....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
’ इन्द्रधनुष’ ------ स्त्री-पुरुष विमर्श पर एक नवीन दृष्टि प्रदायक उपन्यास....पिछले अंक से क्रमश:......
’ इन्द्रधनुष’ ------ स्त्री-पुरुष विमर्श पर एक नवीन दृष्टि प्रदायक उपन्यास....पिछले अंक से क्रमश:......
अंक आठ
लाइब्रेरी के मैगजीन सेक्शन में- मैं और एके जैन यूंही बैठे पन्ने उलट रहे थे कि अचानक हवा में तैरती हुई आवाज़ आयी --
" जब जब बहार आये ,
और फूल मुस्कुराए,
हमें तुम याद आये,
हमें तुम याद आये ।। "
मैंने सिर उठाकर देखा तो सुमित्रा अपनी मित्र साधना वर्मा के साध गुनगुनाती हुई सीढियां उतर रही थी । जैन के अचानक हंस पड़ने से दोनों चौंकी और चुप होकर जाने लगीं ।
मैंने पूछा , ' सुमि, क्या दिल्ली की याद आरही है ?'
हाँ, वह बोली, पर मैं तो वहां होती हूँ तब भी यही गीत गुनुगुनाती हूँ । जैन व साधना एक दूसरे का मुंह ताकने लगे। दोनों के चले जाने पर जैन ने पूछा , ' इसका क्या अर्थ हुआ ?'
पता नहीं, सुमि अच्छा गाती है ।
' ये तो सभी जानते हैं ।'
चलो क्लास में चलते हैं, मैंने उठते हुए कहा ।
** ** **
"ग्रामीण व सामुदायिक चिकित्सा" कार्यक्रम के अंतर्गत हम लोग एक सुदूर ग्राम में घर घर जाकर सामुदायिक स्वास्थ्य, स्त्री व वाल स्वाथ्य पर परामर्श व विभिन्न आंकडे एकत्रित करने के क्रम में टोली बनाकर भ्रमण कर रहे थे ।
सुनील कपूर ने चलते चलते कहा, ' क्या बात है, आठ प्रिगनेंसी, छ: डिलीवरी, दो जराउली ( टेटनस ) में मर गए, दो पीलिया से। बचे दो- एक को सूखा रोग है और एक अभी गोद में है । क्या आंकड़े हैं ।'
' अधिकतर घरों में यही हाल है ।' सुमित्रा कहने लगी . ' अशिक्षा , गरीबी, भूख, पिछडापन फिर फिर अशिक्षा ...गरीबी ...ये दुश्चक्र कब ख़त्म होगा !'
' हम सब लोग कहाँ तक समझायेंगे इन सब को। क्या कुछ लोगों को बताकर सब कुछ ठीक हो जाएगा ?' कुसुम ने कहा ।
' कितनी गन्दगी, कीचड व बदबूदार नालियां हैं यहाँ ? रंजन ने नाक-मुंह सिकोड़कर, रुमाल नाक पर रखते हुए कहा , ' कौन दोबारा आना चाहेगा यहाँ । क्या फ़ायदा व्यर्थ घूमने का । ये तो सुधरने वाले हैं नहीं ।'
' इसी सब के डाटाकरण व उपायीकरण के लिए हम सब घूम रहे हैं यहाँ । यदि बुद्धिवादी, प्रोफेशनल, पढ़े-लिखे लोग, शासन- पदस्थ लोगों को यह पता ही नहीं होगा तो ये सब कमियाँ, बुराइयां दूर कैसे होंगी ? इसके उपाय कैसे सूझेंगे । मैं तो चाहता हूँ कि प्रत्येक मेडीकल व अन्य कालेजों के व संस्थानों के छात्रों को अनिवार्यतः बारी बारी से गांवों में जाना चाहिए । यदि हम ही पहल नहीं करेंगे तो कैसे सुधरेगी यह हालत ?' मैंने कहा ।
'कौन दोबारा आयेगा यहाँ ? तुम्हीं आना कीचड व गन्दगी में घूमने यहाँ । सतीश रंजन ने नाक सिकोड़ते हुए कहा ।
हाँ.. हाँ भैया, हम तो पैदा यहाँ हुए हैं तो निभायेंगे ही । अपना तो उद्देश्य भी यही है । ' जीना यहाँ मरना यहाँ, इसके सिवा और जाना कहाँ ?" मैंने सुमित्रा की और देखते हुए मुस्कुराकर कहा ।
' मैं तुम्हारा इशारा समझ रही हूँ, अच्छी तरह ।' सुमित्रा बोली ।
' क्या समझी ?'
