मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

ब्रज बांसुरी" की रचनाएँ ...भाव अरपन -अठारह ( अंतिम)...कृष्ण लीला कौ तत्व--- ....डा श्याम गुप्त

         

.

ब्रज बांसुरी" की रचनाएँ .......डा श्याम गुप्त ...
              

                     मेरे नवीनतम प्रकाशित  ब्रजभाषा काव्य संग्रह ..." ब्रज बांसुरी " ...की ब्रजभाषा में रचनाएँ  गीत, ग़ज़ल, पद, दोहे, घनाक्षरी, सवैया, श्याम -सवैया, पंचक सवैया, छप्पय, कुण्डलियाँ, अगीत, नवगीत आदि  मेरे  ब्लॉग .." हिन्दी हिन्दू हिंदुस्तान " ( http://hindihindoohindustaan.blogspot.com ) पर क्रमिक रूप में प्रकाशित की जायंगी ... .... 
        कृति--- ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा में विभिन्न काव्यविधाओं की रचनाओं का संग्रह )
         रचयिता ---डा श्याम गुप्त 
                     ---   सुषमा गुप्ता 
प्रस्तुत है ...अंतिम ..भाव-अरपन ..अठारह ...कृष्ण -लीला कौ तत्व  ( नौ लीलाओं का तात्विक अर्थ..कुण्डली छंदों में )....  दो लीलाएं प्रस्तुत हैं....


      सुमन १ ..... गौधन चोरी....


 माखन की चोरी करें नित प्रति नंदकिसोर ,
कछु खावें कछु फैकिहें, मटुकी दैवें फोर  |
मटुकी दैवें  फोर, सखनि संग घर घर जावें ,
चुपकें मटुकी फोर,  सबहि गोधन फैलावें |
देहें यही संदेसु,  श्याम' समुझें ब्रजबासी ,
आपु बनें बलवान,  दीन  हों मथुरावासी ||

गोकुल बासी का गए, अरथ कारने भूलि |
माखन दूध नगर चलौ, गांवन उडिहै धूलि |
गांवन उडिहै धूलि, गाँव सगरो है भूखौ,
नगर होयं संपन्न,  खायं हम रूखौ-सूखौ |
गागर दैहैं फोरि, श्याम सुनिलें ब्रजवासी ,
जो मथुरा लेजावै,  गोधन गोकुलवासी ||

          सुमन -३..चीर हरण ...

चीर मांगि  रहीं गोपियाँ करि करि बहु मनुहारि ,




पैठीं  काहे नीर सब , सगरे बसन उतारि |
सगरे बसन उतारि , लाज कैसी अब मन में ,
सोई आत्मा मो में, तो मेंहु  सकल भुवन में |
कन कन मैं ही बसौ,  है मेरौ ही तनु नीर,
मोसौं कैसी लाज  लें  आइ किनारे चीर ||

उचित नाहिं व्यौहार ये, नाहिं सास्त्र अनुकूल,
नंगे होय जल में घुसौ, मरजादा प्रतिकूल |
मरजादा प्रतिकूल, श्याम नै दियो ज्ञान यह,
दोनों बांह  उठाय, बचन सब देउ आजु यह |
करहिं समरपन  पूर्ण, लगावें मोही में चित,
कबहुँ न होवै भूल, भाव यह समुझें समुचित ||

कोऊ रहौ न देख अब,  सब है सूनौ सांत ,
चाहे जो मन की करौ, चहुँ दिसि है एकांत |
चहुँ दिसि है एकांत, करौ अब पाप-पुण्य सब ,
पर नर की यह भूल,  देखिहै  सदा प्रभू सब |
कन कन बसिया ईश,  हर जगह देखे सोई,
सोच समुझ कर कर्म, न प्रभु ते छिपिहै कोई  ||


                                    -----इति---- ----- ब्रज बांसुरी ....डा श्याम गुप्त की ब्रजभाषा रचना....






कोई टिप्पणी नहीं: