आर्यों का मूल स्थान
कहाँ था --
पाश्चात्य विद्वान् भारत के प्रति अज्ञान एवं अपनी हेय दृष्टि के कारण
आर्यों को भारत के बाहर से आने की गाथा तो कहते रहते हैं परन्तु आज तक यह निश्चित
नहीं कर पाए कि वे कहाँ से आये थे | कुछ सिद्धांत इस प्रकार हैं---
१.बहुप्रचारित तथ्य – पोंटिक स्टेपी
प्रदेश –अर्थात आज का रूस, यूक्रेन, कजाखिस्तान ..
२..अन्य सिद्धांत के अनुसार वे अनातोलिया
अर्थात आज के तुर्कुस्तान से थे |
३. हिंदुत्व का भारतीय मूल का
सिद्धांत—बेल्जियम इन्डोलोजिस्ट –कोनरेड एल्स्त के
अनुसार ---अपने मूल स्थान भारत से आर्य सारे
विश्व में फैले ---इस सिद्धांत को पश्चिमी राजनीति नहीं मानती |
४.जार्ज फ्यूरास्तीं, सुभाष काक ,डेविड फ्राउले
द्वारा १९९५ में बुक - In Search
of the Cradle of Civilization: New Light on Ancient India –
अमेरिकन थीओसोफीकल सोसायटी द्वारा प्रकाशित--- में स्थापित किया गया है कि आर्य भारत के ही निवासी थे और यहीं से मानव बाहर
फैला | ऋग्वेद इसी भूमि पर लाखों वर्ष पहले लिखा गया एवं आर्य लोग लाखों
वर्षों से भारत-भूमि के वासी थे जहां उनहोंने पूर्व-भारोपीय विभिन्न बोलियों को
मिलकर संस्कारित/शोधित करके संस्कृत भाषा का प्रचलन किया |
सिद्धांतों ३ व ४ को पाश्चात्य विद्वान् नहीं मानते यह वस्तुतः
अंग्रेज़ी / योरोपीय अज्ञान व राजनीति का भाग है कि
भारत कभी कहीं कुछ था ही नहीं | उनका सारा इतिहास योरोप से प्रारम्भ
होता है वहीं ख़त्म | यह सब झूठ एवं भ्रामक है —यह
एसा ही है जैसे गाड़ी को घोड़े के पीछे जोतना| भारतीय विद्वान् बाल
गंगाधर तिलक भी आर्यों के मूल स्थान को उत्तरी ध्रुव मानते थे | वस्तुतः वह समस्त
क्षेत्र, यूरेशिया ..जम्बू द्वीप ही था, जिसमें भरत-खंड था |
आदि मानव -परिगमन –प्रथम-----
ऋग्वेद में बार बार पुरा उक्थों का वर्णन आता है, अर्थात
ऋग्वेद के पहले भी पूर्व-वैदिक संस्कृत भाषा, समाज
व संस्कृति रही होगी | वस्तुतः गोंडवाना लेंड में उत्पन्न जीव व आदि मानव, भारत-प्रायद्वीप
के अफ्रीका से टूटकर उत्तर की और प्रयाण पर यूरेशियन प्लेट से टकराने पर, मध्यवर्ती
टेथिस सागर की विलुप्ति पर दोनों भूखंडों
के मिल जाने से मिले मार्ग पर दक्षिण-प्रायद्वीप के गोंडवाना क्षेत्र से विभिन्न
टोलियों की विविध शाखाओं में उत्तर की ओर चलता हुआ एशियाई क्षेत्र (बाद के हिमालय
पार –सुमेरु क्षेत्र, मानसरोवर
क्षेत्र –हिमालय अस्तित्व के पूर्व ) में पहुंचा, स्थिर
हुआ एवं मानव में विक्सित हुआ व फैला |
आदि-मानव
परिगमन –द्वितीय--
अतः मानव की उत्पत्ति
सुमेरु-मानसरोवर क्षेत्र में व विकास
सप्त-सिन्धु- भारत में हुआ— मानसरोवर क्षेत्र से सरस्वती नदी के किनारे-किनारे
सर्वप्रथम दक्षिण-पश्चिम की और प्रयाण करता मानव सप्त-सिन्धु क्षेत्र पहुंचा व
विकसित व उन्नत हुआ ) यहाँ
उपस्थित दक्षिण प्रायद्वीप से उत्तर की ओर क्रमिक रूप में शाखाओं में आने वाली
विभिन्न काल व स्थानों पर स्थिर व विविध रूप में वर्धित व विक्सित होती जारही,
सांस्कृतिक विकास के विभिन्न सोपानों पर स्थित मानव टोलियों से मिश्रित हुआ | ...यहीं की
प्रोटो-भाषा ...प्रथम भाषा- पूर्व वैदिक प्रोटो-संस्कृत या प्रोटो भारोपीय थी जो
वस्तुतः हिमालय के उत्थान से पूर्व समस्त
यूरेशिया या वृहद् भारतीय भूखंड की स्थानीय, कबीलाई भाषाओं
के संस्कारित योग से बनीं थी...हरप्पा आदि सभ्यताएं जो संस्कारित होती जा रही थी पूर्व-वैदिक संस्कृति
से वैदिक संस्कृति के रूप में --|
प्रथम मानव परिगमन -हिमालय के उत्थान से पूर्व समस्त उत्तराखंड – वर्तमान
उत्तरी भारत, पंजाब –सिंध-अरब, ईरान-पर्सिया, तुर्की, समस्त
योरोप व एशियाई देश, रूस-चीन आदि एक ही भूखंड थे केश्पियन
सागर केंद्र में था|
विभिन्न स्तरों पर उन्नत मानव के सप्त-सिन्धु
क्षेत्र से उत्तर- पश्चिम की ओर प्रयाण के साथ भाषा भी सुदूर सारे
यूरेशिया -अफ्रीका
तक (सारे तथा कथित जम्बू-द्वीप
में ) फैलती गयी जो अपने सामयिक स्तर के अनुसार योरोपीय देशों में
विभिन्न स्थानीय भाषाओं के नाम से प्रयोग में आती गयी
..मानव .मूल भारतीय
भूभाग से जितनी दूर चलते गए संस्कृति व भाषा का समयानुसार
विकास व परिवर्तन
होता गया ....विश्व की सभी भाषाओं के शब्द आपस में मिलते
-जुलते हैं जो किसी न किसी संस्कृत ( एवं
हिन्दी भी ) के पर्यायवाची से समनुरूप हैं| यहाँ
तक कि देवता-देवियाँ व पूजा पद्दतिया भी लगभग समान हैं, शक्ति
पूजा व लिंग पूजा का अस्तित्व समस्त विश्व में है | पश्चिम
के धर्मों व ग्रंथों कथाओं में भारत या पूर्व का वर्णन है परन्तु पूर्व के पुरा
ग्रंथों धर्मों में पश्चिम का वर्णन नहीं है अपितु जम्बू
द्वीप का वर्णन है जो समस्त यूरेशिया का वैदिक नाम है जहां समस्त सुर-असुर-मानव, आर्य-अनार्य
जातियां रहती थीं | अवेस्ता
में वैदिक वर्णन है परन्तु वेदों में अवेस्ता का वर्णन नहीं है अतः वेद मूलतः
पूर्व-वैदिक, वैदिक संस्कृत के आदिम-श्रुति परम्परा
से थे अवेस्ता से बहुत पहले | अतः आर्य भारतीय भूखंड के मूल निवासी
थे जहां से समस्त विश्व में फैले अपनी भाषा व सनातन-वैदिक संस्कृति सभ्यता के साथ | | हम कुछ बिन्दूओं को इस प्रकार स्पष्ट करने का प्रयास
करेंगे ---
१. पश्चिम के धर्मों व ग्रंथों कथाओं
में भारत या पूर्व का वर्णन है परन्तु पूर्व के पुरा ग्रंथों, धर्मों में
पश्चिम का वर्णन नहीं है अपितु जम्बू द्वीप का वर्णन है जो समस्त यूरेशिया का
वैदिक नाम है|
२. अवेस्ता में वैदिक वर्णन है परन्तु वेदों
