्याचारों-अनाचारों के कारण अत्यन्त पिछड चुका था। आज भी चित्रकूट स्थित गहन वन प्रदेश को देखकर उस समय की गहनता  व रमणीयता-प्राक्रतिक सौन्दर्य का अनुमान किया जासकता है।}
 
सर्ग -२..अरण्य पथ.....  

  पिछले सर्ग एक चित्रकूट में जयंत प्रसंग के पश्चात राम ने चित्रकूट छोड़कर आगे जाने का विचार बनाया ....प्रस्तुत है सर्ग -2  अरण्य पथ - इस सर्ग में राम सीता लक्ष्मण..अत्रि-अनुसूया के आश्रम में पहुंचते हैं जहां महासती अनुसूया सीता को स्त्री के कर्तव्य व पति-सेवा धर्म से परिचित कराती हैं साथ ही पुरुष के कर्तव्य व गुणों का भी वर्णन करती हैं।  कुल छन्द-- २३..इसे दो भागों में पोस्ट किया जायगा। प्रस्तुत है भाग एक--छंद १ से १३ तक.....
१-
करके फ़िर प्रवेश वन प्रान्तर,
सीता अनुज सहित रघुनन्दन ;
पहुंचे अत्रिमुनि१ के आश्रम ।
किया प्रणाम राम लक्षमण ने,
सादर मुनि निज़ कंठ लगाये;
स्वय्ं ब्रह्म आये इस द्वारे ॥
२-
सीता ने की मुदित-मगन मन,
चरण वंदना अत्रि प्रिया की ।
सीता, तुम हो अति बडभागी-
जो पाये तुम पति रघुनन्दन ।
सौभाग्य अखंड रहे तेरा,
अनुसूया२ ने आशीष दिये ॥
३-
यद्यपि तुम ज्ञानी, महासती,
कर्तव्य और अधिकार मेरा-
पर यह कहता है, हे सीता! 
नारि-धर्म, पतिव्रत कर्मों का,
तुमको कुछ तो उपदेश करूं;
पद गहे सिया ने हो विभोर ॥
४-
मां तुम स्वयं रूप ममता का,
तीनों देवों३ की  माता हो ।
तेरी चरण वंदना को तो,
स्वयं सतीत्व-भाव अकुलाता ।
महासती अनुसूया४ से, यदि-
उपदेश मिले जीवन सुधरे ॥
५-
पहनाये दिव्य बसन-भूषण५,
रहते जो नूतन, अमल सदा।
आज्ञा है मत संकोच करो,
दृढ़ता से बोलीं अनुसूया | 
सीता फिर मना न कर पायीं , 
प्रभु माया को किसने जाना ||६
६-
भ्राता मातु पिता सब सीता,
सच्चे मित्र सदा हितकारी |
पति अपना सब कुछ दे देता,
अमित मित्र,सुन जनकदुलारी |
नारि, न नारि कहाए जग में,
पति सेवा से रहे विरत जो ||
७-
है दाम्पत्य मधुर जीवन-सुख,
पर विपत्ति के घन भी छाते  |
वे दम्पति ही सुघर-सफल हैं,
जो विपदा में साथ निभाते |
परख विपत्ति काल में होती-
धीरज धर्म मित्र नारी की ||
८-
रोगी हो, या वृद्ध,मूढ़मति,
निर्धन, क्रोधी, अंगक्षीण या;
ऐसे पति का भी सुन सीता,
करे नहीं अपमान कभी भी |
यदि पति माना है मन से तो,
सेवा करना नित्य धर्म है ||
९-
मनसा वाचा और कर्मणा ,
पति सेवा रत रहना ही तो;
नारि-धर्म की परिभाषा है |
एक दूजे का साथ निभाना-
ही तो मन की अभिलाषा है ;
एक धर्म व्रत नियम यही है ||
१०-
आगम-निगम शास्त्र सब कहते,
पतिव्रत धर्म चार-विधि होते |
उत्तम,मध्यम,नीच,अधम सब,
भाव विचार कर्म व्रत मन से |
पति संग के व्यवहार-भाव नित,
जैसे भी जो नारि निभाये ||
११-
सपने में भी मन में जिसके,
अन्य पुरुष का भाव न आये;
उत्तम सो पतिव्रता कहाए |
मध्यम पतिव्रता वह नारी,
भ्राता पुत्र व पिता भाव से;
देखे सदा पर-पुरुष को जो ||
१२-
मन में धर्म समझ, कुल लाजा,
जो नारि पतिव्रता बनी रहें ;
वह भाव पतिव्रता है निकृष्ट |
भय कारण या अवसर न मिले,
इसलिए बनीं जो भली रहें;
वह नारी का अधम भाव है ||
१३-
पति से अन्य, पर-पुरुष के संग,
घूमें फिरें करें  रति, गति,व्यति |
क्षण भर के सुख-भ्रम के कारण,
जन्मान्तर के दुःख-पाप सहें |
युग युग तक वे नारी, सीता!
भोगें अति रौरव नर्क-भाव ||   

