शूर्पणखा काव्य उपन्यास..सर्ग-८..संकेत.......रचयिता--डा श्याम गुप्त .....
-पिछले सप्तम सर्ग -संदेश में शूर्पणखा के नासिका-भंग के उपरान्त लक्ष्मण की कुछ शन्काओं को राम दूर करते हैं एवं अति-भौतिकता की हानियां , भौतिक-व्यवहार की आवश्यकता , नारी आचरण व निषेध नियमन पर वार्ता करते हैं ...आगे प्रस्तुत है - अष्ठम सर्ग..संकेत....जो दो भागों मे वर्णित किया जायगा ; कुल छंद--२५....प्रस्तुत है --प्रथम भाग --छंद-१ से १३ तक---
१-
मन में किन्तु सोचती जाती |
अब तक ऐसे पुरुष न देखे,
प्रणयी रूपसि के आकर्षण -
मोह-पाश से दूर रह सकें,
शूर्पणखा से जो बच जाएँ ||
२-
यह तो अद्भुत सी घटना है,
यदि ऐसी ही हवा चली तो;
देव संस्कृति १ लहराने से,
जन मानस जागने लगेगा |
राक्षस-संस्कृति प्रथा सदा को,
इस अरण्य से उठ जायेगी ||
३-
तुरंत ही अब निराकरण , इस-
विकट समस्या का करना है |
कठिन दंड दे इन तीनों को,
सबक सभी को देना होगा |
रोकना होगा जनस्थान को,
लंका के खिलाफ होने से ||
४-
निशाचरों से टकराने की,
हिम्मत नहीं किसी में भी थी |
भय असुरों का इस प्रदेश की,
जनता से क्या दूर होगया |
शुभ संकेत नहीं है यह तो,
रक्ष-राज्य-संस्कृति के हित में ||
५-
ऋषि-मुनि सब हो अभय विचरते,
यज्ञ आदि करते, हो निर्भय |
विराध और ताड़का बध से,
सब अरण्य को अभय मिला है |
जन स्थान के राक्षस नायक,
निज बल मद में मस्त सो रहे ||
६-
जन-जागृति२ की इस आंधी को,
विप्लव को, रोकना उचित है;
जनस्थान तक पहुंचने से |
रावण के सहयोगी अथवा,
निरपेक्ष स्वतंत्र क्षेत्रों को;
असुरों के खिलाफ होने से ||
७-
नैतिक बल समृद्ध हुआ यदि ,
मिला शौर्य-बल इन वीरों का;
जाग उठेगी सोई संस्कृति,
जाग उठेंगे सब जन गण मन |
क्षीण इस तरह होजायेगा ,
लंकापति का आधा बल३ ही ||
८-
यह भी सोच उठा अंतस में,
क्या कुछ यह संयोग बना है ;
राक्षस-कुल के अत्याचारी,
अभिमानी और अकर्मण्य सब;
वीरों का अब दंभ-हरण हो,
रावण के भी दर्प-दलन का४ ||
९-
जनस्थान के सेनापति वे-
खर-दूषण अति बली सुभट थे |
बहुत बड़ी निशिचर सेना संग,
स्वयं दशानन भाँति विकट थे |
विकल तड़पती शूर्पणखा ने ,
जाकर अपनी व्यथा सुनायी ||
१०-
तुम जैसे वीर-बली भ्राता,
होते मेरा यह हाल हुआ |
धिक्कार राक्षसों के बल को,
धिक्कार सभी के पौरुष को |
बोले-किसने यह कृत्य किया,
वह मृत्यु-दंड का भागी है ||
११-
दो मनुज,राम-लक्ष्मण वन में,
है सुन्दर नारी एक साथ |
नारी दैत्यों की जान मुझे,
मेरा यह रूप, कुरूप किया |
खर-दूषण बोले, अभी चलो-
निश्चय ही उनका वध होगा |
१२-
शूर्पणखा थी आगे आगे,
चतुरंग अनी संग खर-दूषण |
जैसे यमपुर की यात्रा पर,
धूमधाम से चले निशाचर |
असगुन५ स्वयं चलरहा आगे,
विकट रूप धर राह दिखाते ||
१३-
कोइ कहता सबका वध हो,
कोइ कहता जीवित बांधो |
कोइ कहता नारि छीन कर,
वध दोनों पुरुषों का करदो |
भीषण गर्जन-तर्जन होता,
पग-धूलि गगन तक जा पहुँची || ----क्रमश: भाग दो....
