बुधवार, 16 मार्च 2011

शूर्पणखा काव्य उपन्यास----सर्ग -३-प्रतिज्ञा- -डा श्याम गुप्त...

शूर्पणखा काव्य उपन्यास----सर्ग -३-प्रतिज्ञा- -डा श्याम गुप्त...




   -  शूर्पणखा काव्य उपन्यास-- नारी विमर्श पर अगीत विधा खंड काव्य .....रचयिता -डा श्याम गुप्त  
                                   
                      विषय व भाव भूमि
              स्त्री -विमर्श  व नारी उन्नयन के  महत्वपूर्ण युग में आज जहां नारी विभिन्न क्षेत्रों में पुरुषों से कंधा मिलाकर चलती जारही है और समाज के प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति की  ओर उन्मुख है , वहीं स्त्री उन्मुक्तता व स्वच्छंद आचरण  के कारण समाज में उत्पन्न विक्षोभ व असंस्कारिता के प्रश्न भी सिर उठाने लगे हैं |
             गीता में कहा है कि .."स्त्रीषु दुष्टासु जायते वर्णसंकर ..." वास्तव में नारी का प्रदूषण व गलत राह अपनाना किसी भी समाज के पतन का कारण होता  है |इतिहास गवाह है कि बड़े बड़े युद्ध , बर्बादी,नारी के कारण ही हुए हैं , विभिन्न धर्मों के प्रवाह भी नारी के कारण ही रुके हैं | परन्तु अपनी विशिष्ट क्षमता व संरचना के कारण पुरुष सदैव ही समाज में मुख्य भूमिका में रहता आया है | अतः नारी के आदर्श, प्रतिष्ठा या पतन में पुरुष का महत्त्वपूर्ण हाथ होता है | जब पुरुष स्वयं  अपने आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक, धार्मिक व नैतिक कर्तव्य से च्युत होजाता है तो अन्याय-अनाचार , स्त्री-पुरुष दुराचरण,पुनः अनाचार-अत्याचार का दुष्चक्र चलने लगता है|
                 समय के जो कुछ कुपात्र उदाहरण हैं उनके जीवन-व्यवहार,मानवीय भूलों व कमजोरियों के साथ तत्कालीन समाज की भी जो परिस्थिति वश भूलें हुईं जिनके कारण वे कुपात्र बने , यदि उन विभन्न कारणों व परिस्थितियों का सामाजिक व वैज्ञानिक आधार पर विश्लेषण किया जाय तो वे मानवीय भूलें जिन पर मानव का वश चलता है उनका निराकरण करके बुराई का मार्ग कम व अच्छाई की राह प्रशस्त की जा सकती है | इसी से मानव प्रगति का रास्ता बनता है | यही बिचार बिंदु इस कृति 'शूर्पणखा' के प्रणयन का उद्देश्य है |
                   स्त्री के नैतिक पतन में समाज, देश, राष्ट्र,संस्कृति व समस्त मानवता के पतन की गाथा निहित रहती है | स्त्री के नैतिक पतन में पुरुषों, परिवार,समाज एवं स्वयं स्त्री-पुरुष के नैतिक बल की कमी की क्या क्या भूमिकाएं  होती हैं? कोई क्यों बुरा बन जाता है ? स्वयं स्त्री, पुरुष, समाज, राज्य व धर्म के क्या कर्तव्य हैं ताकि नैतिकता एवं सामाजिक समन्वयता बनी रहे , बुराई कम हो | स्त्री शिक्षा का क्या महत्त्व है? इन्ही सब यक्ष प्रश्नों के विश्लेषणात्मक व व्याख्यात्मक तथ्य प्रस्तुत करती है यह कृति  "शूर्पणखा" ; जिसकी नायिका   राम कथा के  दो महत्वपूर्ण व निर्णायक पात्रों  व खल नायिकाओं में से एक है , महानायक रावण की भगिनी --शूर्पणखा | अगीत विधा के षटपदी छंदों में निबद्ध यह कृति-वन्दना,विनय व पूर्वा पर शीर्षकों के साथ  ९ सर्गों में रचित है |
       पिछले सर्ग दो में अत्रि पत्नी अनुसूया द्वारा स्त्री-पुरुष के कर्तव्य बताये गये जो वस्तुतः अनुकरणीय हैं। आगे सर्ग-३, प्रतिज्ञा  में  श्रीराम आगे अगस्त्य मुनि के आश्रम की और प्रस्थान करते हैं जहां आगे के कर्तव्य की भूमिका व  मंत्रणा होनी है | इसी क्रम में अपने वनागमन उद्देश्य की घोषणा व  श्री गणेश भी करते हैं | कुल छंद १८ .....
१-
विदा माँग कर ऋषि-पत्नी से,
लखन सहित,कर ऋषिपद-वंदन;
चले राम अरण्य के पथ पर ,
पीछे लखन , मध्य वैदेही |
ब्रह्म-जीव के मध्य होरही ,
शोभित माया, नारि रूप धर ||
२-
असुर विराध मिला जब मग में,
अति ही प्रिय आहार को पाकर;
सीता को,   जब चला पकड़ने,
किया तुरत वध,   श्री राम ने |
श्री गणेश- किया हो,   जैसे,
एक   महाउद्देश्य-कर्म   का || 
३-
मुनि शरभंग के  आश्रम आये,
निरखि राम,मुनि अति हिय हरषे|
बोले, जब जिज्ञासा की थी-
कैसे  राक्षस-राज  मिटेगा   ?
कैसे सुख पायेगा जन-मन  ?
कैसे भार मिटेगा महि का  ||
४-
तब ब्रह्मा से यही सुना था,
आयेंगे हरि, राम रूप धर |
जबसे निशि-दिन,राम आपकी-
राहों को देखा करता था |
मैं भी कुछ प्रभु काम आसकूं ,
मन में भाव समाये रखता ||
५-
नाम आपका लेकर के प्रभु,
दीन-हीन जन, दैत्य सताए;
उन सबको समझाता रहता,
तन-मन के ब्रण को सहलाता;
प्रभु आएंगे , यह समझा कर,
जीवन धन्य हुआ अब मेरा ||
६-
अब तो अंत समय आया है,
दीन-हीन तन साथ न देता |
जो कुछ जप-तप,यज्ञ-योग है,
करूँ समर्पण, भक्ति हेतु प्रभु |
अब आश्वस्त हुआ है यह मन,
निशिचर नहीं रहेंगे महि पर || 
७-
भक्ति-लीन हो मुनिवर ने फिर,
योग शक्ति से छोड़ दिया तन;
राम कृपा ,  बैकुंठ सिधारे  |
आगे चले साथ ऋषि-मुनि गण,
अस्थि-समूह  देख राहों में ;
लगे पूछने, यह क्या ? मुनिवर !
८-
सब कुछ आप जानते हैं प्रभु,
ऋषि-मुनि संतों के अस्थि-शेष;
जिनको राक्षस खा जाते हैं |
"प्रण करता है यह राम आज,
धरती को दैत्य-विहीन करूँ ",
करूणा से भर बोले, रघुवर ||
९-
ऋषि-मुनि गण एवं वनचारी,
सबको प्रभु ने आश्वस्त किया|
अत्याचार  न होगा कोई,
जो अब तक होता आया है |
कोई मख विध्वंस न होगा,
कुटिया का भी ध्वंस न होगा  ||
१०-
धनुष वाण है हाथ राम के,
परम वीर सौमित्र यहाँ हैं |
आ न सकेंगे इधर ,निशाचर,
करें सभी निर्भय होकर के;
यज्ञादिक शुभ कर्म सभी फिर,
उठे सुवासित धूम गगन में४  ||
११-
ऋषि-प्रणीत जीवन धारा की ,
सुरसरि फिर से बहे, धरा पर |
निशाचरी माया नगरी की,
हवा नहीं इस ओर बढ़ेगी |
मर्यादा की मलयज शीतल ,
बहे समीर पुनः हर ओर ||
१२-
ऋषि अगस्त्य के शिष्य,परमप्रिय,
मुनि सुतीक्ष्ण,प्रभु पद आराधक |
धर्म धुरीण, चले प्रभु के संग,
लेकर निज-गुरु आश्रम आये |
लक्ष्मण  कहा, सुनाएँ भ्राता,
मुनि अगस्त्य की महिमा न्यारी ||
१३-
आज्ञा से जिनकी विन्ध्याचल,
खडा अभी तक शीश झुकाए |
सर्वप्रथम वे सदियों पहले,
विन्ध्य पार करके थे आये |
धर्म न्याय सत नीति भाव की,
नव वयार ले वनस्थलीमें || 
१४-
पी डाला  था सागर को भी ,
नित नूतन नव-राह दिखाकर |
ज्ञान धर्म सत का विहान वे,
ले आये थे इसी धरा पर |
गूँज उठा वैदिक मन्त्रों से,
आसमान दक्षिण अंचल का ||
१५-
ज्ञान और समृद्धि की धारा ,
बहती थी सारे अंचल में |
जन-स्थान  तक निशाचरों की,
अतिभोगी, भौतिक संस्कृति की ;
विकृत धारा के प्रसार  से  ,
ध्वस्त हुईं ऋषि परम्पराएं ||
१६-
धरती पर जो प्रवल राज्यकुल,
कौशल मिथिला महाकुलों के;
हम तीनों प्रतिनिधि हैं लक्ष्मण |
है पुनीत  कर्तव्य हमारा ,
रक्षा करें प्रजा की डटकर;
फिर से अभय बने यह धरती ||
१७-
भुजदंडों में जिसके बल हो,
प्रखर विचारयुक्त मस्तिक हो|
ब्रह्मचर्य के बल का धारक,
नीति-धर्म से युक्त सबल मन |
देश समाज नारि निर्बल की-
रक्षा हित रहता नित तत्पर ||
१८-
ऋषि कुम्भजप्रति श्रृद्धा से भर,
सादर शीश नवाए सबने |
पहुंचे फिर ऋषि के आश्रम में |
प्रभु आये हैं , सुन सुतीक्ष्ण  से ,
स्वयं मुनि मिलने को धाये;
धन्यभाग कौशलपति आये ||      ----क्रमश:  सर्ग ४--मन्त्रणा......अगले अन्क में...