  {कुंजिका - १= अत्रि मुनि जो आदि-सप्तर्षियों में प्रमुख स्थान रखते हैं , जिनका आश्रम चित्रकूट के गहन वन की सीमा पर था | ये ऋग्वेद के रचनाकार  ऋषि हैं | अत्रि के पुत्र आत्रेय प्रथम भिषजकचिकित्सक (फिजीसियन ) थे जिन्होंने  विश्व के प्रथम चिकित्सा ग्रन्थ, चरक संहिता  की मूल रचना की थी जिसे बाद में आचार्य चरक ने  संहिता रूप दिया |; २= अनुसूया -अत्रि की पत्नी ; ३ = अनुसोया के पतिव्रत-शक्ति के कारण परिक्षा लेने आये तीनों देव -ब्रह्मा, विष्णु, महेश --छोटे बालक के रूप में पुत्र  बन कर गोद में खेलने लगे.जिन्हें फिर तीनों देवियों सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती ने अनुसूया से क्षमा मांग कर स्वतंत्र कराया था ... तीनों के वरदान से महान तपस्वी "दत्तात्रेय ' का जन्म हुआ |; ४=  भारतीय इतिहास की  ५ महासतियों में प्रमुख --ये सतियाँ हैं -अनुसूया, द्रौपदी, सावित्री, सुलोचना ( मेघनाद की पत्नी ) व मंदोदरी (रावण की पत्नी )|
५=  कभी न गंदे व नष्ट होने वाले वस्त्र | ६= वास्तव में सीता जी को संकोच था की वे वन में ये बसन  व आभूषण कैसे पहनें, परन्तु अनुसूया को आगत का कुछ कुछ ज्ञान था अतः उन्होंने समझा-बुझा कर पहनादिये जो  में सीता-हरण के समय राम के लिए मार्ग-निर्धारण में काम आये |
सर्ग-२-भाग दो......