कुंजिका -- १= अनाचरण , कुसंस्कार आदि जन-जन में फैलाना -- वास्तव में विरोधी दल, राष्ट्र व संस्कृति के कूटनीतिक हथियार होते हैं जो वे विरोधी दल व विजित राष्ट्र-क्षेत्र की जनता में फैलाये रखते हैं ताकि वे विरोध के स्तर तक ऊपर न उठ पायें ,अनैतिकता के सुख में मस्त रहें...यह हर युग में होता है...मुग़ल-काल, अंग्रेज़ी शासन में भी हुआ जिसका प्रभाव आज भी है ...शान्ति के दिनों में यह कूटनीतिक सांस्कृतिक युद्ध --विविध सहायता , सहयोग, खेल, कला, साहित्य के जरिये प्रभावी रहता है | अपनी संस्कृति -रक्षा के नारे व उपायों की यही सार्थकता है । २= शूर्पणखा की कुशाग्र कूटनैतिक बुद्धि ने तुरंत भांप लिया कि यह कोइ सामान्य घटना नहीं है अपितु दूरगामी सन्देश है , राजनैतिक घटना ....३= यदि स्थानीय क्षेत्रीय जनता का समर्थन हो तो शासक का आधाबल कम होजाता है तथा शत्रु आधी लडाई पहले ही जीत लेता है,यह शूर्पणखा के कुशल राजनैतिक सोच का उदाहरण है .... ४ = रावण से नाराज़ शूर्पणखा दोनों तरफ से सोच रही थी रावण को भी सबक मिल जायगा और मेरा प्रतिकार अन्यथा मुझे राम-लक्ष्मण या उनको दन्ड देकर अपमान का प्रतिकार .. ५ = नासिका - कर्ण विहीन शूर्पणखा ...
.सर्ग ८ का अंतिम भाग दो --- छंद १४ से २५ तक...
१४-
रघुबर बोले, सौमित्र सुनो,
भीषण निशिचर सेना आती |
सजग रहो सीता को लेकर,
पर्वत गुहा वास में जाओ |
राक्षस संकुल का वध करके,
मुक्त करूँ अब जन-स्थान को ||
१५-
निशिचर सेना ने घेर लिया,
चहुँ ओर से आकर रघुपति को |
शोभायमान हो रहे 'राम,
धनु-बाण चढ़ाए तेजपुंज;
जैसे मृग-झुंडों में कोई,
सिंह-शावक हो विचरण करता ||
१६-
देखी राघव की रूप छटा,
सब सेना ठगी ठगी सी थी |
आश्चर्य चकित थे खर-दूषण,
बोले, यह सुन्दर बालक है|
तीनों लोकों में कभी नहीं ,
ऐसी सुन्दरता देखी है ||
१७-
यद्यपि भगिनी को कुरूप कर,
यह दंडनीय अपराधी है |
फिर भी अति सुन्दर नर-वालक,
मन से वध के अनुरूप नहीं |
भेजो सन्देश तुरत मेरा,
उत्तर आकर के बतलाओ ||
१८-
स्त्री को सौंप के दैत्यों को,
अभी क्षेत्र से करें पलायन;
तो ही जीवित बच सकते हैं |
सन्देश सुना जब रघुबर ने,
हंसकर बोले, हे दूत ! सुनो-
कहना जाकर निज नायक से ||
१९-
हम क्षत्री हैं , वन में मृगया-
करना ही खेल हमारा है |
तुम जैसे दुष्ट मृग-दलों को,
हम सदा खोजते रहते हैं |
चाहे काल स्वयं सम्मुख हो,
नहीं युद्ध से डरते हैं हम ||
२०-
भयभीत युद्ध से यदि हो तो,
लौट घरों को जा सकते हो |
नहीं कभी मैं वध करता हूँ ,
समर-विरत यदि रिपु होजाए |
रिपु से दया, कपट चतुराई ,
हैं भयभीत ही सदा करते ||
२१-
क्रोधित होकर खर-दूषण ने,
सेना को आदेश देदिया |
जीवित सबको लेकर आओ,
स्वयं करेंगे हम बध उनका |
विविध भाँति के अस्त्र-शस्त्र ले,
दौड़े निशिचर भरे क्रोध में ||
२२-
राघव की धनु-टंकार सुनी-
सारी सेना दिग्भ्रमित हुयी |
रिपु समझें एक-दूसरे को,
आपस में लड़कर नष्ट हुयी |
चहुँ और से वनवासी,वनचर,
तीरों की वर्षा करते थे ||
२३-
खर-दूषण-त्रिशिरा सहित सभी,
नायकों को, दस -दस वाणों से;
यमलोक राम ने पहुंचाया |
देवों ने अति हर्षित होकर,
सुमन-वृष्टि की रघुनन्दन पर ;
रिपु दल नष्ट हुआ था सारा ||
२४-
राक्षस संकुल के विनाश पर,
जन-आशा का संचार हुआ|
लक्ष्मण भी सिय सहित आगये ,
कर चरण वन्दना हर्षित थे |
रघुवर छवि निरखि निरखि सीता,
मन ही मन आनंदित होतीं ||
२५-
निशिचर सेना के विनाश से,
आतंकित होकर शूर्पणखा ;
लंका की और चली जाती |
संकट है आसन्न देश पर,
सूचना दशानन को देने;
बदला लेने को उकसाने || ---क्रमश: नवम व अंतिम सर्ग --परिणति ...
2 टिप्पणियां:
आप की बहुत अच्छी प्रस्तुति. के लिए आपका बहुत बहुत आभार आपको ......... अनेकानेक शुभकामनायें.
मेरे ब्लॉग पर आने एवं अपना बहुमूल्य कमेन्ट देने के लिए धन्यवाद , ऐसे ही आशीर्वाद देते रहें
दिनेश पारीक
http://kuchtumkahokuchmekahu.blogspot.com/
http://vangaydinesh.blogspot.com/2011/04/blog-post_26.html
धन्यवाद दिनेश जी...
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