'क्या समझते हो, गूढ़ बातें सिर्फ तुम ही कह-समझ सकते हो ? कोई और नहीं । '
' तुम्हारे बारे में तो न कभी मैंने एसा सोचा न कहा ।'
' ठीक है समय आने पर बताएँगे, हम क्या समझे ।'
' मैं कुछ समझा नहीं ।' रंजन ने आश्चर्य से कहा, ' एसी क्या बात है ?' 'कहाँ व किन बहसबाजों के चक्कर में फंस रहे हैं, डा रंजन ।' साधना वर्मा बोली,' आपको तो वैसे भी दोबारा नहीं आना है यहाँ । चलिए आगे बढिए ।'
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स्त्री रोग चिकित्सा विभाग में ड्यूटी के दौरान अधिकतर पुरुष -छात्र वार्ड में अधिक रुकने में रूचि नहीं लेते । अतः कोई भी छोटे मोटे काम के बहाने अन्य विभाग या लाइब्रेरी में पढ़ते रहते हैं । इसी तरह गायब होने के पश्चात जब मैं विभाग में पहुंचा तो हाउस इंचार्ज डा. रेनू ने पूछा, ' डाक्टर साहब , इतने समय से कहाँ थे ?'
' मैं यूरिया वाइल ( रक्त एकत्र करने के लिए सेम्पल शीशी ) लेने गया था ।'
' कहाँ हैं ?'
' नहीं मिले, तैयार हो रहे हैं ।'
' मेरे पास हैं, सुमित्रा ने दो वायल दिखाते हुए कहा ,' ज़नाब, रोमियो-जूलियट पढ़ रहे थे लाइब्रेरी में ।'
' हूँ, तुमने कब देखा ?'
' जब तुम पूरी तरह से डूबे हुए थे, मैं उठा लाई ये तुम्हारी टेबल से । वैसे भी पुस्तकों में डूबकर तुम सब भूल जाते हो ।'
' पुस्तकें सदा साथ निभाती हैं ।'
' उलाहना दे रहे हो ?'
' नहीं, कहावत की बात है ।'
' तुम इसी तरह सब भूल जाओगे, पुरानी आदत है ।'
' ये क्या बहस है?' डा रेनू ने आश्चर्य से पूछा, ' तुम दोनों में कुछ हुआ है क्या ?'
