इन्द्रधनुष’ ------ स्त्री-पुरुष विमर्श पर एक नवीन दृष्टि प्रदायक उपन्यास...पिछले अंक आठ से क्रमश:......
अंक नौ ...
सोचते सोचते न जाने कब नींद लग गयी । सुबह किसी के झिंझोड़ने पर मैं जागा ।
' क्या है सुभद्रे ! सोने दो न ।'
' उठो, मैं सुमि हूँ, केजी ! तुम ट्रेन मैं हो घर में नहीं ।'
'ओह, मैं हडबडाकर उठा । सुमि फ्रेश होकर दोनों हाथों में कप पकडे खड़ी हुई थी ।'
' गुड मार्निंग ' मैंने कहा|
वेरी वेरी गुड है ये मार्निंग, तुम्हारे साथ कृष्ण, चलो काफी होजाय ।
हम दोनों ही हंस पड़े ।
'तुम तो एक दम घोड़े बेचकर सोरहीं थी, बेफिक्र । मैडम, ये ट्रेन है बैडरूम नहीं । सुना नहीं है--
"तेरी गठरी में लागा चोर , मुसाफिर जाग ज़रा ।"
'प्रथम क्लास ऐसी है, कौन चोर आता है । और गठरी में तो चोर जाने कब से लगा हुआ है ।' , वह मुस्कुराई ।
' फिर भी यात्रा में इतना बेफिक्र नहीं सोना चाहिए ।' मैंने सहज भाव में ही कहा ।
'तुम थे न तभी तो......।'
'इतना विश्वास है मुझ पर ?'
' क्या हुआ है तुम्हें ? पता भी है क्या कह रहे हो । चलो काफी ख़त्म करो ।'
' अच्छा, स्त्री-पुरुष मित्रता पर अब तुम्हारे क्या विचार हैं ?'
' आगये न अपनी पर ।' उसने बाल संवारते हुए कहा , ' वही, स्वस्थ मित्रता होनी चाहिए। जब तक एक दूसरे के बारे में पूर्ण ज्ञान न हो, नहीं होनी चाहिए । एक दम ख़ास विश्वासी मित्र के अलावा किसी के साथ एकांत में न जाना चाहिए न घूमना । एकांत में तो ख़ास मित्र के साथ भी नहीं । टाइम-टैस्टेड मित्र के साथ अकेले जा सकते हैं, तुम्हारे जैसे ।' उसने मुस्कुराते हुए कहा ।
' और मेरे जैसा विश्वासी मित्र धोका दे तो ?'
' हरि इच्छा ! मेरा दुर्भाग्य, ईश्वरेच्छा पर किसका वश । हमें तो अपना व्यवहार उचित प्रकार से करते रहना चाहिए, न कि "आ बैल मुझे मार । " दुनिया के कार्य तो चलते ही रहेंगे । वैसे तुम्हारे अपने मस्तिष्क में तो यह बात कभी आई ही नहीं होगी ।', वह खुलकर हंसी ।
' आं....ss आई नहीं होती तो बात निकलती ही कैसे ? और तुम्हारे अपने मस्तिष्क में .....क्या मस्तिष्क भी दो तरह के होते हैं मनुष्य के पास...एक अपना एक पराया ?'
' हाँ, आई होगी पर दूसरों के लिए, अन्य के सन्दर्भ में । जब हम अपने लिए सोचें तो अपना स्वयं का मस्तिष्क और अन्य लोगों के सन्दर्भ में सोचें तो सामाजिक मस्तिष्क कार्य कर रहा होता है । तुम्हारे पास तो अवश्य ही दो हैं ।' वह हास्य स्मित अधरों से बोलती गयी ।
' वाह ! क्या नयी रिसर्च की है ।' मैंने हंसते हुए सर हिलाकर कहा ।'
'कब तक दूसरों के लिए ही सोचते रहोगे, जीते रहोगे ?'