{ कुंजिका-----  १= जब अवैदिक , अनाचारी असुरों  के अत्याचारों  से अत्यंत दुखित होकर पृथ्वी गाय का रूप धारण कर के त्रिदेवों के पास गयी (= समस्त दुखी लोगों ने शक्तिशाली राज्यों से न्याय की गुहार की ) तब ब्रह्मा ने यह सन्देश दिया था की विष्णु -राम के रूप में आकर उद्धार करेंगे |...२= अनाचारी मांसाहारी सर्वभक्षी असुर लोग वैदिक यज्ञ आदि कर्म काण्ड करने वाले ऋषियों-जनता को मृत्यु दंड दे देते थे | भयभीत करने के लिए  अस्थियाँ आदि एकत्र कर देते थे |...३= रावण के सैनिक आदि आर्य परम्परा पालक जनता के घर-बार को नष्ट करके स्थलों पर अपना अधिकार कर लेते  थे | ..४= यज्ञ परम्परा का पालन प्रारम्भ हो...| ५ = भारतीय सनातन , आर्य-वैदिक -यज्ञीय पुनीत, सरल, सहज , समन्वय वादी जीवन शैली ...| ६=  अगस्त्य मुनि भारत के उत्तरीय भू-भाग से  दक्षिणांचल में विन्ध्य पर्वत पार करके आने वाले सर्वप्रथम  मनुष्य थे , जिन्होंने दक्षिण भूभाग को बसाया, उन्नत किया, सभ्यता का रोपण किया | इन्होंने ही सर्वप्रथम अंटार्कटिक तक समस्त दक्षिण सागर का पता लगाया था अतः कहावत है की सागर को पी लिया  था |...७=विन्ध्याचल पर्वत के दक्षिण का घना वनक्षेत्र , वनवासी व आदिबासी क्षेत्र |...८= मुनि अगस्त्य का अन्य नाम--वास्तव में वे (एवं वशिष्ठ ) परखनली शिशु ( टेस्ट ट्यूब बेबी) थे , जो मित्रा-वरुण के वीर्य को मटके(कुम्भ ) में सिंचन के उपरांत उर्वशी के गर्भ से उत्पन्न किया गया था , अतः कुम्भज भी कहलाये |..

2 टिप्‍पणियां:

Kunwar Kusumesh ने कहा…

हफ़्तों तक खाते रहो, गुझिया ले ले स्वाद.
मगर कभी मत भूलना,नाम भक्त प्रहलाद.

होली की हार्दिक शुभकामनायें.

डा श्याम गुप्त ने कहा…

----धन्यवाद जी मुंह मीठा होगया...होली की शुभकामनायें....