          पिछले सर्ग -2  अरण्य पथ  भाग-१ -- में सती अनुसूया द्वारा सीताजी को पतिव्रत धर्म के बारे में बताया , आगे वे पुरुष व समाज के कर्तव्य ,धर्म के बारे में भी वर्णन करती हैं की यदि समाज व पुरुष नारी का उचित सम्मान करता है तो वह उसके लिए सब कुछ करती है .....प्रस्तुत है ..सर्ग-२, अरण्य-पथ , भाग दो...छंद १४ से २३ तक...
१४ -
विना परिश्रम किये लाभ हित,
नारी ले पर-पुरुष सहारा |
है प्रतिकूल  ही धर्म भाव के,
उनके साथ सदा छल होता |
उत्तम पतिव्रत धर्म निभाकर,
नारि, परम गति पाय सहज ही ||
१५-
नारि-पुरुष में अंतर१  तो है,
सभी समझते, सदा रहेगा |
दो-नर या दो  नारी जग में,
एक सामान भला कब होते ?
भेद बना है, बना रहेगा,
भेदभाव व्यवहार नहीं हो ||
१६-
वैदेही तुम तो तनया हो,
जनक, महाज्ञानी-विदेह२की |
कौशल-महाराज्य महारानी,
पूर्ण-पुरुष रघुवर की पत्नी |
तुमको क्या पति धर्म बताना,
जग हित भाव३ मैं पुनः बखाना ||
१७-
धर्म नीति विज्ञान कर्म-शुभ,
पुनः पुनः स्मरण, श्रवण और;
ध्यान-मनन करने से बढ़ती,
मन में श्रृद्धा, कर्म भावना |
शुभ कर्मों का धर्म भाव का,
ज्ञान भाव जग बढ़ता जाता ||
१८-
सारे गुण से युक्त राम हैं ,
जो आदर्श पति में होते |
मान और सम्मान नारि का ,
पुरुष-वर्ग का धर्म है सदा|
जो पत्नी का मान रखे नहिं,
वो जग में क्यों पति कहलाये ||
१९-
पुरुष-धर्म से जो गिर जाता,
अवगुण युक्त वही पति करता;
पतिव्रत धर्म-हीन , नारी को |
अर्थ राज्य छल और दंभ हित,
नारी का प्रयोग जो करता;
वह नर कब निज धर्म निभाता ?
२०-
वह समाज जो नर-नारी को,
उचित धर्म-आदेश न देता |
राष्ट्र राज्य जो स्वार्थ नीति-हित,
प्रजा भाव हित कर्म न करता;
दुखी, अभाव-भाव नर-नारी,
भ्रष्ट, पतित होते तन मन से ||
२१-
माया-पुरुष रूप होते हैं,
नारी-नर के भाव जगत में |
इच्छा कर्म व प्रेम-शक्ति से ,
पुरुष स्वयं माया को रचता |
पुनः स्वयं ही जीव रूप धर,
माया जग में विचरण करता४ ||
२२-
माया, प्रकृति उसी जीव के,
पालन, पोषण, भोग व धारण;
के निमित्त ही गयी रचाई |
किन्तु ,जीव-अपभाव रूप में,
निजी स्वार्थ या दंभ भाव से;
करे नहीं अपमान प्रकृति का ||
२३-
तभी प्रकृति माया या नारी,
करती है सम्मान पुरुष का |
पालन पोषण औ धारण हित,
भोग्या भी वह बन जाती है|
सब कुछ देती बनी धरित्री,
शक्ति नारि माँ साथी पत्नी ||   ---क्रमश: सर्ग तीन...प्रतिज्ञा......

{कुंजिका--  १= स्त्री-पुरुष में संरचनात्मक व भावनात्मक अंतर प्रकृतिगत है अतः उनके कार्य ,गुण व कर्तव्यों आदि में भी स्वाभाविक अंतर रहेगा - स्त्री-पुरुष समता का अर्थ -समानता नहीं है अपितु यथा-योग्य कर्म व व्यबहार होता है, अत: स्त्रियों से इस तर्क पर किसी प्रकार का व्यवहार गत  भेद-भाव नहीं होना चाहिये... |;  २= जनक को विदेह कहाजाता है क्योंकि वे चक्रवर्ती सम्राट व अथाह धन-संपदा-श्री -ज्ञान से संपन्न होने पर भी निर्लिप्त भाव से रहते थे , देहाभिमान से शून्य ...वि.. देह , इसीलिये उनकी पुत्री सीता को भी वैदेही कहा जाता है |;  ३= विभिन्न इतिहास, शास्त्र, धर्म ग्रन्थ,आदि को अच्छी प्रकार जानते हुए भी पुनः पुनः पारायण इसलिए किया जाता है ताकि समाज व व्यक्ति, राष्ट्र से  विस्मृत न होजाय | सभी प्रकार के  ज्ञान के लिए यही सत्य व आवश्यक है | इसीलिये हमें स्वयं जानते हुए भी यदि कोइ अन्य गुरुजन, ज्ञानी आदि वही तथ्य बताता है तो सुन लेना चाहिए| कथा, संत समागम, कीर्तन, तीर्थस्थान-यात्रा आदि का यही महत्त्व है |; ४= वह ब्रह्म स्वयं ही माया व समस्त माया जग का उत्पादन करता है और फिर वह स्वयं ही जीव/आत्मा रूप में जीवधारी के अंतर में उपस्थित होता है ,जन्म लेता है, कर्म बंधन में बंधता है  और माया के इशारों पर माया-संसार में कर्म रूपी नाच, नाचता है |  यह भारतीय दर्शन का आत्मा व परमात्मा का अद्वैत भाव है |

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