' हम सदा अपने लिए ही तो जीते हैं। मैं सदा ही तो यह कहता हूँ । अच्छे बनने के लिए ही तो, कि लोग हमें अच्छा कहें, प्रशंसा करें , हम दूसरों के कार्य करते हैं । '
'वस्तुतः व्यक्ति की स्वयं अकेले की क्या स्थिति होती है ? हम वह होते हैं जो अन्य हमें कहते हैं, समझते हैं । हम चाहे लाख तीसमार खां हों,यदि अन्य नहीं समझते तो हम कुछ भी नहीं हैं । यह व्यवहारगत मूल संसारी तथ्य है । वीतरागी की बात पृथक है । परन्तु वीतरागी भी तो वही बन सकता है जिसने पहले राग को जाना हो तब त्यागा हो ।'
' इसी प्रकार जैसे नारी की पिता, पुत्र, भाई , पति या मित्र के बिना कोई पहचान नहीं होती। उसका नारीत्व कैसे सफल होगा ? उसी प्रकार पुरुष की भी स्थिति है। नारी, पत्नी, भगिनी, मां, पुत्री, मित्र के बिना कौन उसके पुरुषत्व को सराहेगा और क्यों । अतः स्वयं को अच्छा साबित करने के लिए ही हम दूसरों पर कृपा व उनके कार्य करते हैं ।'
' मैं तुमसे ही तो नहीं जीत पायी, कृष्ण ।'
' तो वैसे तुमने विश्व-विजय कर लिया है, क्या !'
' वह हंसकर रह गयी। फिर बोली, ' अपने आस पास का संसार तो मैंने विजय किया ही है ।'
' बड़ी संसारी होगई हो । तो सांसारिक समता समानता पर अब क्या विचार बने हैं तुम्हारे ?'
वह हँसने लगी, फिर बोली, ' सभी एक समान कैसे हो सकते हैं ? मैं प्रथम श्रेणी में यात्रा कर रही हूँ, मेरे पास किराया देने को धन है ।क्योंकि मैंने परिश्रम व साधना की है । वह सड़क पर खड़ी भिखारिन मेरे बराबर कैसे हो सकती है । वह अपने कर्मों के कारण वहां है, मेरे कारण नहीं । मनुष्य के कर्म ही यह फैसला करते हैं कि उसे कहाँ होना चाहिए । बस उसे परमार्थ-हित , स्वार्थ रहित कर्म करते जाना चाहिए ।'
' क्या यह गर्व नहीं है ?'
' यह आत्मविश्वास है, गर्व नहीं, कृष्ण ! मुझे पता है तुम जानते हो । और गर्व करूंगी, वो भी केजी के सामने ?' वह जोर से हंसी, ' इसका यह अर्थ भी नहीं कि हम उस भिखारिन से घृणा करें या प्रताड़ित करें । यह ईश्वर का काम है, हमारा नहीं । हम चाहें तो उसकी सहायता कर सकते हैं ।'
' और जो लोग अपनी साधना-सिद्धि का दुरुपयोग करके, या अवैध और अनधिकृत ढंग से कमाई करते हैं उनका क्या इस स्थिति से कोई सम्बन्ध है ?'
' हाँ, अवश्य ही वे उसकी व देश समाज के इस स्थिति के लिए दोषी हैं । तभी तो भिखारी को एक पैसा दे देना या गरीब की सहायता कर देने वाला भारतीय स्वभाव यह दर्शाता है कि ऐसे व्यक्तियों के पाप-पूर्ण कार्यों का हम कुछ निराकरण करके अपने दायित्व की कुछ पूर्ति कर रहे हैं । और यदि जाने अनजाने उस स्थिति के लिए कहीं हम भी थोड़ा सा जिम्मेदार हों तो उसका प्रायश्चित ।'
' और यदि स्वयं तुमको भी ऐसी परिस्थिति से दो-चार होना पड़े तो ?'
'वह भी मेरे कर्मफल के कारण होगा, कोई गिला-शिकवा नहीं। झेलना चाहिए ।'
' कहना बहुत आसान है', मैंने कहा ।
' हाँ, सचमुच, पर कठिन कार्य आने पर ही तो इंसान निखरता है । वैसे कौन सा अच्छा कार्य सरल होता है ?'
ओह, सुमि ! 'यू आर स्टिल जीनियस ।'
' स्टिल !...'तो क्या मुझे उम्र के साथ कम अक्ल होते जाना चाहिए ? या तुम्हारा मतलब है तुमसे दूर रहकर ..'
" वह दूर भी है पास भी है,
दिल के करीब रहता है ।
जोशो जुनूँ को मेरे ,
कोई तो हवा देता है ।।"
मैंने उसे ध्यान से देखा । पच्चीस वर्ष बाद की सुमि; वही तेज तर्रार आत्मविश्वास से युक्त गहरी आँखें , मर्यादित पहनावा, गरिमामय सौन्दर्य । कनपटी पर झांकते समय की कहानी कहने को आतुर रुपहले बाल ।
' क्या देख रहे हो ?'
" दिल ढूँढता है फिर वही सुमि वो रात दिन ।
बैठे है तसब्बुर में जवाँ यादें लिए हुए ।।"
' तुम तो वैसे के वैसे हो, योगीराज !'
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निर्धारित कार्यक्रमानुसार हम लोग चौपाटी, मैरीन ड्राइव आदि घूमते रहे । भेलपूरी चाट आदि के वर्किंग लंच के बीच पुरानी यादें ताजा करते रहे । केरीयर, परिवार सभी के बारे में बातें होती रहीं । काव्य-संग्रह के अंश सुनकर पुरानी सुमि लौट आई थी । जम कर प्रशंसा व समीक्षा करती रही । बोली -
'कुछ मुझे भी समर्पण करो ।'
' सब तुम्हीं को अर्पण है, अब समर्पण की बात कहाँ ?'
हूँ, सुमि कहने लगी, 'सच कृष्ण, जब भी मैं उदास या डिप्रेस्सेड होती हूँ तो चुपचाप झूले पर बैठकर कालिज व तुमसे जुडी यादों में खो जाती हूँ, जो मुझमें पुनः जीवन व नवीनता का संचार करती हैं । सच है, सुखद, सुहानी यादें बड़े सशक्त टानिक होती हैं । क्या मैं विभक्त व्यक्तित्व हूँ । तुम तो अपने बारे में कहते ही नहीं ।'
' नहीं, सुमि ! तुम अभक्त, अनंत, परमसुखी व्यक्तित्व हो, और मैं भी ।'
' हर बात का उत्तर है तुम्हारे पास और तुरंत ?' चलो अब कुछ सुना दो ।
हूँ, मैंने कहा, सुनो ----
" प्रियतम प्रिय का मिलना जीवन ,
साँसों का चलना है जीवन ।
मिलना और बिछुड़ना जीवन ,
जीवन हार भी जीत भी जीवन ।।"
सुमि सुनाने लगी ---
"प्यार है शाश्वत कब मरता है,
रोम रोम में रहता है ।
अज़र अमर है वह अविनाशी,
मन में रच बस रहता है ।।"
' ये कहाँ से याद किया ?', मैंने पूछा ।
' मैंने तुम्हारी हर पुस्तक खरीदी है ।'
' ओह ! शायद एक अकेली तुम ही खरीदती हो मेरेी पुस्तकें ?’ हम दोनों हंसने लगे ।
’ ये क्या होगया है हमें केजी ? वह सेीरियस होकर बोली, ’ साहित्य में हमें कोई रूचि ही नहीं रह गयी है । न संस्कृति में न अध्यात्म में । सत्साहित्य आज कल पढ़ा ही नहीं जाता । स्कूल व कालिज के बच्चे जादू की, चोर-उचक्कों की, फंतासी वाले अंग्रेज़ी उपन्यास व पुस्तकें पढ़ने में व्यस्त है । सामान्य जनता कामर्शियल पेपर, चटपटे नाविल पढ़कर फैंक देने में लगी है । अंग्रेज़ी नावेल हम लोग भी पढ़ते थे, फ़िल्में भी देखते थे । पर साहित्यिक रचनाएँ -शर्त, प्रसाद, टेगोर, प्रेमचंद, गोर्की, निराला,महादेवी, पन्त , वर्ड्स वर्थ , शेली, कीट्स आदि को भी कितना पढ़ते थे । सिर्फ एकेडेमिक क्लासेज़ में ही नहीं, मेडीकल के कठिन अध्ययन के साथ भी ।'
' आज चारों और सभी वर्गों में अंतर्द्वंद्व व असंतुष्टि का यही तो कारण है कि उत्तम साहित्य के पठन -पाठन का मार्ग अवरुद्ध होगया है। साहित्य ही तो इतिहास, धर्म व संस्कृति का प्रतिपादन करता है । साहित्य क्या है ? यों ही नहीं होता काव्य में कोई कथा, कथ्य व तथ्य । मानव जीवन की कथाओं, ज्ञान-विज्ञान के समन्वित अनुभवों का निचोड़ होता है साहित्य, उनका इतिहास होता है साहित्य । इतिहास जाने बिना हमें अनुभवजन्य ज्ञान कैसे प्राप्त हो सकता है ? इसी ज्ञान के न होने से आज का युवा व प्रौढ़ वर्ग सामाजिक व मानवीय ज्ञान से अछूता रहता है और केवल कार्यात्मक, प्रोफेशनल व दैनिक व्यवहारिक ज्ञान को ही ज्ञान मानकर सब कुछ ज्ञाता होने का भ्रम पाले रहता है । जीवन का मूल उद्देश्य व दिशा न पाकर अंतर्द्वंद्वों में घिरा रहता है या पलायनवादी, अति-भौतिकवादी बन जाता है ।' मैंने विस्तार से कहा । 'परन्तु त्रुटि व भूल कहाँ हुई ?' क्या सारा दोष आज की पीढी का ही है ?' मैंने शायद स्वयं से ही प्रश्न किया ।'
'भूल हमारी ही है केजी शायद । उन्नति, विकास, भौतिकता की चकाचौंध व शीघ्रातिशीघ्र फल प्राप्ति की दौड़ में एवं अंधाधुंध पाश्चात्य नक़ल करके बराबरी की होड़ में, सदियों की दासता के फलस्वरूप अपना गौरव, अपनी संस्कृति व् इतिहास भूले हुए हम लोग - अपनी स्वयं की अस्मिता, भारतीय भाव, भाषा व संस्कारों को संभल कर नहीं रख पाए तथा आगे आने वाली पीढी के अनुकरण व अनुसरण के लिए एक उदाहरण प्रस्तुत करने में असफल रहे । जो राष्ट्र व देश एक लम्बी राजनैतिक गुलामी में भी सिद्धांततः अपनी संस्कृति व धर्म बचाए हुए था ; राजनैतिक स्वतन्त्रता मिलने पर पाश्चात्य रंग-ढंग व विश्व-राजनीति का शिकार होकर सांस्कृतिक रूप से गुलाम होगया । सरकार, समाज व बौद्धिक संसार में सभी में वही भारतवासी हैं तो वही स्थिति है ।', सुमि ने अपना विचार व्याख्यायित किया ।'
' और यदि साहित्य समाज का दर्पण है तो दर्पण में झांके बिना समाज कैसे दिखाई देगा । उत्तरोत्तर विकास केी से सीढी कैसे बनेगी ? बिना इतिहास व शास्त्र, सत्साहित्य के कोई भेी समाज व राष्ट्र कब उन्नत हुआ है ?’ सुमि ने पुनःकहा ।
'पर साहित्यकार भी आज कहाँ अपना दायित्व निभा रहे हैं । सुरा सुन्दरी, कार, बंगलों के लिए अंधी दौड़ में शामिल होकर, सोफों पर बैठकर प्रेमगीत,गरीबी, पतन,रोंर-गाने के, सरकार व समाज विरोधी कथानक व गीत सिर्फ लिखकर बिना किसी समाधान प्रस्तुति के...वे क्या कहना चाहते हैं? व्यर्थ के व्यंग्य, द्विअर्थी हास्य, क्लिष्ट भाषा, पान्डित्य-प्रदर्शक कवितायें, पुराने घिसे-पिटे गुरुडम, अखाड़े बाज़ी, गली गली में खुलती साहित्यिक संस्थाएं, जोड़ तोड़ कर डिक्शनरी रखकर लिखने वाले कवि, टुट पूंजियों से लेकर बड़े बड़े समाचार पत्र-पत्रिकाएं व प्रकाशक सिर्फ कमाई का ज़रिया ढूँढने में लगे हैं। साहित्य --अर्थात समाज व स्वयं साहित्य का व्यापक हित कौन सोच रहा है? सूर तुलसी कबीर जैसा उपयोगी, व्यवहारिक साहित्य कौन रच रहा है। क्या प्रकाशकों को, बुक सेलरों को, मुद्रकों को अधिकार है कि वे तय करें साहित्य क्या व कैसा हो । भाषा व साहित्य कैसा हो। क्या व कौन छपना चाहिए ?' मैंने पूछा ।
