- शूर्पणखा काव्य उपन्यास-- नारी विमर्श पर अगीत विधा खंड काव्य .....रचयिता -डा श्याम गुप्त
विषय व भाव भूमि
स्त्री -विमर्श व नारी उन्नयन के महत्वपूर्ण युग में आज जहां नारी विभिन्न क्षेत्रों में पुरुषों से कंधा मिलाकर चलती जारही है और समाज के प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति की ओर उन्मुख है , वहीं स्त्री उन्मुक्तता व स्वच्छंद आचरण के कारण समाज में उत्पन्न विक्षोभ व असंस्कारिता के प्रश्न भी सिर उठाने लगे हैं |
गीता में कहा है कि .."स्त्रीषु दुष्टासु जायते वर्णसंकर ..." वास्तव में नारी का प्रदूषण व गलत राह अपनाना किसी भी समाज के पतन का कारण होता है |इतिहास गवाह है कि बड़े बड़े युद्ध , बर्बादी,नारी के कारण ही हुए हैं , विभिन्न धर्मों के प्रवाह भी नारी के कारण ही रुके हैं | परन्तु अपनी विशिष्ट क्षमता व संरचना के कारण पुरुष सदैव ही समाज में मुख्य भूमिका में रहता आया है | अतः नारी के आदर्श, प्रतिष्ठा या पतन में पुरुष का महत्त्वपूर्ण हाथ होता है | जब पुरुष स्वयं अपने आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक, धार्मिक व नैतिक कर्तव्य से च्युत होजाता है तो अन्याय-अनाचार , स्त्री-पुरुष दुराचरण,पुनः अनाचार-अत्याचार का दुष्चक्र चलने लगता है|
समय के जो कुछ कुपात्र उदाहरण हैं उनके जीवन-व्यवहार,मानवीय भूलों व कमजोरियों के साथ तत्कालीन समाज की भी जो परिस्थिति वश भूलें हुईं जिनके कारण वे कुपात्र बने , यदि उन विभन्न कारणों व परिस्थितियों का सामाजिक व वैज्ञानिक आधार पर विश्लेषण किया जाय तो वे मानवीय भूलें जिन पर मानव का वश चलता है उनका निराकरण करके बुराई का मार्ग कम व अच्छाई की राह प्रशस्त की जा सकती है | इसी से मानव प्रगति का रास्ता बनता है | यही बिचार बिंदु इस कृति 'शूर्पणखा' के प्रणयन का उद्देश्य है |
विषय व भाव भूमि
स्त्री -विमर्श व नारी उन्नयन के महत्वपूर्ण युग में आज जहां नारी विभिन्न क्षेत्रों में पुरुषों से कंधा मिलाकर चलती जारही है और समाज के प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति की ओर उन्मुख है , वहीं स्त्री उन्मुक्तता व स्वच्छंद आचरण के कारण समाज में उत्पन्न विक्षोभ व असंस्कारिता के प्रश्न भी सिर उठाने लगे हैं |
गीता में कहा है कि .."स्त्रीषु दुष्टासु जायते वर्णसंकर ..." वास्तव में नारी का प्रदूषण व गलत राह अपनाना किसी भी समाज के पतन का कारण होता है |इतिहास गवाह है कि बड़े बड़े युद्ध , बर्बादी,नारी के कारण ही हुए हैं , विभिन्न धर्मों के प्रवाह भी नारी के कारण ही रुके हैं | परन्तु अपनी विशिष्ट क्षमता व संरचना के कारण पुरुष सदैव ही समाज में मुख्य भूमिका में रहता आया है | अतः नारी के आदर्श, प्रतिष्ठा या पतन में पुरुष का महत्त्वपूर्ण हाथ होता है | जब पुरुष स्वयं अपने आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक, धार्मिक व नैतिक कर्तव्य से च्युत होजाता है तो अन्याय-अनाचार , स्त्री-पुरुष दुराचरण,पुनः अनाचार-अत्याचार का दुष्चक्र चलने लगता है|