'कभी कुछ हुआ ही तो नहीं ।' मैंने कहा ।
'सुमि मुस्कुराकर, घूरती हुई तेजी से वार्ड में चली गयी ।
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' ओह ! आई गौट इट' अब मालुम हुआ आजकल क्यों दिखाई नहीं देते, गुप्त रहते हो ।' लाइब्रेरी में क्या क्या गुल खिलाये जा रहे हैं, चुप चुप । बहुत चालू हो..... गोपाल । रोमियो-जूलियट ...हाऊ रोमांटिक ...। तभी आजकल स्मार्ट होते जारहे हो दिन ब दिन । जी चाहता है तुम से शादी करलूं । पर सोचती हूँ लोग क्या कहेंगे?' वार्ड से बाहर आते हुए लम्बी-चौड़ी मोटी नसरीन मुझे घूरते हुए चहकी ।
' क्या कहेंगे, यही कि वाह ! क्या मस्त हथिनी और हथिनी शावक की सुन्दर जोड़ी है । लोग कमरा ले ले कर पीछे दौड़ेंगे, हो सकता है टाइम पत्रिका के फ्रंट पर आजाय, " मेड फार ईच अदर " के शीर्षक के साथ ।' मैंने सहज भाव से कहा ।
'बदमाश ! तुम तो बहुत ही ...ह ......।'
'शट अप, नसरीन मोटी, क्या बके जारही है ? कुछ तो शर्म करो ।' सुमि हंसते हंसते चिल्लाई ।
'अरे वाह ! तुम कौन हो भई, ओब्जेक्शन करने वाली ? क्या तुम्हें कोइ एतराज है मेरे प्रस्ताव पर ?' नसरीन कमर पर दोनों हाथ रखकर पूछने लगी ।
' गो टु हैल,' मैं तो चलती हूँ ।' सुमि जाने लगी ।
' ल्लो ....ओ ....।' तुम्हारा सिक्योरिटी गार्ड तो वाक् आउट कर गया ।' नसरीन ने थुल थुल देह से हंसते हुए सुमित्रा की पीठ पर कमेन्ट दे मारा ।
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इसी तरह चलती रही हमारी मित्रता । साहित्य, कला, राजनीति, स्त्री -पुरुष सम्बन्ध,पति-पत्नी रिश्ते, मेरी अपनी शादी, नारी-विमर्श, फ़िल्में , सामयिक घटनाएँ, कालिज की राजनीति, चिकित्सा विषय, चरक, सुश्रुत, कश्यप, हिप्पोक्रेट, धर्म, दर्शन, अद्यात्म, विज्ञान ...लगभग प्रत्येक विषय पर चर्चाएँ होती थीं । प्रत्येक विषय पर उसकी स्वतंत्र राय व टिप्पणी होती थी । दर्शन, धर्म, इतिहास पर गहन अध्ययन न होने पर भी सामान्य ज्ञान व तीब्र विवेक-बुद्धि के आधार पर उसकी टिप्पणियाँ सटीक होती थीं । गायन, वादन, नृत्य में तो वह कुशल थी ही ।
छुट्टियों में जब वह दिल्ली जाती तो लौटकर विस्तार से बताती । रमेश के साथ कहाँ कहाँ घूमे , क्या क्या किया, क्या खाया ......। फिर अचानक चुप होकर कहती . अरे, मैं तुम्हें क्यों बोर कर रही हूँ । चलो भूल जाओ, काफी पीते हैं । मेरे पीछे पढाई ठीक से की या नहीं, नोट्स कहाँ हैं, क्या क्या लिखा सुनाओ । सारी कैफियत लेती .....और हाँ.. किसी को सिलेक्ट लिया या नहीं ।'
' कभी रमेश से मिलवाओ तो ', मैंने कहा ' वो क्या कभी तुमसे मिलने यहाँ नहीं आता ?'
' मैं ही हर छुट्टी में दिल्ली जाती हूँ, हर बार मिलना होता ही है । रमेश डे-स्कालर है, और छुट्टियों में पिता के नर्सिन्ग होम में काम,सीखना होता है । यहां आकर समय खराब करने का क्या फ़ायदा ।’ वह बोली, ’ तुम टालो मत, बताओ तो ।’
एक दिन काफ़ी हाउस में सुमि पूछ बैठी , ’ केजी ! कभी-कभी मुझे आश्चर्य होता है यह सोचकर कि क्या दो व्यक्ति इतने समान विचारों वाले हो सकते हैं । ’
' हाँ, यदि वे पिछले जन्म के भाई-भाई, भाई-बहन हों या प्रेमी-प्रेमिका...या फिर "आइड़ेंटीकल ट्विन्स " ( जुड़वां बच्चे ) ।'
वह आश्चर्य से बोली...'हर बात का उत्तर है तुम्हारे पास ..और तुरंत !'
' या फिर इस जन्म में अमर प्रेम के ध्वज वाहक ,' मैंने कहा ।
वह सोचते हुए होस्टल की और बढ़ने लगी , फिर मुडकर कहने लगी, ' अच्छा कोई लड़की पसंद की या नहीं ? और वह साईक्लिस्ट अनु ?'