में अवेस्ता का वर्णन नहीं है अतः वेद व संस्कृत मूलतः पूर्व-वैदिक, वैदिक
संस्कृत के आदिम-श्रुति परम्परा से थे अवेस्ता से बहुत पहले |
३. इसे इंडो-योरोपियन, भारोपियन
परिवार या इंडो-योरोपियन, भारोपियन भाषा या प्रोटो-इंडो-योरोपियन
कहा जाता है –न कि योरो-भारतीय ..अर्थात भारत में
पहले योरोप में बाद में –भारत से योरोप में प्रसार---संस्कृति
से यूरेशिया के समस्त क्षेत्रों की भाषा बनी
| विश्व की सभी
भाषाओं के शब्द आपस में मिलते -जुलते हैं जो किसी न किसी संस्कृत ( एवं
हिन्दी भी ) के पर्यायवाची से समनुरूप हैं| यथा
– मातृ( संस्कृत )..मदर, मैटर, मादर...पितृ ( संस्कृत)..फादर, फेटर, पिदर ..आदि | सुमेरियन सहित योरोप व एशिया की समस्त
भाषाओं में आर्य भाषाएँ व द्रविड़ भाषाओं के शब्द मिलते हैं, जबकि उन भाषाओं के
शब्द भारतीय द्रविड़ व आर्य भाषाओं व साहित्य में नहीं मिलते |
४.भारतीय क्षेत्र—भरतखंड
– में विकसित, वर्धित
विभिन्न कबीले व उनकी भाषाएँ वर्धित होकर प्रोटो-संस्कृत व संस्कारित
होकर संस्कृत बनी| ये आर्य संस्कृति व भाषा... राम (१०वीं
शताब्दी ईसापूर्व ) से बहुत पहले (
इंद्र, विष्णु शिव..युग ) घोड़ों, लद्दूघोड़ों, (
गधे व खच्चर जो खिरसर =खीर सागर= क्षीर सागर = कच्छ का रन—भारत
में पाए जाते हैं एवं पहिया, गाडी, व
बैल, बैलगाड़ी – जो
भरत-खंड में ही अविष्कृत हुए ---विष्णु का चक्र, शिव
का नंदी, इंद्र
का उच्चैश्रवा घोड़ा, जो क्षीर सागर से निकला था | ...अश्व
= ashv, अस्प=asp, असा = assa, आस =ass) घोड़ागाड़ी व बैलगाड़ी के उपयोग से
समस्त यूरेशिया में फैले, ( आज
के ओक्सस = वक्षु नदी =मध्य एशिया, फारस, ईरान, उजब्किस्तान, रूस,योरोप,
तुर्कमानिया, अरब आदि हिमालय के उत्तरी
एवं पश्चमन तथा उच्च-हिमालय क्षेत्र के समस्त प्रदेश ) मानव व समाज को स्थिर व उन्नत बनाते हुए, भाषा, समाज
व संस्कृति के भिन्न भिन्न जलवायु, वातावरण, मूल
देश से दूरी के अनुसार यथारूप -परिवर्तन के साथ |(तत्पश्चात
धरती के दूसरी और, पाताल अर्थात अमेरिका में जहां के मूल
निवासियों को पेलियो-इंडियन कहा जाता है |
हरप्पा सभ्यता में रथ की अनुपस्थिति है परन्तु मिट्टी के खिलौने आदि में
रथों व बैल गाड़ियों का पूर्व रूप पाया जाता है | वैदिक सभ्यता में रथों का प्रचुर
प्रयोग मिलता है| अतः निश्चय ही वैदिक सभ्यता हरप्पा /सरस्वती
सभ्यता का उन्नत रूप थी|
चित्र 1,2,3---बैलगाड़ी व रथ के पूर्व रूप –हरप्पा
चित्र ४,५,६
---ओक्सस =वक्षु नदी प्रदेश—परसिया,
बेक्त्रिया, तुर्किस्तान आदि मध्य एशिया में स्वर्ण रथ व घोड़ों की स्वर्ण –मूर्तियाँ
आदि....आर्यों व वैदिक सभ्यता के बाद में समस्त यूरेशिया ( जम्बू द्वीप) में फैलाव
के क्षेत्र.....