समय के जो कुछ कुपात्र उदाहरण हैं उनके जीवन-व्यवहार,मानवीय भूलों व कमजोरियों के साथ तत्कालीन समाज की भी जो परिस्थिति वश भूलें हुईं जिनके कारण वे कुपात्र बने , यदि उन विभन्न कारणों व परिस्थितियों का सामाजिक व वैज्ञानिक आधार पर विश्लेषण किया जाय तो वे मानवीय भूलें जिन पर मानव का वश चलता है उनका निराकरण करके बुराई का मार्ग कम व अच्छाई की राह प्रशस्त की जा सकती है | इसी से मानव प्रगति का रास्ता बनता है | यही बिचार बिंदु इस कृति 'शूर्पणखा' के प्रणयन का उद्देश्य है |
स्त्री के नैतिक पतन में समाज, देश, राष्ट्र,संस्कृति व समस्त मानवता के पतन की गाथा निहित रहती है | स्त्री के नैतिक पतन में पुरुषों, परिवार,समाज एवं स्वयं स्त्री-पुरुष के नैतिक बल की कमी की क्या क्या भूमिकाएं होती हैं? कोई क्यों बुरा बन जाता है ? स्वयं स्त्री, पुरुष, समाज, राज्य व धर्म के क्या कर्तव्य हैं ताकि नैतिकता एवं सामाजिक समन्वयता बनी रहे , बुराई कम हो | स्त्री शिक्षा का क्या महत्त्व है? इन्ही सब यक्ष प्रश्नों के विश्लेषणात्मक व व्याख्यात्मक तथ्य प्रस्तुत करती है यह कृति "शूर्पणखा" ; जिसकी नायिका राम कथा के दो महत्वपूर्ण व निर्णायक पात्रों व खल नायिकाओं में से एक है , महानायक रावण की भगिनी --शूर्पणखा | अगीत विधा के षटपदी छंदों में निबद्ध यह कृति-वन्दना,विनय व पूर्वा पर शीर्षकों के साथ ९ सर्गों में रचित है |
पिछले सर्ग ३ में राम चित्रकूट छोड़कर आगे वन मार्ग में जाते हुए अगस्त्य मुनि के आश्रम पहुंचते है| प्रस्तुत सर्ग ४-मंत्रणा में इस वन प्रदेश के सबसे अनुभवी अगस्त्य मुनि से उनकी मंत्रणा होती है की कैसे व कहाँ स्थित होकर अपना कार्य साधा जा सकता है | मुनि उन्हें शस्त्र व शास्त्रों के ज्ञान के साथ साथ , दंडक-वन में पंचवटी नामक स्थान को अपना कार्यक्षेत्र बनाने का परामर्श देते हैं | कुल छंद -३७....जो दो भागों में प्रस्तुत किया जाएगा | प्रस्तुत है सर्ग ४-मंत्रणा-भाग १--छंद..१ से १८ तक...
पिछले सर्ग ३ में राम चित्रकूट छोड़कर आगे वन मार्ग में जाते हुए अगस्त्य मुनि के आश्रम पहुंचते है| प्रस्तुत सर्ग ४-मंत्रणा में इस वन प्रदेश के सबसे अनुभवी अगस्त्य मुनि से उनकी मंत्रणा होती है की कैसे व कहाँ स्थित होकर अपना कार्य साधा जा सकता है | मुनि उन्हें शस्त्र व शास्त्रों के ज्ञान के साथ साथ , दंडक-वन में पंचवटी नामक स्थान को अपना कार्यक्षेत्र बनाने का परामर्श देते हैं | कुल छंद -३७....जो दो भागों में प्रस्तुत किया जाएगा | प्रस्तुत है सर्ग ४-मंत्रणा-भाग १--छंद..१ से १८ तक...
१-
ज्ञानी मुनि की चरण वन्दना,
कर, सुख पाया राम-लखन ने |
पूछी कुशल-क्षेम मुनिवर ने,
बैठाए, दे सादर आसन |
बहुत प्रतीक्षा की है- रघुवर !
आज किन्तु यह शुभदिन आया ||
२-
तरु-कुंजों की सघन वाटिका,
मुनि समूह संग रघुवर बैठे |
बोले कुम्भज मुनि सब जानें ,
ऋषिवर से कुछ छिपा नहीं है |
क्या ब्रत धारण किया राम ने,
किस कारण आये इस वन में ||
३-
मुनि अगस्त्य से बोले रघुवर,
तात ! आपका ज्ञान व अनुभव;
एवं कठिन कर्म और ब्रत का,
सारे जग में यश फैला है |
यह भूभाग आपके कारण,
ज्ञान-वान, समृद्ध हुआ है ||
४-
उचित मन्त्र दें, वही करूँ में ,
जिससे प्रिय हो आप सभी का |
हो उद्देश्य पूर्ण, मेरा भी,
नाश करूँ सब दैत्य वंश का |
लक्ष्मण समझ रहे थे अब कुछ,
नमन किया प्रभु की लीला को ||
५-
ऋषिवर, इस दक्षिण अंचल के,
कण कण का है ज्ञान आपको;
रहना उचित कहाँ पर होगा ?