मैंने कहा, सुनो ....
" ऊधो ! मन नाहीं दस बीस ।
एक था सो गयो संग राधिका, कौन फंसाए शीश ।"
' हूँ, तो एसा करती हूँ ......अच्छा चलती हूँ ।'
दो दिन तक सुमित्रा से बात ही नहीं हुई । वह अन्य छात्राओं से घिरी सीधी क्लास रूम में आती और उसी तरह सीधी हास्टल चली जाती । तीसरे दिन मैंने स्वयं ही रोक कर कहा, ' सुमि, तुमसे बात करनी है, चलो केन्टीन चलते हैं ।' वह चुपचाप बिना बात किये साथ चलने लगी ।
' क्या बात है, तबियत तो ठीक है, इतनी चुप चुप क्यों हो ? ये क्या है दो दिन से बात ही नहीं हुई ? क्या हुआ है ?'
' एक साथ इतने सारे सवाल ? बस यूंही मैंने सोचा मैं ही तुमसे मिलना -जुलना बंद कर देती हूँ, यही ठीक रहेगा, प्रेक्टिस भी होजायेगी ।' वह सीरियस बन कर बोली और चलने लगी ।
' अच्छा, उस बात पर नाराज़ हो अभी तक ।'
हूँ, वह मुस्कुराते हुए बोली और जाने लगी ।
' अरे, एसा मत करना' , मैंने कहा, ' आखिर ऐसी भी क्या जल्दी है, इतनी लड़कियां हैं, जब चाहें किसी को भी पटा लेंगें । कई को तो तुम जानती ही हो ।'
' अच्छा, एसा, सचमुच ?' वह पलटकर हंसने लगी ।
'क्या विश्वास नहीं है मुझ पर ?'
' येस ।' वह जाते जाते बोली ।
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' बधाई, केजी, वाह ! तुमने तो एक भी गोल नहीं होने दिया । तभी टीम जीत पाई ।' अंतर कालेज चेम्पियन शिप के लिए होरहे फुटवाल मैच के समाप्त होने पर सुमित्रा ने मैदान पर बधाई देते हुए यह बात कही । मैच विश्व-विद्यालय की टीम से था जो नगर की सशक्त टीम थी । मैच बड़ी कठिनाई से १-० से हमारे पक्ष में रहा । मैंने धन्यवाद कहा तो सुमि कहने लगी, ' अच्छा कृष्ण तुम सदैव बैक-कीपर के स्थान पर क्यों खेलते हो ? फारवर्ड खेलो तो शायद कुछ ओर गोल से जीतें ।'
' कुछ और गोल हो भी तो सकते हैं । भई, यह तो टीम-भावना का खेल है', मैंने चकित होते हुए कहा, 'कोई तो बैक रहेगा ही ।'
' पर नाम तो केवल गोल करने वाले का होता है।'
' क्या मैंने नाम के लिए कभी कोई काम किया है ?' मैंने हंसते हुए प्रति-प्रश्न किया । ' हम तो वैसे भी बैक-बेन्चर्स हैं और यदि एसा ही होता तो तुम मुझे क्रेडिट नहीं देरही होतीं ।'
' आप क्रिकेट खेला कीजिये । उसमें कोई बैक नहीं होता, सभी फ्रंट पर होते हैं, और सुमित्रा भी खुश।' कुमुद ने सलाह दी
' हाथ-पैर भी ज्यादा टूटते हैं ।' मैंने हंसते हुए कहा, ' क्या मंतव्य है आपका कुमुद जी ?'
