रविवार, 1 अप्रैल 2012

इन्द्रधनुष.....अंक आठ -----स्त्री-पुरुष विमर्श पर..... डा श्याम गुप्त का उपन्यास.....



                           


   
                           ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


      
        ’ इन्द्रधनुष’ ------ स्त्री-पुरुष विमर्श पर एक नवीन दृष्टि प्रदायक उपन्यास....पिछले अंक  से क्रमश:......
                                                     अंक  आठ 

                 

                                 लाइब्रेरी के मैगजीन सेक्शन में- मैं और एके जैन यूंही बैठे पन्ने उलट रहे थे कि अचानक हवा में तैरती हुई आवाज़ आयी --
                          "   जब जब बहार आये , 
                            और फूल मुस्कुराए, 
                            हमें तुम याद आये,
                            हमें तुम याद आये ।। "
                मैंने सिर उठाकर देखा  तो सुमित्रा अपनी मित्र साधना वर्मा के साध गुनगुनाती हुई सीढियां उतर रही थी ।   जैन के अचानक हंस पड़ने से दोनों चौंकी और चुप होकर जाने लगीं ।
                मैंने पूछा , ' सुमि, क्या दिल्ली की याद आरही है ?' 
                हाँ, वह बोली, पर मैं तो वहां होती हूँ तब भी यही गीत गुनुगुनाती हूँ ।  जैन व साधना एक दूसरे का मुंह ताकने लगे।  दोनों के चले जाने पर जैन ने पूछा , ' इसका क्या अर्थ हुआ ?'
                पता नहीं, सुमि  अच्छा गाती है ।  
                ' ये तो सभी जानते हैं ।'
                चलो क्लास में चलते हैं, मैंने उठते हुए कहा ।   
                         
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                          "ग्रामीण व सामुदायिक  चिकित्सा"  कार्यक्रम के अंतर्गत हम लोग एक सुदूर ग्राम में घर घर जाकर सामुदायिक स्वास्थ्य, स्त्री व वाल स्वाथ्य पर परामर्श व विभिन्न आंकडे एकत्रित करने के क्रम में टोली बनाकर भ्रमण कर रहे थे ।
                           सुनील कपूर ने चलते चलते कहा,  ' क्या बात है, आठ प्रिगनेंसी, छ: डिलीवरी,  दो जराउली     ( टेटनस )  में मर गए,  दो पीलिया से।  बचे दो- एक को सूखा रोग है और एक अभी गोद में है । क्या आंकड़े हैं ।' 
                 ' अधिकतर घरों में यही हाल है ।' सुमित्रा कहने लगी . ' अशिक्षा , गरीबी, भूख, पिछडापन फिर फिर अशिक्षा ...गरीबी ...ये दुश्चक्र कब ख़त्म होगा !'
               ' हम सब लोग कहाँ तक समझायेंगे इन सब को। क्या कुछ लोगों को बताकर सब कुछ ठीक हो जाएगा ?'  कुसुम ने कहा ।
              ' कितनी गन्दगी, कीचड  व बदबूदार नालियां हैं  यहाँ ? रंजन ने नाक-मुंह सिकोड़कर, रुमाल नाक पर रखते हुए कहा , ' कौन दोबारा आना चाहेगा यहाँ । क्या फ़ायदा व्यर्थ घूमने का ।  ये तो सुधरने वाले हैं नहीं ।'
               ' इसी सब के डाटाकरण व उपायीकरण के लिए हम सब घूम रहे हैं यहाँ । यदि बुद्धिवादी, प्रोफेशनल, पढ़े-लिखे लोग, शासन- पदस्थ लोगों को यह पता ही नहीं होगा तो ये सब कमियाँ, बुराइयां दूर कैसे होंगी ? इसके उपाय कैसे सूझेंगे । मैं तो चाहता हूँ कि प्रत्येक मेडीकल व अन्य कालेजों के व संस्थानों के छात्रों को अनिवार्यतः बारी बारी से गांवों में जाना चाहिए । यदि हम ही पहल नहीं करेंगे तो कैसे सुधरेगी यह हालत ?' मैंने कहा ।
               'कौन दोबारा आयेगा यहाँ ? तुम्हीं आना कीचड व गन्दगी में घूमने यहाँ । सतीश रंजन ने नाक सिकोड़ते हुए कहा ।
               हाँ.. हाँ भैया, हम तो पैदा यहाँ हुए हैं तो निभायेंगे ही । अपना तो उद्देश्य भी यही है । ' जीना यहाँ मरना यहाँ,  इसके सिवा और जाना कहाँ ?"  मैंने सुमित्रा की और देखते हुए मुस्कुराकर कहा ।
              ' मैं तुम्हारा इशारा समझ रही हूँ, अच्छी तरह ।' सुमित्रा बोली ।
              ' क्या समझी ?'
              'क्या समझते हो, गूढ़ बातें सिर्फ तुम ही कह-समझ सकते हो ? कोई और नहीं । '
             ' तुम्हारे बारे में तो न कभी मैंने एसा सोचा न कहा ।'
              ' ठीक है समय आने पर बताएँगे, हम क्या समझे ।'
             ' मैं कुछ समझा नहीं ।' रंजन ने आश्चर्य से कहा, ' एसी क्या बात है ?' 
             'कहाँ  व किन  बहसबाजों के चक्कर में फंस रहे हैं,  डा रंजन ।'  साधना  वर्मा बोली,'  आपको तो वैसे भी दोबारा नहीं आना है यहाँ । चलिए आगे बढिए ।'


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                                          स्त्री रोग चिकित्सा विभाग  में ड्यूटी के दौरान अधिकतर पुरुष -छात्र वार्ड में अधिक रुकने में रूचि नहीं लेते । अतः कोई भी छोटे मोटे  काम के बहाने अन्य विभाग या लाइब्रेरी में पढ़ते रहते हैं । इसी तरह गायब होने के पश्चात जब मैं विभाग में पहुंचा तो हाउस इंचार्ज डा. रेनू ने पूछा, ' डाक्टर साहब , इतने समय से कहाँ थे ?'
                 ' मैं यूरिया वाइल ( रक्त एकत्र करने के लिए सेम्पल शीशी ) लेने गया था ।'
                 ' कहाँ हैं ?'
                 ' नहीं मिले, तैयार हो रहे हैं ।'
                 ' मेरे पास हैं, सुमित्रा ने दो वायल दिखाते हुए कहा ,' ज़नाब, रोमियो-जूलियट पढ़ रहे थे लाइब्रेरी में ।'
                 ' हूँ, तुमने कब देखा ?'
                 ' जब तुम पूरी तरह से डूबे हुए थे, मैं उठा लाई ये तुम्हारी टेबल से ।  वैसे भी पुस्तकों में डूबकर तुम सब भूल जाते हो ।'
                 ' पुस्तकें सदा साथ निभाती हैं ।'
                 ' उलाहना दे रहे हो ?'
                 ' नहीं, कहावत की बात है ।'
                 ' तुम इसी तरह सब भूल जाओगे, पुरानी आदत है ।'    
                 ' ये क्या बहस है?'  डा रेनू ने आश्चर्य से पूछा, ' तुम दोनों में कुछ हुआ है क्या ?'
                 'कभी कुछ हुआ ही तो नहीं ।' मैंने कहा ।
                 'सुमि मुस्कुराकर, घूरती हुई तेजी से वार्ड में चली गयी ।


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                                       ' ओह ! आई गौट इट'   अब मालुम हुआ आजकल क्यों दिखाई नहीं देते, गुप्त रहते हो ।'  लाइब्रेरी में क्या क्या गुल खिलाये जा रहे हैं, चुप चुप ।  बहुत चालू हो..... गोपाल ।  रोमियो-जूलियट ...हाऊ रोमांटिक ...।  तभी आजकल स्मार्ट होते जारहे हो दिन ब दिन ।  जी चाहता है तुम से शादी करलूं ।  पर सोचती हूँ लोग क्या कहेंगे?'  वार्ड से बाहर आते हुए लम्बी-चौड़ी मोटी नसरीन मुझे घूरते हुए चहकी ।
               ' क्या कहेंगे,  यही कि  वाह  ! क्या मस्त हथिनी और हथिनी शावक की सुन्दर जोड़ी है ।  लोग कमरा ले ले कर पीछे दौड़ेंगे,  हो सकता है टाइम पत्रिका के फ्रंट पर आजाय, " मेड फार ईच अदर " के शीर्षक के साथ ।' मैंने सहज भाव से कहा ।
                'बदमाश ! तुम तो बहुत ही ...ह ......।'
                'शट अप, नसरीन मोटी, क्या बके जारही है ? कुछ तो शर्म करो ।' सुमि  हंसते हंसते चिल्लाई ।
                'अरे वाह ! तुम कौन हो भई, ओब्जेक्शन करने वाली ?  क्या तुम्हें कोइ एतराज  है मेरे प्रस्ताव पर ?' नसरीन कमर पर दोनों हाथ रखकर पूछने लगी ।
                 ' गो टु हैल,'  मैं तो चलती हूँ ।'  सुमि जाने लगी ।
                 ' ल्लो  ....ओ ....।' तुम्हारा सिक्योरिटी गार्ड तो वाक् आउट कर गया ।' नसरीन ने थुल थुल देह से हंसते हुए सुमित्रा की पीठ पर कमेन्ट दे मारा ।