पाप घड़ा भर चुका दैत्य का,
अब विलम्ब का काम नहीं है;
यह संधान कहाँ से होगा ||
६-
विहँसे मुनि, बोले रघुवर से,
राम, चतुर अति-ज्ञान-वान हो |
ऋषि वशिष्ठ के परम शिष्य हो,
परमवीर दशरथ के प्रिय सुत |
परम ज्ञान से युक्त -जनक हैं,
वे विदेह प्रिय श्वसुर तुम्हारे ||
७-
ज्ञान भक्ति और कर्म रूप मय,
प्रिया आपकी जनक-नंदिनी |
लक्ष्मण भरत शत्रुहन जैसे,
धीर -वीर हैं अनुज आपके |
भक्ति ज्ञान वैराग्य रूप सी,
माताओं के सुत हो रघुवर ||
८-
विश्वामित्र महामुनि से तो,
अस्त्र-शस्त्र, गुण-ज्ञान मिला है |
शौर्य,ज्ञान ,पितु-मातु भक्ति की ,
महिमा दिग-दिगंत में फ़ैली |
भला जानना अब क्या मुझसे,
अन्तर्यामी सब कुछ जानें ||
९-
सहज-भक्ति से मुझे आपकी,
महिमा का कुछ ज्ञान मिला है |
अनुभव, ज्ञान, जीव औ माया,
सकल चराचर जग तुम ही हो |
निर्गुन आये सगुन रूप धर,
तुम तो स्वयं ब्रह्म हो रघुवर१ ||
१०-
सकल लोक के तुम प्रतिपालक,
कण-कण में तुम,राम! बसे हो |
यही आपकी है प्रभुताई २ ,
संतों भक्तों दास जनों को;
प्रभुताई अर्पित करते हो |
पूछ रहे सब जान-बूझ कर ||
११-
अविरल भक्ति-भाव इस मन में,
प्रभु चरणों का बना ही रहे |
सीता-अनुज सहित इस उर में,
रूप मनोहर सजा रहे नित |
मनुज-भाव से पूछा स्वामी,
कृपा आपकी, सुनिए रघुवर ||
१२-
पंचवटी अति सुन्दर पावन,
धाम है, 'दंडक-वन'३ में रघुवर |
रहें वहां पर पर्णकुटी४ कर,
मिट जाएँ कलुष-दोष वन के |
दंडक वन होजाए पावन ,
ऋषि-मुनि विचरें निर्भय होकर ||
१३-
अधिग्रहण किया जो दैत्यों ने,
वह जनस्थान५ भी निकट रहे |
आते-जाते निशिचर, दुष्टों,
की बातों का भी पता चले |
उस रावण के अधिकृत प्रदेश-
से, दुष्ट-दैत्य, आते रहते ||
१४-
सूचना व अवसर पाने का,
है उचित क्षेत्र यह दंडक वन |
थर्राया है जो, असुरों के -
अति अत्याचारी कृत्यों से |
रह पंचवटी६ में राम, करो-
तुम दुष्टों का अब शीघ्र दलन ||
१५-
दिव्यास्त्र अनेक दिए ऋषि ने,
फिर बोले-तुम तो राम स्वयं ,
हो संचालन संधान कुशल |
जाने कितने ही दिव्य अस्त्र,
प्रभु तरकश में शोभायमान ;
है शस्त्रों की शोभा तुमसे ||
१६-
अस्त्रों से सिर्फ नहीं कोइ,
मानव शोभा पाजाता है |
शस्त्रों को रख निज साथ नहीं,
वह परमवीर बन जाता है |
मिल जाएँ यदि अपात्र को तो,
इन की महिमा घट जाती है ||
१७-
दृढ -इच्छा, साहस, कर्मठता,
नैतिक बल, अस्त्र है बीरों का|
तुम ग्रहण करो हे राम! बढे,
इन शस्त्रों की शोभा तुमसे |
सह न सकेगा रिपु कोई,
वर्षा अब राम के तीरों की ||
१८-
पाकर मुनि आज्ञा राम-सिया,
ले, अनुज सहित मुनि-वृन्दों को;
दंडक वन -पथ की ओर चले |
प्राचीन कथा कहते-सुनते,
शंका का समाधान करते;
इस तरह राह कटती जाती || ----क्रमशः सर्ग-४..भाग दो.......
{कुंजिका --- १= भारतीय दर्शन का मूल भाव --ईश्वर या ब्रह्म अव्यक्त, निर्गुन-निराकार ,अक्रिय रूप में सदैव होता है, सृष्टि के समय या आवश्यकता पड़ने पर वही , व्यक्त होकर सगुन , रूप मेंसक्रिय होता है | वही विभिन्न अवतारों का रूप रखता है |...२= सफल व महान व्यक्तित्वों की यह निर-अहंकार गुण-धर्मिता होती है कि वे जानते हुए भी दूसरों से उनके मंतव्य जानना चाहते हैं , साथ वालों को महत्त्व देने से उनकी विश्वशनीयता व भक्ति बढ़ती है |...३=विन्ध्य पर्वत श्रृंखला के दक्षिण का घना अरण्य ... ४= घास-फूस-पत्रों आदि से बनायी गयी कुटिया--आवास गृह |....५= दक्षिण भूभाग का रावण द्वारा अधिग्रहीत आवादी वाला क्षेत्र ...६= दंडक वन के प्रारम्भिक भूभाग में गोदावरी नदी के किनारे स्थित बरगद के पांच विशालकाय बृक्षों से आच्छादित रमणीक प्रदेश ..तभी यह पंचवटी नाम से जाना गया...आज भी नासिक स्थित पंचवटी में वे पाँचों वृक्ष मौजूद हैं |
१९-
दंडक वन में पहुंचे रघुवर,
मिले जटायू गृद्धराज वर |
मित्र, पिता दशरथ के थे,प्रिय,
सादर वंदन किया सभी ने |
कुशलक्षेम कौशलपति की वे,
लगे पूछने,भाव-विह्वल हो ||
२०-
सुनकर मृत्यु मित्र दशरथ की,
मित्र-शोक से, गृद्ध राज ने,
युगल नयन से नीर बहाए |
पिता तुल्य तुम समझो मुझको ,
धैर्य बंधाया,गले लगाकर ;
किया प्रकट आभार राम ने ||
२१-
फिर विस्तार सहित घटनाक्रम,
कारण अपने विपिन-वास का;
रघुवर ने उनको बतलाया |
किया निवेदन, तात ! आप भी,
बनें सहायक धर्म कार्य हित;
उचित मंत्रणा दें हम सबको ||
२२-
आशीर्वाद सदा है मेरा,
राम,बनो तुम खलु-दल भंजक|
मेरा मेरे दल-बल१ का भी,
सदा पूर्ण सहयोग रहेगा |
पूरा हो उद्देश्य राम का,
पापमुक्त हो अब यह अंचल ||
२३-
वनचर, बनवासी अरण्य के ,
हैं अति त्रस्त अनाचारों से |
ज्ञान-धर्म,जन-नीति सभी कुछ,
कलुषित हैं; दूषित भावों के -
अति प्रचार एवं प्रसार से २ ,
है प्रमाद ने किया बसेरा ||
२४-
अकर्मण्यता , प्रमाद व लिप्सा,
भोग-भाव औ असत कर्म से ;
ध्वस्त हो गईं रीति-नीति सब,
ध्वस्त हुई है अर्थव्यवस्था |
दीन-हीन हो पिछड़े सबसे,
भोग रहे निज कर्मों का फल ||
२५-
यदि हो साथ राम का पौरुष,
भक्ति-शक्ति सौमित्र के जैसी;
सीता सी प्रभु प्रीति-रीति हो,
सोने में होजाय सुहागा |
बिना भक्ति और ईश कृपा के,
किसको भला विवेक हुआ है ||
२६-
युग-शिक्षा नव ज्ञान-रश्मि से,
नव-प्रकाश फैलाना होगा |
कला शिल्प साहित्य आदि का,
जन मन भाव जगाना होगा |
स्वतंत्रता स्व -भाव आदि भी,
जगें, सभी के अंतर्मन में ||
२७-
हर, प्रमाद अज्ञान अयोग्यता ,
सब विधि योग्य बनाएं सबको |
नहीं योग्यता की कोई भी,
कमी किसी में भी रह जाए |
ज्ञान कुशलता और योग्यता,
से न करें कोई समझौता ३ ||
२८-
स्त्री-शिक्षा पर सब विधि से,
कुछ ध्यान अधिक देना होगा |
शिक्षित नारी ही है राघव!