नहीं, सुमि कहने लगी ,' उन्हें बस छापना, प्रकाशन व बेचना चाहिए, उन्हें सही, शुचि सत्साहित्य के प्रकाशन के उन्नयन पर ध्यान देना चाहिए । साहित्य की दिशा व गुणवत्ता पर विश्व-विद्यालय के सम्वद्ध शिक्षकों, विद्वानों व विज्ञ- साहियाकारों का मंतव्य ही मान्य होना चाहिये, जहां आर्थिक दृष्टि भाव न हो ।
आज समाचार पत्रों के संवाददाता, पत्रकार, सम्पादक, मालिक, प्रकाशक, पुस्तक-विक्रेता आदि साहित्य के दिशावोधक बन गए हैं जो मूलतः शासन-प्रशासन की अज्ञानता, अनुभवहीनता, उदासीनता व अक्षमता से होता है । आर्थिक दृष्टि के साथ गुणवत्ता का भाव रखना दुष्कर है । प्रकाशक क्या छाप रहे हैं, कैसा व क्यों छाप रहे हैं उस पर विज्ञ-समिति का नियंत्रण व समय समय पर विचार विमर्श होना चाहिए ।
' और यदि विज्ञ समिति भ्रष्टाचार में लिप्त होजाय तो ।'
' सही है, यह होता है, हो सकता है ।' सुमि बोली,' परन्तु गुणवत्ता की मात्रा तो अधिक रहेगी। पूर्णता के लिए तो फिर घूमकर हम वहीं पहुंचते हैं। मानव मात्र को ही सच्चरित्र होना पडेगा, तभी सब कुछ ठीक होगा । "सौ बातों की एक बात " हज़ार प्रश्नों का एक उत्तर ।'
और यह कैसे होगा ? मैंने पुनः पूछा ।
आत्मानुशासन से, अन्य चाहे कुछ भी करते हों परन्तु हम असत्याचरण नहीं करेंगे.....की भावना से । हाँ, यह दुष्कर कार्य है पर असंभव नहीं । हम प्रारम्भ तो करें ....कहीं से भी....सभी अपने अपने क्षेत्र में ....घर से...सत्साहित्य से.....जैसे तुम....वह हंसते हंसते कहती गयी ।'
” क्या सोच रहे हो?
’आँ.....s s.. मुझे तुम्हारा कालिज का पहला दिन व भाषण अचानक याद आ गया ।
’अब छोडो भी मत याद दिलाओ ।’
”चलो कुछ और बात की जाय”
हाँ, तुम्ही छेड़ो, सुमि बोली ।’
’अच्छा बताओ, आज बहु प्रचारित मनुवादी व्यवस्था पर तुम्हारे क्या विचार हैं”
'आधारभूत रूप में सवर्ण और अवर्ण का अर्थ मैं यह लगाती हूँ कि वर्ण का अर्थ होता है 'रंग' . अर्थात विविधता । अतः जिसके व्यवहार में , बोलचाल-कार्य में रंग अर्थात वैविध्य है , गत्यात्मकता है, प्रगति है, युक्ति-युक्तता है..वह समाज 'सवर्ण' तथा जिसमें रंग नहीं हैं अर्थात व्यवहार-विविधता, यथायोग्य निर्णायकता नहीं, गति नहीं वरन एकरूपता , जड़ता, जड़ पशुओं जैसी समूह-प्रकृति व सोच है, व्यक्तिगत स्वतंत्रता व वैविध्य चिंतन नहीं वह 'अवर्ण' है । अज समस्या यह नहीं कि मनुवादी सवर्ण एनी पर राज कर रहे हैं अपितु आज राजनैतिक दल व शासन मनुवादी सवर्ण व्यवस्था भूल चले है और सभी समूहवादी, जड़वादी अवर्ण व्यवस्था के पोषक हैं । यहाँ जाति व धर्म का अधिक अर्थ व महत्त्व नहीं है।
मैं उसे एकटक देखता रहा तो सुमित्रा बोली ,' इसे क्या देख रहे हो, क्या ये विचित्र व्याख्या है?'
' हाँ, सो तो है ही, नवीन व्याख्या है ।'
'पर मुझे विश्वास है कि तुम इसपर पहले ही सोच चुके हो । '
'सच '
'क्या मैं गलत हूँ ?'