सब हँसने लगे तो मैंने कहा, ' वैसे आपका परामर्श विचार योग्य है । धन्यवाद ।'
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वार्ड-क्लिनिक के लिए जब हम लोग मेडीकल वार्ड पहुंचे तो हाउस डा. मुकुलेश रंगनाथन व रेजीडेंट डा. पी के सिंघल एम.डी. को एक रोगी से जूझते देखा । रोगी आक्सीजन पर था व काफी समय से भर्ती था। दोनों पैरों की नसों में सेलाइन -ग्लूकोज़ व नॉर-एड्रेलिन ड्रिप चढाई जा रही थी । दोनों डाक्टर बारी बारी से रोगी के ह्रदय की मालिश व कृत्रिम श्वांस दे रहे थे । बीच बीच में कई बार सुई द्वारा सीधे ह्रदय में कोरामीन, एड्रेलिन व डेकाड्रोन भी दिया गया । लगभग आधे घंटे तक अथक परिश्रम के बाद भी रोगी को बचाया नहीं जा सका । एक बार पुनः रोगी की श्वांस, ह्रदय की धड़कन व आँख की पुतली देख कर उसे मृत घोषित कर दिया गया ।
' सर ! क्या उसके बचने की आशा थी ?' मैंने पूछा ।
' नहीं ।' डा. सिंघल बोले, ' सी ओ पी डी का पुराना रोगी था, ह्रदय व फैन्फड़े पूरी तरह से खराब हो चुके थे ।'
' फिर, इतना सब करने की, क्या आवश्यकता थी ?'
डा. सिंघल सब को लेकर नर्सेज चेंबर में आये। बोले, 'डाक्टर जहां जीवन का प्रश्न होता है, वहां और कोई प्रश्न नहीं होता । प्रश्न परिश्रम, खर्च या समय व्यर्थ होने का नहीं है, प्रश्न है...आशा, आस्था, कर्म, आत्म-संतुष्टि, रोगी व रोगी के परिजनों की संतुष्टि का ।'
' हम ये सब इसलिए करते हैं कि कहीं मन के कोने में डाक्टर को, रोगी के परिजनों को एक आशा होती है कि शायद कुछ क्षणों के लिए ही प्राण लौट आयें । शायद ईश्वर को मंजूर हो । यह आस्था है, यहाँ तर्क व नियम नहीं चलते, यह संसार है ।'
'चिकित्सक, यदि बचना तो है नहीं यह सोच कर प्रयत्न करना छोड़ दे तो उसे भी आत्मग्लानि रहेगी कि यदि प्रयत्न करते तो शायद......। अतः अपनी आत्म-संतुष्टि के लिए भी प्रयत्न करना आवश्यक है । साथ ही यदि प्रयत्न ही नहीं होंगे तो नए नए अनुभव, प्रयोग, आविष्कार व रोगी सेवा-उपचार में प्रगति कैसे होगी ? यह विज्ञान है । जान जाते समय रोगी ने न जाने किस किस को पुकारा होगा । शायद सबसे अधिक डाक्टर को । रोगी की आत्मा व शरीर भी तो अंतिम समय आदर व सहानुभूति चाहते होंगे । उसके परिजनों को भी पूर्ण उपचार व सेवा की संतुष्टि होनी चाहिए कि डाक्टरों ने तो पूरा प्रयत्न किया आगे ईश्वर इच्छा ... अन्यथा लापरवाही समझी जायेगी । क़ानून के अनुसार भी रोगी को यथासंभव बचाने के टर्मिनल उपाय करना व रिकार्ड रखना वैधानिक दायित्व है । फिर मिरेकल्स भी तो होते हैं न ?'
' यही है आज का प्रेक्टीकल सबक जो जीवन भर एक चिकित्सक को स्मरण रखना है । सहानुभूति, सहृदयता, दायित्व निर्वहन व कर्तव्य-पारायाणता ही एक चिकित्सक के व्यवहारिक गुण होते हैं । समझे ....डाक्टर कृष्ण गोपाल !'
' यस सर !' मैंने स्वीकृति में कहा ।
मुझे चुप-चुप चलते देख कर सुमित्रा मुस्कुराने लगी, तो मैंने पूछा ,' क्या बात है ?'
' मिला न शेर को सवा-शेर ।'
'क्या मतलब ?'
' तुम जैसे ज्ञानी को भी ज्ञान देने वाला मिला न ।'
' बहुत खुश हो ?'