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                                           इसी तरह चलती रही हमारी मित्रता । साहित्य, कला, राजनीति, स्त्री -पुरुष सम्बन्ध,पति-पत्नी रिश्ते, मेरी अपनी शादी, नारी-विमर्श, फ़िल्में , सामयिक घटनाएँ, कालिज की  राजनीति, चिकित्सा विषय, चरक, सुश्रुत, कश्यप, हिप्पोक्रेट, धर्म, दर्शन, अद्यात्म, विज्ञान ...लगभग प्रत्येक विषय पर चर्चाएँ होती थीं । प्रत्येक विषय पर उसकी स्वतंत्र  राय व टिप्पणी होती थी । दर्शन, धर्म, इतिहास पर गहन अध्ययन न होने पर भी सामान्य ज्ञान व तीब्र विवेक-बुद्धि के आधार पर उसकी टिप्पणियाँ सटीक होती थीं । गायन, वादन, नृत्य में तो वह कुशल थी ही ।
                                            छुट्टियों में जब वह दिल्ली जाती तो लौटकर विस्तार से बताती । रमेश के साथ कहाँ कहाँ घूमे , क्या क्या किया, क्या खाया ......। फिर अचानक चुप होकर कहती . अरे, मैं तुम्हें क्यों बोर कर रही हूँ । चलो भूल जाओ, काफी पीते हैं । मेरे पीछे पढाई ठीक से की या नहीं,  नोट्स कहाँ हैं,  क्या क्या लिखा सुनाओ ।  सारी कैफियत लेती .....और हाँ.. किसी को सिलेक्ट लिया या नहीं ।'
                  ' कभी रमेश से मिलवाओ तो ',  मैंने कहा  ' वो क्या कभी तुमसे मिलने यहाँ नहीं  आता ?'
                   ' मैं  ही हर छुट्टी में दिल्ली जाती हूँ, हर बार मिलना होता ही है । रमेश डे-स्कालर है, और छुट्टियों में  पिता के नर्सिन्ग होम में  काम,सीखना होता है । यहां आकर समय खराब करने का क्या फ़ायदा ।’  वह बोली,  ’ तुम टालो मत, बताओ तो ।’
                                                एक दिन काफ़ी हाउस में सुमि पूछ बैठी , ’ केजी ! कभी-कभी मुझे आश्चर्य होता है यह सोचकर कि क्या दो व्यक्ति इतने समान विचारों वाले हो सकते हैं । ’
                ' हाँ, यदि वे पिछले जन्म के भाई-भाई, भाई-बहन हों  या प्रेमी-प्रेमिका...या फिर  "आइड़ेंटीकल ट्विन्स " ( जुड़वां बच्चे ) ।'          
                वह आश्चर्य से बोली...'हर बात का उत्तर है तुम्हारे पास ..और तुरंत !'
                ' या फिर इस जन्म में अमर प्रेम के ध्वज वाहक ,' मैंने कहा ।
                             वह सोचते हुए होस्टल की और बढ़ने लगी , फिर मुडकर कहने लगी, ' अच्छा कोई लड़की पसंद की या नहीं ? और वह साईक्लिस्ट अनु ?'
                 मैंने कहा, सुनो ....
   " ऊधो ! मन नाहीं दस बीस । 
     एक था सो गयो संग राधिका, कौन फंसाए शीश ।"   
              '  हूँ, तो एसा करती हूँ ......अच्छा चलती हूँ ।'
                                 दो दिन तक सुमित्रा से बात ही नहीं हुई । वह अन्य छात्राओं से घिरी सीधी क्लास रूम में आती और उसी तरह सीधी हास्टल चली जाती । तीसरे दिन मैंने स्वयं ही रोक कर कहा, ' सुमि, तुमसे बात करनी है, चलो केन्टीन चलते हैं ।'  वह चुपचाप बिना बात किये साथ चलने लगी ।
                 ' क्या बात है, तबियत तो ठीक  है,  इतनी चुप चुप क्यों हो ? ये क्या  है  दो दिन से बात ही नहीं हुई ? क्या हुआ है ?'
                 ' एक साथ इतने सारे सवाल ? बस यूंही मैंने सोचा मैं ही तुमसे मिलना -जुलना बंद कर देती हूँ, यही ठीक रहेगा, प्रेक्टिस भी होजायेगी ।'  वह सीरियस बन कर बोली और चलने लगी ।
                 ' अच्छा, उस बात पर नाराज़ हो अभी तक ।'
                 हूँ, वह मुस्कुराते हुए बोली और जाने लगी ।
                ' अरे, एसा मत करना' , मैंने कहा, ' आखिर ऐसी भी क्या जल्दी है,  इतनी लड़कियां हैं, जब चाहें किसी को भी पटा लेंगें । कई को तो तुम  जानती ही हो ।'
                 ' अच्छा, एसा, सचमुच ?'  वह पलटकर हंसने लगी ।
                  'क्या विश्वास नहीं है मुझ पर ?'
                 ' येस ।' वह जाते जाते बोली ।
        
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                                        ' बधाई, केजी, वाह ! तुमने तो एक भी गोल नहीं होने दिया । तभी टीम जीत पाई ।'  अंतर कालेज चेम्पियन शिप के लिए होरहे फुटवाल मैच  के समाप्त होने पर सुमित्रा ने मैदान पर बधाई देते हुए यह बात कही ।  मैच विश्व-विद्यालय की टीम से था जो नगर की सशक्त टीम थी ।  मैच बड़ी कठिनाई से १-० से हमारे पक्ष में रहा । मैंने धन्यवाद कहा तो सुमि कहने लगी, ' अच्छा कृष्ण तुम सदैव बैक-कीपर के स्थान पर क्यों खेलते हो ? फारवर्ड खेलो तो शायद कुछ ओर गोल से जीतें ।'
               ' कुछ और गोल हो भी तो  सकते हैं । भई, यह तो टीम-भावना का खेल है', मैंने चकित होते हुए कहा, 'कोई तो बैक रहेगा ही ।' 
              ' पर नाम तो केवल गोल करने वाले का होता है।'
              ' क्या मैंने नाम  के लिए कभी कोई काम किया है ?'  मैंने हंसते हुए प्रति-प्रश्न किया । ' हम तो वैसे भी बैक-बेन्चर्स हैं  और यदि एसा ही होता तो तुम मुझे क्रेडिट नहीं देरही होतीं ।'
              ' आप क्रिकेट खेला कीजिये ।  उसमें कोई बैक नहीं होता, सभी फ्रंट पर होते हैं, और सुमित्रा भी खुश।' कुमुद ने सलाह दी 
              ' हाथ-पैर भी ज्यादा टूटते हैं ।' मैंने हंसते हुए कहा, ' क्या मंतव्य है आपका कुमुद जी ?'
              सब हँसने लगे तो मैंने कहा,  ' वैसे आपका परामर्श विचार योग्य है । धन्यवाद ।'

