१. सूरदास परम्परा--
को तुम कौन कहां ते आई।
पहली बेरि मिली हौ गोरी का ब्रज कबहुं न आई।
बरसानौ है धाम हमारो, खेलत निज अंगनाई ।
सुनी कथा दधि माखन चोरी,गोपिन सन्ग ढिढाई।
हिलिमिलि चलि दधि-माखन खैयें तुम्हरो कछु न चुराई।
मन ही मन मुसुकाइ किशोरी कान्हा की चतुराई।
नैन नैन मिलि सुधि बुधि भूली भूलि गई ठकुराई।
चन्चल चपल चतुर बतियां सुनि राधा मन भरमाई ।
हरि हरिप्रिया मनुज लीला लखि सुर नर मुनि मुसुकाई॥
२. तुलसी परम्परा---
सुअना मन के भरम परे ।
जैसा अन्न हो जैसी सन्गति सोई धर्म धरे ।
संतन देरा वास करे जे राम नाम गुन गाये।
अन्न भखे गणिका के घर ते, दुष्ट बचन चिल्लाये।
परि भुजन्ग मुख बने गरल, और मोती सीप समाई।
परे केर के पात स्वाति जल, सो कपूर बनि जाई ।
दीपक गुन बनि मिटे अन्धेरो,चरखा सूत बुने ।
सोई कपास सन्ग अनल-अनिल केघर को भसम करे।
काम क्रोध मद मोह लोभ अति बैरी राह छिपे हैं ।
ये सारे मन के गुन सुअना,तिरगुन भरम भरे हैं ।
चिअ चितवन चातुर्य विषय वश हित अनहित ही भावै ।
माया मन की सहज़ व्रित्ति मन सुगम राह ही जावै ।
काल उरग साये मे सब जग,भ्रम वश प्रभु बिसरे ।
एक धर्म बस श्याम नाम , नर भव सागर उतरे ॥
एक धर्म बस श्याम नाम , नर भव सागर उतरे ॥
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