५. समस्त क्षेत्र में विचरण करते हुए, उपनिवेश
बनाते हुए इन पूर्व-भारोपीय या भारोपीय या आर्य लोगों द्वारा गाय पालन एक
प्रमुख घटना थी जिसका दुग्ध-पान लम्बी-लम्बी यात्राओं, युद्ध यात्राओं में भी
मुख्य भोजन का अंग बना रहता था| अश्वों व गौवंश का वध निषिद्ध था, जैसा
कि ऋग्वेद में प्रमुखता से वर्णित है, अन्य
किसी एतिहासिक व धर्मग्रंथों में नहीं|
६. मेरु क्षेत्र स्थित अर्यमा भगवान या देव के नाम पर आर्य
जाति का नाम पडा | अर्यमा का सामान्य अर्थ साथी, सहयोगी होता है, ये
आदर-सत्कार-सेवाभाव (होस्पीटेलिटी—जो मानव
के स्वाभाविक गुण हैं ) के वैदिक देवता हैं...यथा
मेरुश्रृंगान्तरचर: कमलाकरबान्धव:।
अर्यमा तु सदा भूत्यै भूयस्यै प्रणतस्य मे --ऋग्वेद १०/१२६
अर्यमा तु सदा भूत्यै भूयस्यै प्रणतस्य मे --ऋग्वेद १०/१२६
मेरु पर्वत के शिखर पर भ्रमण करनेवाले तथा कमलों के वन को विकसित करनेवाले भगवान् अर्यमा मुझ प्रणाम
करनेवाले का सदा कल्याण करें।
७. चतुर्थ
हिमाच्छादन काल का जीव व जीवन के लिए महान विपत्ति का समय था। उसकी पराकाष्ठा
के समय उष्ण कटिबन्ध की ओर बढ़ते हिमनद एवं हिम के विवर्तों ने समस्त यूरेशिया को लपेट लिया था। अधोशून्य से नीचे तापमान के भयंकर बर्फीले तूफ़ान ने यूरेशिया (जम्बू द्वीप) का जीवन
नष्ट-भ्रष्ट कर दिया एवं उसका प्रभाव भरतखंड तक हुआ|। इसमें नियंडरथल मानव काल की भेंट चढ़े। ऐसे समय में केवल उष्ण कटिबंध के
आसपास पर्वतों की रक्षा-पंक्ति की ओट में
ही जीवन पल सका तथा इस भीषण संकट
से मुक्त स्थान में मानव का पुनः संवर्धन (विशुद्ध मानव होमो सेपियंस में ) हो सका जो
मूलतः हिमालय के रक्षापंक्ति स्थित भरतखंड के ब्रह्मावर्त क्षेत्र में हुआ |
८ .
भारतीय पौराणिक कथाओं के अनुसार भी, ब्रह्मलोक, देवलोक ( अर्थात सुमेरु,
कैलाश , मानसरोवर क्षेत्र ) में जनसंख्या अधिक बढ़ने पर मनु के पूछने पर कि बढ़ते
हुए मानव कहाँ बसें, ब्रहमाजी ने उन्हें पृथ्वी पर बसाए जाने का आदेश दिया |
तत्पश्चात विष्णु के शूकर अवतार पृथ्वी को जल से बाहर लाये और मानव बसना प्रारम्भ
हुआ| अर्थात जल से डूबे हुए समस्त विशाल यूरेशियन क्षेत्र का जल हटाकर बसने योग्य
स्थल बनाया गया और मानव हिमवान क्षेत्र व भारतीय क्षेत्र से समस्त जम्बूद्वीप –यूरेशिया
में फैला |
द्वितीय मानव परिगमन-----९..हिमालय उत्थान के परवर्ती लगभग अंतिम काल के अभिनूतन युग के
हिमयुग में महान हिमालय में उत्पन्न भूगर्भीय हलचल से हुई | महान जल-प्रलय हिन्दू, ईसाई,ग्रीक,
बेबीलोनियन,मायन,या विभिन्न कबीलाई कथाओं (–मनु की नौका घटना, नूह या नोआ की
नौका या बक्सा, उतानापिस्तिम या ड्यूकेलियम, आदि के रूप में जो कथा समस्त विश्व की
सभ्यताओं में मौजूद है ) में समस्त
जम्बू द्वीप व देव-मानव-सभ्यता के विनाश पर वैवस्वत मनु वेदों के अवशेषों को लेकर तिब्बतीय क्षेत्र से,
जहाँ मनु की नौका गौरीशंकर शिखर से अटकी थी, भारत में प्रवेश किया ( इसीलिए वेदों
में बार बार पुरा-उक्थों व वृहद् सामगायन का वर्णन आता है ) एवं मानव एक बार पुनः भारतीय भूभाग से समस्त
विश्व में फैले जिसे योरोपीय
विद्वान् भ्रमवश आर्यों का बाहर से आना कहते हैं |
अतः
आर्यों का मूल स्थान भारत ही था |
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