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                                             वार्ड-क्लिनिक के लिए  जब हम लोग मेडीकल वार्ड पहुंचे तो  हाउस डा. मुकुलेश रंगनाथन व रेजीडेंट डा. पी के सिंघल एम.डी. को एक रोगी से जूझते देखा । रोगी आक्सीजन पर था व काफी समय से भर्ती था। दोनों पैरों की नसों में सेलाइन -ग्लूकोज़ व नॉर-एड्रेलिन ड्रिप चढाई जा रही थी । दोनों डाक्टर बारी बारी से रोगी के ह्रदय की मालिश  व कृत्रिम श्वांस दे रहे थे ।  बीच बीच में कई बार सुई द्वारा सीधे ह्रदय में कोरामीन, एड्रेलिन व डेकाड्रोन भी दिया गया ।  लगभग आधे घंटे तक अथक परिश्रम के बाद भी रोगी को बचाया नहीं जा सका । एक बार पुनः रोगी की श्वांस,  ह्रदय की धड़कन व आँख की पुतली देख कर उसे मृत घोषित कर दिया गया ।
              ' सर !  क्या उसके बचने की आशा थी ?'  मैंने पूछा ।
              ' नहीं ।'  डा. सिंघल बोले,  ' सी ओ पी डी का पुराना रोगी था, ह्रदय व फैन्फड़े  पूरी तरह से खराब हो चुके थे ।'
             ' फिर, इतना सब करने की, क्या आवश्यकता थी ?'  
              डा. सिंघल सब को लेकर  नर्सेज चेंबर में आये।  बोले,  'डाक्टर जहां जीवन का प्रश्न होता है, वहां और कोई प्रश्न नहीं होता ।  प्रश्न परिश्रम, खर्च या समय व्यर्थ होने का नहीं है, प्रश्न है...आशा, आस्था, कर्म, आत्म-संतुष्टि, रोगी व रोगी के परिजनों की संतुष्टि का ।'
               ' हम ये सब इसलिए करते हैं कि कहीं मन के कोने में डाक्टर को, रोगी के परिजनों  को एक आशा होती है कि शायद कुछ क्षणों के लिए ही प्राण लौट आयें । शायद ईश्वर को मंजूर हो । यह आस्था है, यहाँ तर्क व नियम नहीं चलते, यह संसार है ।'
                 'चिकित्सक, यदि बचना तो है नहीं यह सोच कर प्रयत्न करना छोड़ दे तो उसे भी आत्मग्लानि रहेगी कि यदि प्रयत्न करते तो शायद......।  अतः अपनी आत्म-संतुष्टि के लिए भी प्रयत्न करना आवश्यक है । साथ ही यदि प्रयत्न ही नहीं होंगे तो नए नए अनुभव, प्रयोग, आविष्कार व रोगी सेवा-उपचार में प्रगति कैसे होगी ? यह विज्ञान है ।  जान जाते समय रोगी ने न जाने किस किस को पुकारा होगा । शायद सबसे अधिक डाक्टर को ।  रोगी की आत्मा व शरीर भी तो अंतिम समय आदर व सहानुभूति चाहते होंगे ।  उसके परिजनों को भी पूर्ण उपचार व सेवा की संतुष्टि होनी चाहिए कि डाक्टरों ने तो पूरा प्रयत्न किया आगे ईश्वर इच्छा ... अन्यथा लापरवाही समझी जायेगी । क़ानून के अनुसार भी रोगी को यथासंभव बचाने के टर्मिनल उपाय करना व रिकार्ड रखना वैधानिक दायित्व है । फिर मिरेकल्स भी तो होते हैं न ?'
                   ' यही है आज का प्रेक्टीकल सबक जो जीवन भर एक चिकित्सक  को  स्मरण रखना है । सहानुभूति, सहृदयता, दायित्व निर्वहन व कर्तव्य-पारायाणता  ही एक चिकित्सक के व्यवहारिक गुण होते हैं ।  समझे ....डाक्टर कृष्ण गोपाल !'  
                  ' यस सर !'  मैंने स्वीकृति में कहा । 
                  मुझे चुप-चुप चलते देख  कर सुमित्रा मुस्कुराने लगी, तो मैंने पूछा ,' क्या बात है ?'
                  ' मिला न शेर को सवा-शेर ।'
                  'क्या मतलब ?'
                 ' तुम जैसे ज्ञानी को भी ज्ञान देने वाला मिला न ।'
                 ' बहुत खुश हो ?'  
                 ' यस ।'
                ' सच है सुमित्रा ! हम जहां भी मानवीयता, सौहार्द व सहृदयता से चूकते हैं एवं किसी घटना, बिंदु या विषय पर गहराई से युक्ति-युक्त पूर्ण सोचने में लापरवाही करते हैं वहीं गलत निर्णय व सोच को आधार मिल जाता है  यहीं तो अनुभव व वरिष्ठता की महत्ता है । हम चाहे जितने भी ज्ञानी क्यों न होजायं, अनुभवी व सीनियर, सीनियर ही रहेगा ।' 
                 ' हार को स्वीकारना व  सत्य को तुरंत स्वीकार करना ही तो जीत है, जीवन है । तुम्हारी यही बात तो मन में अटक कर रह जाती है, कृष्ण ! मन को भटकाती है ।'
                 ' चलो तुम भी आज खींच लो, अच्छा मौक़ा हाथ आया है', मैंने कहा, " मत चूके चौहान ।"
                ' बात ठीक है तुम कभी कभी ही तो मौक़ा देते हो खींचने का '
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                                             फाइनल ईयर की परीक्षाएं समाप्त होने पर मैं केन्टीन में बैठा न्यूज़-पेपर उलट रहा था कि सुमित्रा आई और धम से बैठती हुई बोली , 'अब मुझे जाना होगा केजी' उसके स्वर में उदासी थी ।
               "  हाँ, कहाँ ? ' मैं सोचते हुए बोला , 'कब ?'
              '  भूल गए ?',  'ऐसे तो तुम मुझे भी भूल जाओगे। जाते ही। मुझे दिल्ली जाना है, सुन रहे हो न, कल ।'                 'वह तो तुम हर बार जाती हो ।'
              ' हाँ, पर अब वापस नहीं आऊँगी ।'
               ओह, ओह ! हाँ, वास्तव में , ' अब तो तुम्हें जाना ही है ।'  मैंने अखबार एक तरफ रखकर कहा ।
              ' मेरी शादी पर आओगे ?'
               ' नहीं । बधाई, इंटर्नशिप भी वहीं करोगी ?'
              ' हाँ, अपनी शादी पर बुलाओगे ?'
               ' नहीं भी, और पता नहीं भी ।'
              ' हूँ, पक्के हो । सुमि  कहने लगी,-
                                               " तेरी दोस्ती का बोझ हमसे उठाया न गया ।
                                                बस यही बोझ सा दिल में लिए फिरते हैं ।"
              ' वाह क्या धाँसू शे'र है सवा शेर है ।  इसे कहते हैं गुरु दक्षिणा ।'
              ' मुझे याद करोगे भी या  " आउट आफ साईट आउट आफ माइंड "......'
             ' और  तुम...'  मैंने पूछा ।
              ' सुमि कहने लगी.....
                                            " जब चाहूँ मन में चले आना, 
                                             मन मंदिर को महका जाना ।
                                             यादें तेरी मन में मितवा,
                                             बन करके सदा मधुमास रहे ।। 
               अच्छा,  सुनो............
                                               " तू दूर रहे या पास रहे,
                                                यह अनुरागी मन यही कहे।
                                                तेरे जीवन की बगिया में,
                                                जीवन भर प्रिय मधुमास रहे ।"     
                                    
                           **                             **                              **
                  
                     ट्रेन पर सुमि को बैठकर  मैंने कहा, ' गुड बाय ।'
                   ' बाय बाय' , उसने उदास होते हुए कहा ।   'सचमुच बहुत याद आओगे ।'  वह लगभग अश्रु पूरित नेत्रों से बोली ।
                    मैं मुस्कुराया तो कहने लगी , ' तुम्हारी आँखों में कभी आंसूं नहीं आते ?'  'भगवान करे न आयें कभी ।'   मैं हंस कर रह गया ।
                    'याद रखोगे?' , सुमित्रा ने कहा । 
                    ' नहीं ।' मैंने कहा ...........
                                                "  हम तसब्बुर में न तेरे ख्याल लायेंगे ,
                                                  आवाज़ दिल से देना, बस चले आयेंगे ।" 
                     गाड़ी चल  दी और वह हाथ हिलाती हुई चली गयी । 
                           
                                       .............. अंक आठ समाप्त .....क्रमश अंक नौ ...अगली पोस्ट में .....
                     
                

   

शुक्रवार, 30 मार्च 2012

बाल गीत .... दुर्गा जी ...डा श्याम गुप्त ...



भक्तों की तारिणी माँ,
आठ  भुजा धारी है ।
कर में त्रिशूल, कमल,
खड्ग  गदा धारी है  ।

शंख चक्र  धनु बाण ,
ओउम करतल सोहे।
स्वर्ण आभूषण जटित,
धवल कांति मन मोहे ।

शैलपुत्री,  चंद्रघंटा ,
कूष्मांडा,ब्रह्मचारिणी।
स्कंदमाता, कालरात्रि,
और  कात्यायिनी ।

महागौरी,  सिद्धिदात्री,
नौ   रूप  धारी   है।
मुख पर मुस्कान मृदुल,
दुष्ट दमनकारी है ।

सृष्टि की सृजक माता,
जग पालन हारी है।
आदिशक्ति,जगदम्बे,
लाल  वस्त्र  धारी है।

दुर्गति निवारिणी माँ,
दुःख: हरण हारी है।
बच्चो ! ये दुर्गा माँ,
सिंह की सवारी है ।।


 

मंगलवार, 27 मार्च 2012

इन्द्रधनुष.....अंक सात -----स्त्री-पुरुष विमर्श पर..... डा श्याम गुप्त का उपन्यास....



          


                                             




    

     
    
  







  ’ इन्द्रधनुष’ --- स्त्री-पुरुष विमर्श पर एक नवीन दृष्टि प्रदायक उपन्यास
....पिछले अंक छः  से क्रमश:......


   

                           










                                                           अंक सात 
                           धीरे धीरे  जब चर्चाएँ गुनगुनाने लगीं तो एक दिन सुमि कहने लगी, 'कोई सफाई नहीं कृष्ण । भ्रम में जीने दो सभी को । परवाह नहीं । अधिकाँश तो बड़ी बड़ी डिग्रियां लेकर अर्थ के पुजारी बनने वाले हैं । प्रेम, मित्रता, जीवन-दर्शन, मूल्य, संस्कृति , कला, सत्य, परमार्थ , साहित्य आदि व्यर्थ हैं , महत्वहीन  हैं उनकी कल्पना में । शायद मैं कुछ स्वार्थी होरही हूँ , तुम्हें यूज़ कर रही हूँ ; पर मेरे विश्वासी राजदार मित्र हो न, तुम्हारे साथ रहते कोई अन्य तो लाइन मार कर बोर नहीं करेगा न ।', वह आँखों में गहराई तक झांकते हुए कहती गयी ।
             मैंने प्रश्नवाचक निगाहों से देखा तो उसने अचानक पूछ लिया, 'कोई गम या अविश्वास मन ही मन ?' 
            ' कभी एसा लगा?' मैंने प्रत्युत्तर में कहा ।
            'नहीं ।
            तो सुनो ,
                                  'ग़म की तलाश कितनी आसान है । सिर्फ ग़मगीन इंसान ही है जो खुदकुशी पर आमादा  होजाता है, वर्ना ये चहचहाते हुए परिंदे, ये लहलहाते हुए फूल अपनी मुख़्तसर सी ज़िंदगी में इतने गमगीन नहीं होते की खुदकुशी करलें ।'   
           
          ' वाह !  मीनाकुमारी पढ़ रहे हो आजकल ।' 
           'अभी तो सुमित्रा कुमारी पढ़ रहा हूँ ।'
           'हूँ, ......तो सुनो सुमि का लालची आत्म निवेदन ----
                              
                              "  मैं हूँ लालच की मारी, ये पल प्यार के,
                                      चुनके सारे के सारे ही, संसार के,
                                           रखलूँ आँचल में अपने यूं संभाल के ।
                                               चाहती हूँ, कोई लम्हा रूठे नहीं ,
                                                       ज़िंदगी का कोई रंग छूटे नहीं ।।     
                और---
                                        " प्यार का जो खिला है ये इन्द्रधनुष ,
                                                 जो है कायनात पै सारी छाया हुआ।
                                                      प्यार के गहरे सागर में दो छोर पर,
                                                            डूबकर मेरे मन में समाया हुआ ।
                                                                उसके झूले में मैं झूलती हूँ मगन,
                                                                     सुख से लबरेज़ है मेरा मन मेरा तन ।।" 
         
              'वास्तव में  मेरी भी स्वार्थ पूर्ति होती है,  इसमें सुमि ! मैं कहा करता हूँ न कि हम सब कुछ  अपने लिए ही करते हैं ', मैंने कहा।
             ' क्या मतलब ?' 
             'घर वाले शादी की जल्दी नहीं करेंगे । जोर भी नहीं डाल पायेंगे ।' 
             'अच्छा, ये बात ! नहले पै दहला ।' वह खिलखिलाते हुए बोली , 'चलने दो ।'