नहीं, मैं तुमसे सहमत हूँ । अच्छा मैडम! ये किटी- पार्टी के बारे में भी स्पष्ट करें ।' मैंने बात को आगे बढाया ।
किटी-पार्टी विदेशी.......अरे! कहीं तुम अपने कथा-उपन्यास आदि की सामग्री तो एकत्र नहीं कर रहे हो ।' उसने अचानक आँखों में झाँक कर पूछा । मैं मुस्कुराया तो कहने लगी, चलो बताये देती हूँ, क्या याद करोगे । क्या पता मेरी ये बातें ही तुम्हारे उपन्यास, काव्य आदि साहित्य में आकर अमर होजायं और मैं भी । फिर कल मिलें न मिलें । क्या पता ।'
किटी पार्टी भी तमाम अन्य रीतियों की भाँति विदेशी नक़ल है। भई, पहले भी अपने यहाँ स्त्रियाँ खाली समय में आपस में उठती बैठती थीं । एक दूसरे के घर जाना व गीत, संगीत, नृत्य, नाटिका, वादन, चित्रकला, कढाई-सिलाई-बुनाई , कला-कौशल, हंसने-बोलने में समय व्यतीत करती थीं। आपस में सहयोग भी समाज सेवा भी । इन कला-कौशलों का व्यवसायीकरण होजाने के बाद यही साडी-गहनों की चर्चा में परिवर्तित होगया, परन्तु लेन-देन से कोई अभिप्राय: नहीं था। क्योंकि आजकल हर कार्य पैसों से एवं धन एकत्र करके किया जाने लगा है वही 'किटी ' है । जो धन के दिखावा व नंबर दो के काले पैसे के खर्च का जरिया बन गया है और मनोरंजन सिर्फ नाम को उसका सह-जरिया ।'
अच्छा केजी, तुम्हें पता है डा. सरला भारद्वाज इन्डियन मेडीकल कोंसिल की अध्यक्ष बन गयी हैं ।
' डा. सरला ...अपने बैच में तो कोई नहीं थी।'
नहीं, पर याद करो, देखें कुछ सुधार हुआ है या नहीं । कहाँ तक पहुँच पाते हो। वे जनरल सर्जन हैं ।
' अरे वही न, एम. एस. जनरल सर्जरी में किया था और देश की पहली महिला सर्जन हैं । सीनियर बीच की डा. भारद्वाज ।'
हाँ, वही । वाह ! याददास्त सुधर गयी है, क्या बात है । अभी कल की ही तो बात लगती है जब कालिज में गरमा-गर्म खबर फ़ैली थी की कालिज के इतिहास में पहली बार किसी महिला डाक्टर ने एम् एस शल्य चिकित्सा में करने का निश्चय किया है और वह भी ग्रेजुएशन में टापर ने। जो कई पदक प्राप्त हैं ।
और हम लोग आउट-डोर व वार्ड में विशेष रूप से देखने जाते थे कि वे कैसे काम कर रही हैं , कौन बोल्ड लेडी हैं ।
कालिज व अस्पताल में काफी समय तक बहस चलाती रही कि वे सर्जरी में चल पाएंगी कि नहीं । कई बार तो लडके-लड़कियों में काफी तकरार भी हुई कि ' हम किसी से कम नहीं '- और तुम चमगादड़ की भाँति पाले बदलते रहते थे ।' वह हंसकर कहने लगी , ' फिर मुझे बचाव करना पड़ता था ।'
हाँ, हाँ, मैंने टालते हुए कहा , ' पर आगे अन्य महिला डाक्टरों ने कहाँ अधिक दिलचस्पी दिखाई इस क्षेत्र में । वही अपने स्त्री -चिकित्सा व बाल-चिकित्सा या पेरा-मेडीकल विषयों में ही जाती रहीं ।
परन्तु 'इक दिया है बहुत रोशनी के लिए' उन्होंने तो पीछे मुड़कर नहीं देखा । देश की प्रथम महिला सर्जन बनीं, दिल्ली विश्व-विद्यालय की 'डीन ' और आज सर्वोच्च पद पर । देश-विदेश में खूब नाम कमाया । अब तो तमाम महिला चिकित्सक हैं इस फील्ड में ।'
' बड़ी अच्छी धमाकेदार खबर है, सुमि !'
'मुझे पता था तुम सुनकर खुश होगे ।' सुमि मुस्कुराकर कहने लगी,' उस दिन भी वो खबर मैंने ही दी थी सबसे पहले तुम्हें । याद है जब भी एसी कोई नयी बात होती या सुनते तो तुम गुनगुनाया करते थे....