' यस ।'
' सच है सुमित्रा ! हम जहां भी मानवीयता, सौहार्द व सहृदयता से चूकते हैं एवं किसी घटना, बिंदु या विषय पर गहराई से युक्ति-युक्त पूर्ण सोचने में लापरवाही करते हैं वहीं गलत निर्णय व सोच को आधार मिल जाता है यहीं तो अनुभव व वरिष्ठता की महत्ता है । हम चाहे जितने भी ज्ञानी क्यों न होजायं, अनुभवी व सीनियर, सीनियर ही रहेगा ।'
' हार को स्वीकारना व सत्य को तुरंत स्वीकार करना ही तो जीत है, जीवन है । तुम्हारी यही बात तो मन में अटक कर रह जाती है, कृष्ण ! मन को भटकाती है ।'
' चलो तुम भी आज खींच लो, अच्छा मौक़ा हाथ आया है', मैंने कहा, " मत चूके चौहान ।"
' बात ठीक है तुम कभी कभी ही तो मौक़ा देते हो खींचने का '
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फाइनल ईयर की परीक्षाएं समाप्त होने पर मैं केन्टीन में बैठा न्यूज़-पेपर उलट रहा था कि सुमित्रा आई और धम से बैठती हुई बोली , 'अब मुझे जाना होगा केजी' उसके स्वर में उदासी थी ।
" हाँ, कहाँ ? ' मैं सोचते हुए बोला , 'कब ?'
' भूल गए ?', 'ऐसे तो तुम मुझे भी भूल जाओगे। जाते ही। मुझे दिल्ली जाना है, सुन रहे हो न, कल ।' 'वह तो तुम हर बार जाती हो ।'
' हाँ, पर अब वापस नहीं आऊँगी ।'
ओह, ओह ! हाँ, वास्तव में , ' अब तो तुम्हें जाना ही है ।' मैंने अखबार एक तरफ रखकर कहा ।
' मेरी शादी पर आओगे ?'
' नहीं । बधाई, इंटर्नशिप भी वहीं करोगी ?'
' हाँ, अपनी शादी पर बुलाओगे ?'
' नहीं भी, और पता नहीं भी ।'
' हूँ, पक्के हो । सुमि कहने लगी,-
" तेरी दोस्ती का बोझ हमसे उठाया न गया ।
बस यही बोझ सा दिल में लिए फिरते हैं ।"
' वाह क्या धाँसू शे'र है सवा शेर है । इसे कहते हैं गुरु दक्षिणा ।'
' मुझे याद करोगे भी या " आउट आफ साईट आउट आफ माइंड "......'
' और तुम...' मैंने पूछा ।
' सुमि कहने लगी.....
" जब चाहूँ मन में चले आना,
मन मंदिर को महका जाना ।
यादें तेरी मन में मितवा,
बन करके सदा मधुमास रहे ।।
अच्छा, सुनो............
" तू दूर रहे या पास रहे,
यह अनुरागी मन यही कहे।
तेरे जीवन की बगिया में,
जीवन भर प्रिय मधुमास रहे ।"
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ट्रेन पर सुमि को बैठकर मैंने कहा, ' गुड बाय ।'
' बाय बाय' , उसने उदास होते हुए कहा । 'सचमुच बहुत याद आओगे ।' वह लगभग अश्रु पूरित नेत्रों से बोली ।
मैं मुस्कुराया तो कहने लगी , ' तुम्हारी आँखों में कभी आंसूं नहीं आते ?' 'भगवान करे न आयें कभी ।' मैं हंस कर रह गया ।
'याद रखोगे?' , सुमित्रा ने कहा ।
' नहीं ।' मैंने कहा ...........
" हम तसब्बुर में न तेरे ख्याल लायेंगे ,
आवाज़ दिल से देना, बस चले आयेंगे ।"
गाड़ी चल दी और वह हाथ हिलाती हुई चली गयी ।
.............. अंक आठ समाप्त .....क्रमश अंक नौ ...अगली पोस्ट में .....
2 टिप्पणियां:
सुन्दर प्रस्तुति। मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
dhanyavaad sarovar jee....
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