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                                   'बड़ी सुन्दर एतिहासिक इमारत है और नदिया का किनारा , क्या बात है ।' सुमि इमारत के दरवाजे पर  आकर कहने लगी।  तभी सामने से साइकल पर 'अनु' कम्पाउंड के अन्दर आती हुई दिखाई दी । मुझे अचानक सामने देखकर हड़बड़ाहट में  ब्रेक लग जाने से साइकल फिसल गयी ।  मैंने तुरंत उसे उठाते हुए पूछा,  'चोट तो नहीं आई, लाओ देखें ।'  वह झटके से हाथ छुड़ाकर सुमि की और देखती हुई बोली, 'तुम यहाँ ?'
              ' मैं... क्या तुम मुझे जानती हो ?'  मैंने एकदम निर्विकार भाव से पूछा ।
              ' अच्छा शाम को घर आओ, तब  बताती हूँ ।', 'वैसे ये कौन हैं ?' उसने सुमित्रा की ओर इशारा किया ।
             ' ये डा सुमित्रा और मैं डा कृष्ण गोपाल । हम लोग डाक्टर हैं और मरीज़ ढूँढते रहते हैं ।  तभी तो पूछ रहा हूँ चोट तो नहीं आई,  देखें ।'  मैंने उसका हाथ पकड़ने का उपक्रम करते हुए कहा, ' ये हमारा फ़र्ज़ है न ।'
             अनु ने दूर होते हुए कहा, ' शाम को घर आकर फ़र्ज़ पूरा करना ।' और भुनभुनाते हुए चल दी, फिर मुड़ कर बोली , ' भूल गए हो तो बता देती हूँ, सामने ही है घर मेरा ।'
              ' क्या अधिकार है तुम्हारे ऊपर।  बड़ी प्यारी है, कौन है यह ।' सुमित्रा न पूछा।
              'अनु,  अनुराधा, मेरी बचपन की सखी ।'
              क्या बात है,  'लरिकाई कौ प्रेम कहो अलि कैसे छूटै  ।'  बड़े लकी हो तुम तो यार । तुम तो सचमुच ही.....  यारों के यार हो ।' मैंने स्वयं ही वाक्य पूरा किया तो सुमित्रा बोली, ' यस, इन्डीड '...तो यह है वो ।'
             'और तुम क्या हो ?'
             ' मैं तो कुछ भी नहीं हूँ केजी ।'  वह निश्वांस छोड़कर बोली,  'खैर, 'वो '  वो  ही रहेगी या.....????...बात आगे बढ़ेगी तो बहुत अच्छा रहेगा ।'
              ' आकाश-कुसुम ।'
              ' तुम या वह ?'
              ' परिस्थिति, सुमित्रा जी ।  मैं अभी काफी समय तक शादी की नहीं सोचता और अनु के घर वाले तब तक नहीं रुक पायेंगे ।'
              ' यद्यपि उसकी उम्र अधिक नहीं  है पर लगता है बहुत चाहती है तुम्हें ।  यह प्रेम का मामला होता ही एसा है ।'  सुमि बोली ।
              ' प्रेम..... मैंने हंसते हुए कहा ।  प्रेम क्या है, अभी से जानने लगी क्या अनु ?  यह कौतूहल, जिज्ञासा होती है एक आश्चर्यजनक नयी दुनिया के प्रति, विपरीत लिंगी के प्रति ।'
             ' अरे नहीं , केजी ! लड़कियां जल्दी मेच्योर हो जाती हैं।  प्रेम का अर्थ लड़कों से पहले जानने लगती हैं।'
             ' और लड़कों को फंसाकर प्राय: स्वयं फंस जाती हैं और बाद में दोनों ही पछताते हैं ', मैंने कहा ' विवाहेतर संबंधों का एक मूल कारण यह भी है ।  भारतीय समाज में तो  अधिक फर्क नहीं पड़ता था, यहाँ तो अपर-सम्बन्ध खूब चलते हैं और चुपचाप, सतही तौर पर,  मर्यादित -ताकि जिज्ञासा, कौतूहल एवं नयी उम्र की दुनिया से तादाम्य हो सके।  भाभी -देवर, जीजा-साली, सलहज़-जीजा...आदि के हँसीं-ठिठोली के पंजीकृत किन्तु मर्यादित, जाने-माने  भारतीय सन्दर्भ के सम्बन्ध - समाज में विपरीत लिंगी के प्रति आश्चर्य मिश्रित जिज्ञासा का शमन करते हैं और  उदाहरणात्मक व  प्रयोगात्मक सन्दर्भ में एक प्रकार की सेक्स- एज्यूकेशन बनते हैं । परन्तु पश्चिमी जगत में दिखाने को खुले परन्तु वास्तव में अज्ञानपूर्ण विवाहेतर सम्बन्ध खुलेआम व अंतर्संबंध - वासनात्मक होकर तनावों को जन्म देते हैं ।'
             ' हूँ....शाम को पेशी है ।' सुमि हंस कर बोली ।
            ' सब होजायगा , डोंट वरी, वह मुझे अच्छी तरह जानती है '  
            ' आई नो.... आई टू नो ।' 
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                                ’ सदियों से भारत में दो प्रतिकूल विचार धाराएं चली आरहीं हैं । एक ब्राह्मणवादी दूसरी ब्राह्मण विरोधी,  जो अम्बेडकर वादी विचारा धारा है, जिसमें समता, स्वतन्त्रता, सामाजिक न्याय की बात है । और अभिजात्य चरित्र का वर्ग सदैव ही जनवादी चरित्र के वर्ग पर अन्याय-अत्याचार करता आया है ।'  जयंत कृष्णा ने, जो बाबासाहब अम्बेडकर की विचारधारा से प्रभावित था, यह बात केन्टीन में समता-समानता के ऊपर हो रहे वार्तालाप के मध्य कही ।
             'नहीं यार, एसा नहीं है,'   मैंने कहा, ' भारत में तो अभिजात्य व जनवादी चरित्र अलग रहा ही नहीं । चरित्र तो व्यक्ति व आत्मा का व्यापार है, अलग अलग कैसे होसकता है ? कार्यक्षेत्र, काम, व्यवहार, जीवन-जगत, उठना-बैठना अलग-अलग हो सकते हैं; व्यक्ति, देश, काल के अनुसार, पर चरित्र शाश्वत है जो भारत में कभी अलग-अलग नहीं रहा। यहाँ राजा भी चौके में कपडे उतारकर भोजन करता था, दैनिक वेतन भोगी भी, साधू भी, गृहस्थ भी ।'
              'यहाँ तो राजा-महाराजा,चक्रवर्ती सम्राट भी साधू-संतों के पधारने पर अपना सिंहासन व सर्वस्व भी उनके पैरों पर रख देते थे।  यह अद्यात्म, ज्ञान,त्याग, विद्वता, मुमुक्षा, आत्मसंतोष व सात्विकता को भौतिकता का नमन था, जो आत्मभाव में तुष्टता व अहंभाव के त्याग के बिना नहीं हो सकता ।  यही अहं  का त्याग व आत्मसंतुष्टि भाव, अध्यात्म व भौतिकता के समन्वय द्वारा जीवन जीने की भारतीय कला की रीढ़ है । यही अभिजात्य व जनवादी चरित्रों का समन्वय भारतीय नीति, राजनीति,व कर्मनीति का आधार है ।'
              ' हाँ,  पराधीनता की बेड़ियों में अधर्मी, अहंकारी. व्यक्तिवादी , चारित्रिक रूप से कृषकाय विदेशी शासकों के शासन में  कुछ दुर्वल-चरित्र हुए भारतीय शासक या अभिजात्य वर्ग अपना जनवादी चरित्र भूलकर अपने शासकों का चरित्र अपनाने लगे थे और इसप्रकार की धारणाएं बनने लगीं जो तुम व्यक्त कर रहे हो ।'
              'और जयंत ! तुम भ्रम में हो । ये धाराएं वास्तव में देव- संस्कृति व असुर संस्कृतियाँ हैं क्योंकि न तो राम ही ब्रह्मण थे न कृष्ण ही, जबकि रावण ब्राह्मण था परन्तु ब्राह्मण विरोधी । राम व कृष्ण ब्राह्मण विरोधी नहीं थे । अम्बेडकर  तो तब थे ही नहीं तो वह धारा सदियों से हो नहीं सकती ।', सुमि ने कहा ।
              ' वस्तुतः वे ब्रह्म विरोधी, अर्थात ईश्वर नहीं है, मानव ही सब कुछ है, एवं ब्रह्मवादी  कि  ईश्वर है एवं मानव के अच्छे -बुरे कर्म का फल मिलता है , ये दो धाराएं हैं । और समानता का अर्थ समता नहीं हैं । यदि सब सामान होजायं, सारे पर्वत समतल कर दिए जायं; तो न मेघ बनेंगे, न वर्षा होगी, न नदी बहेगी न हरियाली होगी, न सागर न जीवन ।  राजा, मंत्री, प्रजा सबके अधिकार समान कैसे  हो सकते हैं?  बालक, वृद्ध, युवा सबसे समान व्यवहार नहीं किया जा सकता । वास्तव में समता-समानता के लिए ...सब समान हों या स्वतन्त्रता की नहीं अपितु सत्य, न्याय, यथायोग्य, यथोचित- व्यवहार, कर्तव्य व अधिकारों की बात  होनी चाहिए ।' सुमि ने आगे जोड़ा ।
                ' यदि मैं अपनी तरह से अर्थात खुलकर कहूं तो सारे स्त्री-पुरुष समान भाव होकर साथ-साथ नंगे सो सकते हैं क्या ?  यह तो तभी होसकता है जब या तो सभी संत बन जायं या जड-पदार्थ, अर्थात जीवन  रस रंग रहित पृथ्वी ...।'  ए के  जैन ने जोर जोर से हंसते हुए कहा ।
                'वास्तव में मुख्य बात तो वही है कि मानव-मानव में प्रेम व समरसता बढे;  जाति, धर्म, भेद भूलकर  राष्ट्र व मानवता के व्यवहार में सभी एक जुट होकर कार्य करें,  यही समता है और मानवतावादी धारा.... ब्रह्मधारा.... जीवन धारा । यदि बावा साहब भी इसी समता की बात करते हैं तो इसमें अनुचित क्या है ? ', मैंने जयंत की तरफ देखते हुए कहा,  ' कीप इट अप यार ! लैट द  डिस्कशन गो ऑन, इट ब्रिंग्स बटर फ्रॉम मिल्क ।'  चलने दो मित्र बहस जारी रहनी चाहिए ।'
             ' मथे न माखन होय ।'  सुमित्रा ने जोड दिया ।
             ' और जयंत जी , साम्प्रदायिकता व अहिंसा के बारे में आपके क्या विचार हैं ?' सुमि  ने पुनः विषय को छेड़ते हुए कहा ।
             ' मेरे विचार में  अशोक, अकबर व गांधी सच्चे अहिंसावादी थे , साम्प्रदायिकता विरोधी । हिंसा देखकर जिनका  ह्रदय परिवर्तन हुआ,करुणा जागृत हुई ।'  जयंत ने कहा ।
             ' हाँ सामान्यतः विचार यही है । पर इन तीनों का ह्रदय परिवर्तन व्यक्तिगत घटनाओं के कारण हुआ । स्वभावजन्य, स्वाभाविक परमार्थजन्य भाव से नहीं, जो भारतीय जन मानस के विचार की रीढ़ है, व्यवहार की धुरी है । यह जन्मजात स्वाभाविक भाव नहीं था अपितु, " नौ सौ चूहे खाय बिलाई हज को चली" बाली बात है । यह राम-कृष्ण वाली आदर्श स्थिति नहीं है । इसीलिये सभी जनमानस उन्हें महान तो मानता है कि " जब आँख खुले तभी सवेरा "   परन्तु सर्वकालीन आदर्श नहीं ..जैसे राम-कृष्ण को ।' मैंने स्पष्ट करते हुए कहा ।
              ' राम-कृष्ण , महाकाव्यों के पात्र भर हैं या वास्तविक व्यक्ति, इतिहास-पुरुष ?' जयंत ने अपनी शंका जाहिर की ।
              ' वैसे तो राम-कृष्ण कोई काल्पनिकं पात्र नहीं हैं अपितु इतिहास पुरुष हैं । कालान्तर में विभिन्न चमत्कारिक घटनाओं का इसे चरित्रों के साथ जुड़ जाना कोई नवीन तथ्य नहीं है । परन्तु साथ में ही यदि इन्हें काल्पनिक पात्र मान भी लें तो भी राम-कृष्ण कोई काल्पनिक व्यक्तित्व नहीं हैं, वे सदैव, हर युग में, समाज में होते हैं । काव्य व  साहित्य में पात्र का निर्धारण साहित्यकार कैसे करता है ? उसके पात्र समाज में सदैव ही होते हैं ।  कृतिकार उनके चरित्र को अपने मंतव्य व अनुभव के अनुसार कृति में  जीवंत करता है । वे पात्र जीवित विशिष्ट पुरुष या इतिहास पुरुष या जीवित सामान्य जन कोई भी होसकता है । हमारे भारतीय साहित्य, साहित्यिक कृतियों में काल्पनिक चरित्रों के लिए कोई व्यवस्था नहीं है । उसके लिए 'गल्प' नाम से पृथक विधा है जिसमें पात्र व काव्य पूर्णतया काल्पनिक होते हैं, यद्यपि तथ्य व विषय वस्तु , सामाजिक व काल सापेक्ष होते हैं । पाश्चात्य विद्याएँ -फेंटेसी  या वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित काल्पनिक विज्ञान कथाएं  इस श्रेणी में आती हैं ।'
                ' चलो वार्ड ड्यूटी पर जाना है ', सुमि ने ध्यान दिलाया  ।

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                                    " सामाजिक एवं प्रतिरक्षण विभाग"  के प्रोजेक्ट के तहत हम लोग चिकित्सा विद्यालय के समीप एक कालोनी में टीकाकरण-टीम बनाकर घर-घर घूम रहे थे । एक कालोनी में एक युवा महिला के तीसरे बच्चे को टीका लगाते हुए मैंने पूछा कि तीनों बच्चे स्वस्थ रहते हैं तो अचानक वह युवती हंसाने लगी । मैंने सिर उठाकर देखा तो वह मुस्कुराकर कहने लगी, ' तुम श्रीकिशन हो ना ?'
            ' हाँ, पर तुम ....?' मैंने आश्चर्य से प्रश्नवाचक नज़रों से पूछा ।
             'भूल गए हो, मंदिर वाला स्कूल, वेवकूफ भुलक्कड़ , वो थप्पड़ ....।'
            ' माया !.....तुम, यहाँ ! और ये तीन बच्चे ? तुमने तो अचानक स्कूल आना बंद कर दिया था ?'
             'चलो याद तो आया, मेरी सगाई हो गयी थी न ।'
             सगाई ! पांचवी क्लास में ?' मैंने आश्चर्य से पूछा ।
             ' अरे, मैं तो १३ साल की थी, तुमसे चार वर्ष बड़ी ।  तुम डाक्टर होगये हो न ।'
             सुमि हँसने लगी , " ओल्ड हेबिट्स डाई हार्ड ।"
             ' तुम्हारी शादी होगई ?' माया ने पूछा ।
             ' अभी ढूंढ रहे हैं,  तुम्हारे जैसी सुन्दर लड़की ।'  सुमित्रा खिलखिलाकर कहने लगी । माया मुस्कुराकर बच्चों को चुप कराती हुई अन्दर चली गयी ।
                ' मैं जानती हूँ तुम्हें कितना बुरा लगता है यह सब देखकर ।  पर वह तो सुखी है अपने संसार में । संतुष्ट व सुखी जीवन होना चाहिए, फिर चाहे जिस स्तर पर हो । यही महत्वपूर्ण है । सब्जबागों का कोई अंत नहीं है ।'  सुमि कहती गयी ।
                 ' यद्यपि अधिकतर स्त्रियों की यही विडम्बना है अपने देश में । कम उम्र में शादी, जल्दी मातृत्व और कई बच्चे । तभी तो यहाँ  "शिशु व मातृ मृत्यु दर"  बहुत अधिक है ।' सुमि ने कहा ।
                " व्हाट शुड बी डन ?" सुमित ने सोच कर कहा ।
               " सबको शिक्षा का प्रचार -प्रसार",  विशेषकर स्त्री शिक्षा, एक मात्र लॉन्ग-टर्म ( दूर गामी ) उपाय है । शार्ट -टर्म के रूप में "घर घर स्वास्थ्य परीक्षण कार्यक्रम" इसका उत्तर है ।' सुमि बताने लगी ।
               ' दैट इज व्हाई वी आर हीयर '...सुधा ने बात समाप्त करते हुए कहा ।
               पर सुमि बात समाप्त करने के मूड में नहीं थी । बोली, ' वैसे बात यहाँ समाप्त नहीं होती। स्त्री शिक्षा की कमी के कारण ही भारतीय समाज में तमाम कुप्रथाएँ प्रचलन में आगईं हैं ।  नारी शिक्षा  व स्वास्थ्य की अवहेलना का सीधा अर्थ है सारे परिवार, पुरुष, पति, बच्चे, पिता- सभी का सामंती युग में रहना, वैसा ही पारिवारिक एवं तदनुसार सम्पूर्ण सामाजिक वातावरण ।  इसी वातावरण के चलते पढी-लिखी बहुएं, लड़कियां भी उचित व युक्ति-युक्त विरोध नहीं कर पाती  और पारिवारिक उत्प्रीडन, स्त्री को पैर की जूती  समझना व दहेज़ जैसी कुप्रथाएँ जिनके दूरगामी परिणाम स्वरुप बहुएं जलाना, बहुओं - लड़कियों द्वारा आत्महत्या आदि कुप्रथाएँ फ़ैली हुईं हैं ।  महिलाओं को स्वयं शिक्षित व जागरूक होकर इनसे डटकर लोहा लेना होगा ।  पुरुषों का भी दायित्व है की स्वयं के, भावी संतति के परिवार व देश- समाज के व्यापक हितार्थ महिलाओं का साथ दें । ताली दोनों हाथ से बजती है ।'
                 ' क्या मैंने कुछ गलत कहा, कृष्ण ?'
                 'हूँ '
                ' हूँ, क्या?  अभी  तक माया के ख्याल में खोये हुए हो ?'
                 'हाँ,  विसंगतियों के दो ध्रुवों पर मंथन कर रहा हूँ । एक तरफ माया, दूसरी तरफ सुमित्रा जी ।'
                             सब हँसने लगे तो सुमित्रा बोली , ' चलो चलो आगे चलो ।'

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                                            ' भारतीय थल सेना में विशेष शार्ट-सर्विस कमीशन का विज्ञापन आया है, चिकित्सा सेवा कोर के लिए । चतुर्थ वर्ष में ही द्वितीय लेफ्टीनेंट की पे व पोस्ट देंगे , फाइनल ईयर में केप्टन की । इंटर्नशिप भी नहीं करनी है सीधे पोस्टिंग । बाद में नियमित सेवा में भी आफर दिया जायगा ।' विनोद ने उत्साहित होते हुए बताया ।
               ' वाह ! एक फ़ार्म मेरे लिए भी ले आना ।' मैंने आग्रह किया ।
               दूसरे दिन सुमित्रा ने आकर हैरानी से पूछा ,' कृष्ण, क्या तुम भी सेना-चिकित्सा का फ़ार्म भरोगे ?'
               ' हाँ, क्यों ?'
              ' क्या क्या करोगे, केजी ? तुम वहां क्या करोगे ? वहां भी कविता करोगे क्या ।'
              ' क्यों ? क्या मैं यहाँ सिर्फ कविता करता हूँ, और कुछ नहीं, पढ़ता-लिखता नहीं हूँ क्या ? और क्या मैं  सेना में नहीं जा सकता ।'
              ' मेरा मतलब है', वह सकपका कर बोली, '  मिलिट्री का अनुशासन, नीरस लाइफ और केजी, कवि - ह्रदय  केजी,  समाज-सुधार की आवाज लगाते हुए, कृष्ण ।  क्या रुक पाओगे तुम वहां ?  वहां तो आर्डर होता है और पालन करना ।  न तर्क न व्याख्या ।'
               ' हुज़ूर, मुझे कोई लड़ना थोड़े ही है । डाक्टरी कहीं भी की जा सकती है । एक ही बात है ।'
               ' पर रिस्क फेक्टर तो है ही ।'
               तो यह बात है । किसी को तो रिस्क लेना ही पड़ता है । कर्नल साहब की भाँति। रिस्क फेक्टर तो सड़क चलते भी होता है  तो क्या चलना बंद कर देते हैं।?'
               'क्या कोई और कारण तो नहीं ?' सुमि कुछ रुक कर बोली ।
                ' अरे नहीं सुमि!,  मैं भी इन्द्रधनुषी जीवन का हर रंग, हर भाव, हर लम्हा जीना चाहता हूँ ।'
               ’ पर कुछ अच्छा नहीं लग रहा । खैर जो इच्छा ।’
                           विनोद और मैं व सतीश चुन लिये गये । परन्तु कुछ समय बाद जब युद्ध विराम होगया तो वह स्कीम ही निरस्त होगयी । सुमि ने बडे उत्तेज़ित होते हुए बताया, ’ वह स्कीम ही केन्सिल होगयी, अब क्या ?  चलो अच्छा हुआ ।’
               ’ कहीं तुमने कोई षडयन्त्र करके तो कैन्सिल नहीं करवा दी ?’  मैने कहा तो वह आश्चर्य  से देखने लगेी ।
                ’ मेरा मतलब है कि तुम नही चाहती थीं और तुम्हारी  इच्छा पूरी होगयी । क्या वास्तव में प्रार्थना में इतनी शक्ति होती  है ?’
                 हां, सो तो है,  अगर मन से की जाय, वह मुस्कुराकर बोली ,’ चलो आज मैं काफ़ी पिलाती हूं ।’
                 हम भी चलेंगे,  और अपना-अपना पेमेन्ट नहीं करेंगे ।  हमारी भी तो नौकरी चली गयी है, मिलने से पहले ही ।  शायद केजी के चक्कर में।’  विनोद और  सतीश बोले ।        

             -- अंक सात समाप्त ......क्रमश: अन्क आठ अगली पोस्ट में....          
            

   



            
 

सोमवार, 12 मार्च 2012

’ इन्द्रधनुष’ ----अंक पांच व छ:.....-- स्त्री-पुरुष विमर्श पर डा श्याम गुप्त का उपन्यास....



                         


      
        ’ इन्द्रधनुष’ ------ स्त्री-पुरुष विमर्श पर एक नवीन दृष्टि प्रदायक उपन्यास (शीघ्र प्रकाश्य ....)....पिछले अंक चार  से क्रमश:......
    
                                अंक पांच  

                       'कालिज डे' मनाया जाना था । सुमित्रा लगभग दौड़ते हुए आई ।  'कृष्ण ! एक गीत बनाना है  और गाना भी पडेगा ।  मैं नृत्य में अपना नाम  रही हूँ ।  कब दोगे ।'
         'परन्तु मैं चिकित्सा विषय पर सेमीनार के लिए अपना आर्टीकल तैयार कर रहा हूँ ।'  मैंने असमर्थता जताने का प्रयत्न किया ।
        'वह तो तुम कर ही लोगे । कौन सा नवीन रिसर्च करके लिखोगे । इस स्टेज पर तो सभी विशेषज्ञ-व्याख्यान व लेख इधर-उधर से जोड़ तोड़ के ही लिखे जाते हैं । चिकित्सा विषयों पर अपना ओरिजिनल पेपर लिखने में तो ज़िंदगी भर का अनुभव चाहिए ।'
         मैंने उसे घूर कर देखा,  फिर कहा, ' पर मुझे गाना कहाँ आता है ?'
        'मैं रिहर्सल करा दूंगी । गीत बनाते हो तो गा भी सकते हो.... चलेगा ।' 
       'किसी अच्छे गाने वाले को क्यों नहीं लेती?'  मैंने सुझाया ।
       ' नहीं, अधिक लोगों को मुंह लगाना ठीक नहीं । सब तुम्हारे जैसे सुलझे हुए थोड़े ही होते हैं ।  कौन सी शास्त्रीय प्रतियोगिता है, जो गाओगे चलेगा ।'  वह सिर हिलाकर मुस्कुराई ।
       ' इस सुलझन में ही तो मैं उलझ कर रह गया हूँ ।'  मैं भी मुस्कुराया ।
       " शट अप। ",  शाम को गीत लाकर दो।  कल रिहर्सल है,  तैयार होके आना।   देखूं कैसे सर्वगुण संपन्न बनते हो।'
       ' मुझसे तो अच्छे द्वापर के कन्हैया ही थे । कम से कम गोपियों के साथ रास तो रचा लेते थे ।'
        " क्या मैंने कभी मना किया है गोपियों के साथ रास रचाने को ?",  वह पलट कर कहने लगी, ' और रास !... हूँ .... शास्त्रों के ज्ञाता होने का दम भरते हो ।  ये बार बार भटकने-भटकाने का स्वांग क्यों रचते हो, मैं सब समझती हूँ ।  क्या ये प्रोग्राम 'रास' नहीं होगा ?  आखिर रास क्या था।  किसी विशेष उद्देश्य के लिए किया गया सामूहिक क्रिया-कलाप,  जिसे रसमयता का रूप देदिया जाय ।  राधाकृष्ण का रास भी तत्कालीन नारी को समाज सेवा के लिए प्रतिबद्धसामाजिक कर्तव्यहीनता व दौर्वल्य की परिधि से बाहर निकालने का अभिकल्प था, उपादान था राधा का चरित्र ।  श्री कृष्ण जैसे बलशाली, बुद्दिमान, चतुर, नीतिज्ञ, विद्वान्  व समाज सुधार के लिए नव व पुरा विचारों में संतुलन रखने वाले मित्र का साथ व नेतृत्व पाकर वह जननेत्री व स्त्रियों की सामाजिक चेतना तथा  स्वतंत्रता का बोधक हुई । जो तत्पश्चात प्रेम व त्याग-तप  की उच्चतम स्थिति में पहुँचने के कारण जन- जन की पूज्य व आराध्य देवी रूपा हुई । यही राधा के चरित्र की अर्थवत्ता है ।"
          मैं मुस्कुराने लगा तो सुमि कहने लगी,  ' होगया.... अब चलूँ ? ' 
         ' जय हो राधारानी की, प्रस्थान करें ।'  मैंने हंसते हुए हाथ जोड़कर कहा । 
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                             रिहर्सल पर मैंने अपना पार्ट सुनाया -----
                                             " तुम श्यामल-घन, तुम चंचल मन,
                                              तुम जीवन  हो , तुमसे जीवन ।
                                              प्रीति भी तुम हो, रीति भी तुम हो,
                                              तुम श्यामल-तन, तुम जीवन-धन ।
                                              तेरी  प्रीति की  रीति  पै  मितवा,
                                              मैं गाऊँ , मैं  बलि-बलि जाऊं ।। "
                सुमि ने अपना पार्ट गाकर सुनाया -----
                                            " तेरे गीतों की सरगम पर,
                                             मस्त मगन मैं नाचूं गाऊँ । 
                                             तेरी वीणा की लहरी पर,
                                            बनी मोहिनी मैं लहराऊँ ।
                                            तेरी प्रीति की रीति पै मितवा ,
                                            बलिहारी मैं बलि-बलि जाऊं । "
                सुमित्रा ने कई बार  गाकर - नृत्य करके बताया, समझाया ।  डांस, स्लो, मध्यम फिर द्रुत रिदम में करूंगी,  फिर मद्धम में । अंतरा को दो दो बार रिपीट करना है ,...आदि...आदि ।
              कार्यक्रम काफी सफल रहा ।  सुमि तुनक कर बोली,  ' बड़े खराब हो केजी ! सीखने का नाटक करते रहे,  बहुत अच्छा गा लेते हो । लगता था जैसे पैरों को पंख लग गए हों । आज मैं  बहुत  बहुत  बहुत खुश हूँ ।' 
             ' नृत्यांगना और नृत्य दोनों ही  'सुपर्व'  हों तो संगीत फूट ही पड़ता है,  गूंगे मन में भी ।',  मैंने हंसकर कहा ।
            ' गूंगे, और केजी ? '  क्या गुड़ की मिठास बता नहीं पारहे हो ?  खैर, प्रशंसा का तुम्हारा निराला अंदाज़, अच्छा है ।  वह खिल खिला कर हंसी,  फिर अचानक चुप होकर बोली ,  ' अच्छा , ये श्यामल घन और श्यामल तन'  से क्या अभिप्राय है तुम्हारा ?  मैं सांवली हूँ तो मेरा मज़ाक तो  नहीं बना रहे थे कहीं ।'  वह मुस्कुराते हुए घूर कर कहती  गयी।
            नहीं जी, श्याम सखी द्रौपदी,  अप्रतिम सुन्दरी,  भी  सांवली ही थी ।
            मुझे द्रोपदी कह रहे हो ?   
            नहीं,  अप्रतिम सुन्दरी...... हे श्यामान्गिनि !  मैं हंसते हुए बोला ।
           खींच लो....खींच लो....।  आज सब माफ़ है तुम्हें ।  मैं आज बहुत अच्छे मूड में हूँ ।
           ' पर क्या द्रोपदी के बारे में कोई भ्रांत धारणा ?।'
           नहीं,  के जी जी,  तुम्हारी तो लगभग हर बात ही सटीक लगती है ।  मैं तो खुद को भी द्रौपदी कहती  हूँ ।
मेरे भी पांच पति हैं ...वह अनायास ही कह गयी ।
          मैंने आश्चर्य से उसे देखा तो कहने लगी,  'पति क्या है ? जो पत रखे...पतन से बचाए....मान रखे...सम्मान दिलाये....।' वह मुस्कुराकर बोली, ' शास्त्र बचन  है---- "  रक्ष्यते सख्यते पतनात स पति: ...।" 
         किस शास्त्र का है ?,  मैं पूछने लगा ।
         'मेरे शास्त्र का '  वह खिलखिलाई ।
         'तब ठीक है।  और पांच पति ?'   मैंने प्रश्नवाचक मुद्रा में देखा  । 
        जो पतन से बचाएं ।  'शास्त्र  व माता-पिता की शिक्षा एवं   संस्कार , मेरी अपनी सामयिक शिक्षा-दीक्षा व संस्कार,  मेरा चरित्र व आचरण ,  रमेश और.....र.र. ...तुम .....।'
          मैं अवाक ......देखता रह गया ।  
        ' चकरा गए न ज्ञानी-ध्यानी.......? '  वह खिलखिलाकर हंसी,  फिर भाग खड़ी हुई ।

                       **                                **                                   **   

                             " डा कृष्ण गोपाल जी आपकी वह कहानी पढी,  जिसमें एक प्रसंग में है कि मेढक के  दो दिल,  किसी के दो स्टमक ( आमाशय--खाने की थैली ) , एक बार एक बढे मेंढक के पेट में अन्य छोटा मेंढक था एक दम श्वेत त्वचा वाला जो शायद आमाशय के एच सी एल अम्ल में घुल गयी थी । क्या ये सब सच घटनाएँ हैं ? हमें तो कभी नहीं मिला ।  
           ' कहानी  तो कल्पना ही होती है ।'  मैंने बताया । 
           ' अरे नहीं, डाक्टर साहिबा जी, यह सच बात है ।'  राकेश ने पीछे से आकर नमस्कार करते हुए  डा .वीना को बताया ।  'मैं डा कृष्ण जी का इंटर का क्लास-फेलो हूँ और मेरे सामने की ही ये बातें हैं । शायद  ' स्पेशिमेंन' स्कूल की लैब में रखे भी हों । ये आपको टरका रहे हें ।' 
            ' ओ पंछी !  इतनी हिम्मत ।  दो लोगों की बातें सुनते हो ?  बुरी बात,  निगाहें कमीज़ के तीसरे बटन पर .....'   वीना मेरी तरफ  देखकर मुस्कुराती हुई बोली ।
           ' पर बुजुर्गों की बातें तो बच्चे सुन कर ही सीखेंगे ..।'   राकेश पूरी तरह से साष्टांग दंडवत की मुद्रा में वीना के कदमों में झुकता हुआ बोला । वह घबराकर दो कदम पीछे हट गयी ।
           ' राकेश, यार !  तुम तो बड़े सीधे साधे लडके थे,  बड़े स्मार्ट होगये हो ।  तुम्हारे तो पर निकलने लगे हैं, अभी से ।'  मैंने हंसते हुए पीठ पर धौल जमाते हुए कहा ।  
           ' पंछी जो ठहरा , वो भी किस का खास ।' सुमित्रा निकट आते हुए बोली,  'तो तुम केजी के ख़ास क्लास-फेलो हो , इंटर के ।  इस वर्ष सिलेक्ट हुए हो ?'
           ' जी हाँ,  ये तो कुछ जल्दी ही साथ छोड़ कर चले आये ।'
           'अच्छी आदत है, बहुत काम आती है।', सुमि वीना के साथ जाते हुए बोली, 'शाबाश, रौब में मत आना।" 
           ' जलवे हैं यार तुम्हारे तो, केजी ! क्या नाम है और क्या गहराई है कथन में ? राकेश पूछने लगा ।
           " त्रिया चरित्रं पुरुषस्य भाग्यं देवो न जानाति .......... । "   
           ' टाल रहे हो ।'
          ' चलो चलो, ज्यादा दिमाग न खपाओ । पढ़ने में लगो, डिसेक्टर का दूसरा पेज कल रटकर सुनाना ।'
           ' ओ के बॉस ।'  राकेश सेल्यूट ठोक  कर  हंसते हुए  चलने लगा,  फिर लौट कर बोला , ' शाम को पिक्चर चलें,  ब्लो हॉट ब्लो कोल्ड,  इम्पीरियल में ।'
           यू फूल !  तभी उन्हीं लोगों से पैसे क्यों नहीं मांगे ?   इन्फोर्मेशन भी देते हो वो भी फ्री ।  दौड़कर जाओ और दो टिकट के मांग कर लाना ।  

               -----अंक पांच समाप्त ...


                                                               अंक छह 

                               द्वितीय  प्रोफेशनल परीक्षा के बाद क्लास रूम में  प्रोफ. नलिनी पंडित ने पूछा --
        ' हू वाज़ द लास्ट टापर?' ( पिछला टॉपर  कौन था )
        ' सावित्री शर्मा ', एक आवाज़ आई ।
        'कितने मार्क्स मिले हैं अब ?
        '२७६' - सावित्री ने बताया ।
        ' सर्वाधिक किसके हैं ?'
       ' डा कृष्ण गोपाल गर्ग के '  अचानक सावित्री बोल पडी ।
       ' हाऊ मैनी ?'
       ' २७८ ' - सावित्री फिर बताने लगी ।
       ' व्हेयर इज ही ?'.....( वह कहाँ है ) ।
         मैं अपने स्थान पर खडा हुआ तो प्रोफ. पंडित ने कहा , ' बधाई , डा कृष्ण ।'
                   'पर मैडम,  न तो अभी मुझे अपने मार्क्स ज्ञात हुए हैं,  और न मैं एसा समझता हूँ ।' , मैंने कहा तो सारी क्लास आश्चर्य से देखती रह गयी ।
                ' बट आई हैव सीन इन यूनिवर्सिटी लिस्ट' , ( पर मैंने यूनीवर्सिटी की मार्क्स-लिस्ट में देखा है ) सावित्री ने कहा ।
               ' बट आई डोंट हैव दैट प्रिविलेज ' ( मुझे तो ये सुविधा नहीं है ),  मैंने कहा ।  सारी क्लास हँसने लगी ।  सावित्री का चेहरा झेंप से लाल होगया था ।
       ' बैठ  जाइए ' - प्रोफ. पंडित ने असमंजस में कहा ।
                          सावित्री  नगर के राजनीतिज्ञ- नेता  व विधायक, के एल शर्मा की पुत्री थी ।  क्लास के बाद सुमित्रा ने कहा , 'तुमको कुछ कहने की क्या आवश्यकता थी । जबदस्ती छेड़ने में मज़ा आता है ?'
        ' मुझे पक्का  कहाँ पता था, कैसे मान लेता । '
       ' वाह ! क्या सत्यवान से पाला पडा है । मज़े हैं तुम्हारे तो..... सावित्री  भी..... भई वाह ! '
       'हाउ कम ' ( कैसे पता ),  वैसे क्या ये तुम्हारी ईर्ष्या बोल रही है  या.......।
       'कोई क्यों यूंही दूसरे के मार्क्स देखेगा और भरी क्लास में बताएगा भी ।' सावित्री ने क्यों तुम्हारे नंबर देखे ?
       ' यह सिर्फ टॉपर की कौतूहलवश  जिज्ञासा है और कुछ नहीं। कोई लड़का होता तो वह भी यही करता । और तुम हर एक का नाम मेरे साथ जोड़ने के चक्कर में क्यों रहती हो ?'
      ' पर तुमने उसे बहुत नर्वस कर दिया ।' वह टालती हुई बोली, ' क्या तुम्हें उससे बात नहीं कर लेनी चाहिए ?'
       ' ओ के ' ठीक है ।
       ' चलो हमें उससे बात कर लेना चाहिए ।' सुमि उठते हुए बोली ।
       ' पर तुम क्यों गवाह बनाना चाहती हो ?  क्या मुझे अकेले बात नहीं करना चाहिए ?'
       ' ओह !  ओह !  हाँ,  बिलकुल ।'  वह हंसते हुए बैठ गयी ।

                          **                    **                        **

         'क्या अपना वृन्दावन - मथुरा नहीं दिखाओगे ?' 
         'मेरा वृन्दावन ! क्या मतलब ?'  मैंने पूछा ।
         'हाँ, हाँ.. कृष्ण गोपाल महाराज जी ।'
          ' तो चलो, कल ही चलते हैं ।'
         ' इतनी शीघ्र फैसला ले लेते हो ?'
         'राधारानी की आज्ञा, फैसले का प्रश्न ही कहाँ उठता है ।'
         'तो  ए. के.  व  सुधा से भी पूछ लिया जाय ?'
         'हाँ अवश्य, क्यों नहीं ।' मैंने  स्वीकृति में कहा ।
                                 बिहारी जी के मंदिर में मुझे यूं ही आराम से हाथ बांधे खडा देख कर सुमित्रा कहने लगी,   'हाथ तो जोड़ लो बिहारी जी के ।'
         'क्यों, क्या हाथ जोड़ने से वास्तव में हमारे सारे दुःख दूर व कार्य बन जाते हैं ? ' मैंने हाथ जोड़ते हुए पूछा।
                            ' यह आस्था का विषय है ',  सुमित्रा समझाते हुए कहने लगी,   'आस्था एक व्यक्तिगत व समाजगत  मनोवैज्ञानिक स्थिति है जो मनुष्य के मन में आत्मविश्वास उत्पन्न करती है ।  स्वयं पर निष्ठा रखना सिखाती है  कि यदि मैंने अपना कार्य पूर्ण निष्ठा व श्रम से किया है तो आगे आप को समर्पित,  अब जो भी हो ।  तभी तो सामान्यत: अपना कार्य सिद्ध न होने पर भी सामान्यजन की श्रृद्धा कम नहीं होती । वह भगवान को व अन्य को दोष न देकर  अपने कर्मों की कमी व भाग्यफल को मानकर पुनः सहज भाव में आगे अपने कार्य में लग  जाता है ।'
            ' तभी  तो  मैं मन में आस्था रखता हूँ ।'
           ' परन्तु व्यक्त होना भी आवश्यक है,  इससे पीछे आने वाले व अन्य लोग प्रभावित, उत्साहित व प्रेरित  होते हैं ।'
          मैं मुस्कुराते हुए चुप रह गया ।
                                   गोवर्धन परिक्रमा मार्ग पर एक ग्रामवासी ने बताया कि  इन्हीं रास्तों पर जब ये पगडंडियाँ  होंगी,  कृष्ण बांसुरी बजाते  तथा  राधा एवं गोपियाँ नृत्य करते हुए,   ग्रामबासियों को नयी नयी बातें व  गतिविधियाँ बताया करते थे ।
          मैंने सुमि से पूछा,  ' सुमि ! क्या कहीं से कृष्ण की वंशी की ध्वनि सुनाई दी ?'
        ' इतनी  देर से और क्या सुन रहे हैं ?  रनिंग कमेंट्री,... ये कुसुमा बाग़- जहां कृष्ण-राधा मिला करते थे, कुसुमा-ललिता के साथ ।  यह उद्धव ताल - जहां ऊधो जी ठहरे थे गोपियों से हारने के लिए ।  ये  गोवर्धन पर्वत- जहां गोपाल ने गाँव को शरण में लेकर रोज-रोज की चख-चख अति-वृष्टि से बचाया था ।  ये सीधी-सादी राधा का, "राधा-ताल " और यह त्रिभंगी कन्हैया का टेढा -मेढ़ा  नौकुचिया "कृष्ण ताल "। तुम्हारी वंशी तो अनंत काल से बज ही रही है ।' सुमित्रा बोली ।
           'क्या बोर हो रही हो ? '
          ' हूँ ',.....
                                 " कान्हा तेरी मुरली मन हरषाए ।
                                  कण कण ज्ञान का अमृत बरसे, तन मन सरसाये ।
                                  या तन-मन की बात कहूं क्या, सागर उफना जाए ।
                                  बैरन  छेड़े  तान अजानी,   मोहनि-मन्त्र  चलाये ।
                                 मानहु  मर्यादा  मोरी  मोहन, मुरली  मन भरमाये । 
                                                       कान्हा तेरी मुरली मन हरषाए ।।  "

           ' वाह ! वाह ! सुमित्रा, तुम तो कवयित्री बनती जा रही हो ।'  ए.के. ने ताली बजाते हुए कहा ।
            'सब सोहबत का असर है।'  सुधा ने जड़ा ।
           ' अब में क्या कहूं ।  कुसुम बोली,  ' जब मन की वंशी बजे तो सब ओर  वंशी-धुनि सजे ।'
            ' मैं धन्य हुआ, कैसे कैसे गुणी, विज्ञ व कलाकारों की संगत में हूँ ।'  मैंने प्रणाम मुद्रा में कहा  । '
           ' हम भी हैं यहाँ, डाक्टर साहब ..' पीछे से आवाज़ आई ।
            मैंने पीछे मुड़कर देखा तो उछल पडा, ' अरे श्री ! तुम, यहाँ ।'
           ' गोवर्धन परिक्रमा देने आये हैं, पिताजी के साथ ।'
           'क्या मन्नत माँगने आये हो कि इस बार तो पार लगा ही दो, हे मुरली बजैया !'
           श्री घूरकर देख ने  लगा,  'क्यों बेइज़्ज़ती करते हो, महिलाओं के सामने ।'
           'अरे हम भी हैं', सुमि ने नज़दीक आते हुए कहा, 'परिचय तो कराओ ।'
           'हाँ, श्रीनाथ गुप्ता, मेरा इंटर का मित्र ।'
          'आप सब  तो डाक्टर लोग होंगे ।' श्री बोला, 'क्या कलियुग के कृष्ण के प्रबचन सुन कर बोर नहीं होरहे ?'
          ' ये परिक्रमा क्यों करते हैं ?' सुधा पूछने लगी ।,
          'यही आपके ज्ञानी जी बताएँगे । मैं क्या बताऊँ ।' अब बताओ, उसने मुझे इशारा किया ।
                            ' परिक्रमा. अर्थात परिक्रमण या परिभ्रमण, एक अर्थशास्त्रीय- समाज शास्त्रीय क्रमिक व्यवस्था है ।  किसी स्थान, पीठ या दैवीय शक्ति के उद्गम, विस्तार, उसकी महत्ता, वहां की सामाजिक- आर्थिक  स्थिति के बारे में पूरा देश जान सके - वह क्यां क्यों है, कब से है, उसके युक्ति-युक्त अर्थ व प्रयोजन का सम्पूर्ण परिक्रमित ज्ञान;   न कि सिर्फ चक्कर लगा कर चल देना;  ताकि देश का प्रत्येक नागरिक देश के उस प्रदेश, क्षेत्र व सभी स्थानों की स्थिति के जानकार हों तथा उसकी उन्नति में सुझाव व सहायता से योगदान कर सकें  और सामाजिक एकता  व राष्ट्रीय समरसता बढे ।  लगभग सभी धार्मिक पीठों का यही क्रम है ताकि वहां देश भर के लोग आयें,  उस स्थान का आर्थिक  विकास हो । उसी के साथ समाज, देश व मानवता का विकास जुड़ा हुआ है ।' मैंने विस्तार से बताया ।
           ' मान गए गुरू' ,  श्री बोला,  ' लगे रहो, लगे रहो ।  मैं चलता हूँ,  नहीं तो साथ के लोग अधिक आगे निकल जायेंगे ।  जब चक्कर में पडा  ही  हूँ तो चक्कर लगा ही लूं ।'
          ' ये क्या करता है?',  अचानक सुमित्रा ने पूछा ।
          'रोड-इंसपेक्टरी ',  'बी ए में दो बार फेल होकर धक्के खारहा है ।'
          'वाह ! क्या कृष्ण-सुदामा की जोड़ी है ।  और ऐसे कितने मित्र हैं तुम्हारे ?’
          ' लोकल हूँ भई,  और चुंगी वाले स्कूल से ।  धोबी, नाई, सब्जी वाले, दुकानदार, दूधवाले, पड़ोसिनें, बचपन की सखियाँ - सभी को झेलना-निभाना होता है ।  अपनी तो आदत ही ख़राब है, अब भी वही हाल है ।'
          सब हँसने लगे, सुमित्रा मुस्कुराकर चुप होगई ।
         ' क्या हम सब चलने ही चलने आये हैं या बैठकर आपस में कुछ हंसें बोलें भी ।'  कुसुम ने थकी थकी आवाज में कहा ।
        ' तो अब तक क्या होरहा था?'  मैंने कहा,  ' हाँ. जिन्हें आपस में स्पेशल हंसना-बोलना हो तो करें ।'
        ' चलो थर्मस निकालो, चाय पीते हैं, बैठकर', पेड़ तले बैठती हुई सुमित्रा बोली  ।

                **                                     **                                        **

                               प्रोफ़ेसर सचान बहुत धीमे बोलते थे, परन्तु उनके व्याख्यान बहुत महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर होते थे ।  सभी पढ़ाकू छात्र उनकी क्लास में आगे बैठना चाहते थे ।  यहाँ तक कि कभी-कभी तो आधी से अधिक क्लास आठ बजे के लेक्चर के लिए सात बजे ही  आकर बैठ जाती थी ।  लड़कियों-लड़कों,  होस्टलर -डे स्कोलर ..में क्लास में जल्दी पहुँचने की प्रतियोगिता रहती थी  और कभी सब आगे कभी पीछे होते रहते थे ।
                 जब सुमि और मैं तेजी से आकर आगे की सीट पर बैठ गए तो पीछे से ए.के. जैन ने कमेन्ट मारा,        'चुंगी के स्कूल वालों की समझ में देर से आता है,  आगे बैठना आवश्यक है ।  कान्वेंट में पढ़ने से अक्ल की आँखें खुल जाती हैं और दौड़कर आगे बैठने की आवश्यकता नहीं पड़ती ।'
            ' हुज़ूर, बड़े बाप के बेटे हो, पढ़ कर करोगे भी क्या ?  बाप की चलती हुई क्लिनिक चला लेना ।'  मैंने कहा,  ' वैसे अंग्रेज़ी बोलने और टाई लगाने के अलावा वहां पढ़ाया ही क्या जाता है,  कान्वेंट में,  बहुत सी फीस लेकर ।'
            'सुमित्रा दार्शनिकों के से अंदाज़ में कहने लगी,  'मेरे ख्याल से सभी इंगलिश स्कूल बंद कर दिए जाने चाहिए ।  सारे प्राइमरी स्कूल सरकारी नियंत्रण में या सामाजिक संस्थाओं द्वारा  या सरकार द्वारा बिना फीस के चलाये जाने चाहिए ।  कोई प्राइवेट स्कूल नहीं होना चाहिए ।  सभी स्कूलों में समान कोर्स,  समान पढाई व समान  फीस होनी चाहिए ।  नहीं तो क्या पता आगे चलकर ये प्राइवेट स्कूल भी एक व्यवसाय ही बन जाय ।'
         ' अपने ख्याल अपने पास ही रखो, हेड मास्टरनी जी ।' - किसी ने पीछे से कमेन्ट किया ।
        ' चुप चुप '   अन्य आवाज़ आई,  ' प्रोफ़ेसर साहब आगये ।'

               ....................  अंक छः समाप्त ......क्रमश: अंक सात .... अगली पोस्ट में .....