" मोड़ जायेंगे जमाने की कई राहों को,
करके नए रंग जमाने की नज़र जायेंगे ।"
' वाह ! तुम्हें याद है अभी तक ये शेर ।' मैंने आश्चर्य से कहा ।
कैसे और क्यों भूलूँ ? क्या सबसे पहले मेरे लिए नहीं कहा गया था । पर अब तो वह पूरी ग़ज़ल होगई होगी । सुनाओ न, वह आग्रहपूर्वक बोली । मैंने सुनाया --
" अपने अशआर में हमने तो संजोया है जहां ,
मुड़के चल देगा मेरे साथ जहां जायेंगे ।
बात मेरी न सुने सारा ज़माना चाहे ,
चन्द जाहिद तो सुनेंगे औ सुधर जायेंगे ।
बात तेरी हो मेरे प्यार, मेरे देश अगर,
हम तो दीवानगी की हद से गुज़र जायेंगे ।
मेरी यादों में न लग पाएंगे मेले लेकिन,
तेरी गलियों में किये याद मगर जायेंगे ।
केजी' इक रोज़ चले जायेंगे ज़हाँ से लेकिन ,
बन के खुशबू तो ज़माने में बिखर जायेंगे ।। "
' बस- बस चुप करो, क्या कह रहे हो । क्या पता कब कहाँ और कौन पहले जाय ।', वह बोल पडी ।
'कब जा रही हो हो ? ' मैंने पूछा तो मुस्कुराती हुई कहने लगी ...
" बात मीठी हो या तीखी हो, तेरी हो अगर,
तेरी हर बात पै चाहोगे तो मर जायेंगे ।"
आपने पूछा है कि अब आप चले जायेंगे ,
आप कह देंगे कि रुक जाओ तो रुक जायेंगे । "
और वह कोहनी रेत पर टिकाकर, हाथों पर चेहरे को रखकर मुस्कुराने लगी । बोली , ' आज शाम को चार बजे की फ्लाईट से जारही हूँ, यहाँ का कार्य जल्दी समाप्त होगया । '
" रास्ते तय हैं, और तय हैं मंजिलें भी केजी,
अपनी अपनी राह यूंही साथ चलते जायेंगे ।"......मैंने कहा तो हंसकर बोली,....वाह ! क्या बात है, अभी भी दम है। हाथ चूमने को, पैर छूने को दिल चाहता है तुम्हारे तो केजी ! वह दोनों हाथ जोड़कर, सर झुका कर कह गयी......
" दिल की लगी इस दिल्लगी पर
क्यों न मर जाये कोई ।"
और वह खिलखिलाकर हंसी तो हंसती ही चलेी गयी ।
दो बज रहे हैं, मैंने याद दिलाया ।
ओह! वह चुप होते हुए बोली , ' समय कितनी जल्दी बीत गया ?'
’एयरपोर्ट छोड़ने चलूँ’
' हाँ ।'
हम टैक्सी लेकर सुमि के गेस्ट हाउस होते हुए एयरपोर्ट पहुंचे । सुमि ने पूछा--
' याद करोगे ?'
’नहीं’ , मैंने कहा ---
" दिल में ही सूरत बसी है यार की ,
जब ज़रा गर्दन झुकाई देख ली।"
लाउंज के कोने में खड़े होकर अचानक सुमि ने कहा, " मुझे किस करो कृष्ण ! "
” क्या कह रही हो, क्या पागलपन है सुमि !’ मैंने आश्चर्य से कहा ।
'आज मैं ही कह रही हूँ । यही कहा था न तुमने पहली मुलाक़ात में ?' वह सोचती हुई बोली ।
मैंने होठों से उसके माथे को छुआ तो वह खिलखिलाकर हंस पडी । 'मैं क़र्ज़ मुक्त हुई केजी । अब चैन से जा सकूंगी, कहीं भी ।' वह गहराई तक मेरी आँखों में झांकते हुए बोली ।
'और अब तक का सूद ।' मैंने हंसते हुए कहा ।
’अगले जन्म में ।’
’आशा है अगले जन्म में भी हम पक्के मित्र रहेंगे ।’ मैंने अनायास ही कहा ।
'नहीं, पति-पत्नी ।'
’ व्हाट ?... क्या !’
'अगले जन्म की प्रतीक्षा करो, केजी ।' और वह तेजी से बोर्डिंग लाउंज में प्रवेश कर गयी ।
------------ अंक नौ समाप्त , क्रमश अंक दस ....अगली पोस्ट में ।
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