उन्नायक अगली पीढी की |
सक्षम है वही रोकने में,
जाने से असत मार्ग नर को ||
२९-
विदुषी, शिक्षित और साक्षर,
नारी ही आधार है सदा ;
हर समाज की, नर जीवन की |
वही समय पड़ने पर , नर से-
कदम मिलाकर चल सकती है४ |
जीवन करती सुन्दर -समतल ||
३०-
चाहे जितनी भीड़ साथ हो,
यदि अयोग्य हो, काम न आये |
पूर्ण योग्यता ज्ञान के बिना ,
कोई कार्य पूर्ण कब होता |
तप संयम कठोर अनुशासन,
से ही पूर्ण योग्यता मिलती ||
३१-
पिछड़े दीन-हीन या ज्ञानी,
सबको साथ लिए चलना है |
अस्त्र-शस्त्र निर्माण कर्म और -
लड़ने योग्य बनाएं सबको |
आतातायी के विरोध का,
स्वर, जन जन में उठे ज्वार बन ||
३२-
नए नए अस्त्रों शस्त्रों का,
संचालन भी सिखलाना है |
जन-जन, मन से महायज्ञ में,
दे सहयोग, बताना है यह |
हर घर में हे राम! ज्ञान का,
एक-एक दीपक जल जाए ||
३३-
अक्रियता अज्ञान और भय,
हट जाए जन जन में मन से |
अपनी स्वयं की अर्थव्यवस्था,
से यह वन समृद्ध बन सके |
कर्म-चेतना से यह अंचल,
सक्रिय सबल, संबल बन जाए ||
३४-
जन जन का बल, युद्ध काल में,
सबसे बड़ा शस्त्र५ होता है |
राघव ! सब से बड़ी सुरक्षा-
शक्ति, योग्य जन-बल होता है |
उचित समय पर दंडक वन क्या-
जन स्थान भी साथ खडा हो ||
३५-
पावन गोदावरि के तट पर,
इस वन का सुरम्य स्थल है |
सिय सौमित्र सहित सुखसागर !
सुख से करें निवास, बनाकर-
पर्णकुटी, सुन्दर व सुरक्षित,
पंचवटी द्रुम-दल छाया में ||
३६-
पावन सुरसरि सम जलधारा,
के समीप समतल स्थल पर |
कुंजों की वाटिका मध्य ही,
पर्णकुटी दो भव्य मनोहर ,
का निर्माण किया लक्ष्मण ने ,
कुशल-शिल्प ६ जो अतुलनीय था ||
३७-
विविधि सुगन्धित सुमन वल्लरी,
विविध रन्ग की सुमनावलियां ;
एवं नव -पल्लव लड़ियों से ,
सीता ने विधि-भाँति सजाया |
हर्षित होकर लक्ष्मण बोले -
करें पदार्पण, स्वागत है प्रभु || ----क्रमश: सर्ग ५...पंचवटी ..अगले पोस्ट में ....
{कुंजिका---- १= जटायु गृद्ध या गीध, गिद्ध नामक आदि वासी ( शायद वे गीध का मुखौटा या झंडा प्रयोग करते थे अतः गृद्ध कहलाये ) जन-जाति का नायक था व चक्रवर्ती सम्राट दशरथ का सहयोगी मित्र राष्ट्राध्यक्ष उसकी मृत्यु पश्चात उसके दल-बल ने युद्ध में राम का साथ दिया था |...२= दूषित , भ्रमात्मक, अशास्त्रीय जानकारियों व धर्म-ग्रन्थों शास्त्रों आदि के विरुद्ध अनर्गल प्रचार से समाज व राष्ट्र और जन जन में अगान के अन्धकार के फ़ैलाने से प्रगति रुक जाती है ... ३= व्यक्ति, समूह या किसी वर्ग-समाज की प्रगति के लिए योग्यता से कभी भी कोई समझौता नहीं करना चाहिए इससे प्रगति रुक जाती है , समाज में द्वंद्व ,भ्रम, अज्ञान फैलता है , इसी प्रकार साहित्य, कला आदि के दूषित व जनोपयोगी भाव का लोप होने से , उसमें व्यवसायिक भाव आजाने से जन जन की अरुचि होजाती है और साहित्य व कला अपना मूल धर्म...मानव को नवोन्मेष, नव-कल्पना, आदर्शों के शिखर बिन्दुओं की स्थापना व पुनर्स्थापना द्वारा नव जागरण ---से दूर होजाता है |....४ = नारी शिक्षा -हर काल व देश के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है....शिक्षित स्त्री ही पुरुष को गलत राह पर जाने से रोक पायेगी व आपत्तिकाल में स्वयं दुर्गा बनकर दिखा सकती है..... ५ = स्थानीय जनता का सहयोग कैसे भी युद्ध में विजय के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होता है ...६ = लक्ष्मण स्वयं एक कुशल वास्तु-शिल्पकार ( सिविल अभियंता ) व धनुर्विद्या के साथ साथ धनुर्निर्माण विद्या के विशेषज्ञ थे ..
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें