रविवार, 8 मई 2011

शूर्पणखा काव्य उपन्यास--अन्तिम सर्ग ९..परिणति...डा श्याम गुप्त....


शूर्पणखा काव्य उपन्यास-- नारी विमर्श पर अगीत विधा खंड काव्य .....रचयिता -डा श्याम गुप्त


         
        पिछली पोस्ट - अष्ठम सर्ग..संकेत... --में शूर्पणखा खर-दूषण से अपनी व्यथा कहती है और वे  तुरंत अपराधी को दंड देने के लिए से सहित चल पड़ते हैं , और राम के हाथों मारे जाते हैं, शूर्पणखा भाग कर रावण को घटना का समाचार देने लन्का को प्रस्थान करती है । प्रस्तुत है इस खन्ड काव्य का अन्तिम सर्ग.९ ..परिणति...कुल छंद ३६ जो दो भागों में प्रस्तुत किया जायगा । प्रस्तुत है प्रथम भाग...छंद १ से १८ तक....
१-
रामानुज चले गए वन को,
 ले आने को कंद मूल फल |
अवसर उचित देख रघुनंदन ,
हंसकर  बोले, -  हे वैदेही !
तुम व्रतशील , सत्य अनुशीला,
अनुगामिनी हो, प्रिय राम की ||
२-
सीता ने विस्मय में भरकर,
पूछा, ये क्या नाथ कह रहे !
क्या अपराध हुआ है कोई,
अथवा मेरे व्रत साधन में;
क्या कोई व्यवधान हुआ है ,
क्षमा करें यदि एसा है तो ||
३-
रघुवर बोले, हे प्रिय सीते !
वन में कुछ लीला करनी है |
साधारण नर-भाँति मुझे, अब-
वन में विचरण करना होगा |
जिस कारण वन वास लिया है,
शीघ्र पूर्ण करना है उसको ||
४-
अपने विछोह के पल का भी,
अब समय आगया है सीता |
तुम पावक में विश्राम करो,
मैं राक्षस-कुल का नाश करूँ |
विवरण सारा विस्तार सहित,
सीता को सब कुछ समझाया ||
५-
अपनी प्रतिकृति को प्रकट किया,
वैसी ही  सुन्दर,  व्रत शीला  ,
औ रूप गुणों की अनुकृति थी |
आज्ञा देकर, तुम यहीं रहो,
जानकी   समाई   पावक में ;
पहुँची अग्निदेव ऋषि आश्रम ||
६-
कोई नहीं जान पाया यह,
राम-जानकी का लीलाक्रम |
लीला , ब्रह्म और माया की ,
नर कब भला समझ पाता है |
प्रभु लीला नर मगन रहे तो,
भव-सागर से वह तर जाए ||
७-
प्रभु की इस लीला माया को,
परम भक्त भी समझ न पाता 
ज्ञान भाव की आस रहे तो,
भक्ति भाव कब मिल पाता है |
यह सारी लीला राघव की,
रामानुज भी जान न पाए ||
८-
क्रुद्ध सिंहिनी भाँति गरज़ती,
नागिन सी फुफकार मारती |
लेती  साँसें   पवन बेग सी ,
पहुँची  सीधी   राजभवन में |
जीवित   हुईं    पुरानी यादें,
मन का द्वंद्व उभर आया था ||
९-
भूत काल की सब घटनाएँ ,
किसी बुरे से स्वप्न की तरह ;
शूर्पणखा के मन:पटल पर,
लगीं उभरने बार बार फिर |
क्रोधावेश भाव में भरकर,
भरी सभा में लगी विलपने ||
१०-
मदपान किये तुम दशकंधर,
दिन रात मस्त तुम रहते हो |
आलस्य भरे सोते रहते,
अथवा विलास रत  रहो सदा |
सब राज-काज को भूल गए,
हो मस्त अहं में अपने ही ||
११-
है शत्रु  खडा दरवाजे पर,
तुम हो विलास रत झूम रहे |
ताज राज्य-कर्म, चातुर्य नीति,
हो अहंकार मद फूल रहे |
गुप्तचरी व्यवथा ध्वस्त हुई ,
तुमको कुछ भी है पता नहीं ||
१२-
उचित नीति बिन राज्य नष्ट हो,
धन जो धर्म कार्य नहीं आये |
चाहे जो  सत्कर्म करे  नर,
ईश्वर प्रेम बिना नहिं भाये |
बिना विवेक नाश हो विद्या,
नष्ट कर्म फल, श्रम न करे जो ||
१३-
यती संग से विभ्रम मति हो,
नष्ट कुमंत्र करे राजा को |
अति सम्मान नाश ज्ञानी का,
पिए-पिलाए लज्जा जाए |
प्रीति- प्रणय बिन, गुणी अहं से,,
तुरत नष्ट हों नीति यही है ||
१४-
दुश्मन को, पद दलित धूलि को,
अग्नि, पाप, ईश्वर व कर्म को ;
कभी न छोटा करके  समझें |
इनके बल गुण कर्म भाव का,
नहीं कभी भी अहंकार वश,
करें  उपेक्षा,    असावधानी || 
१५-
तेरे  जैसे   वीर,  प्रतापी,
विश्वजयी, लंका के अधिपति;
के जीते मेरी यह गति हो |
कोई जिए मरे तुमको क्या ,
गिर कर सभा मध्य, शूर्पणखा;
करने लगी विलाप विविध विधि ||
१६-
स्तब्ध सभासदों ने उठकर,
आसीन किया सिंहासन पर |
क्रोधित हो बोला दशकंधर,
किसने श्रुति-नासा हीन किया |
किस देव,  दनुज  या मानव ने,
दे दिया मृत्यु को आमंत्रण ||
१७-
वे सिंह सामान पुरुष हैं दो,
नृप दशरथ के हैं वीर पुत्र;
जो अवध पुरी से आये हैं |
उनका बल पाकर हे भ्राता ! 
ऋषि मुनि गण,बनचर,वन वासी ,
वन में रहते हैं अभय हुए ||
१८-
अति सुन्दर वालक लगते हैं ,
पर परम वीर, धन्वी दोनों;
प्रबल प्रतापी काल रूप हैं |
नाम 'राम', लघुभ्राता लक्ष्मण,
रति समान सी सुन्दर नारी;
सीता नाम, साथ है उनके ||   -----क्रमश: भाग दो.......

 
 
             
               पिछली पोस्ट नवम सर्ग.परिणति के भाग एक.. --अपनी दुर्दशा  का कारण राम,- लक्ष्मण व  सीता की सुन्दरता का वर्णन करके , खर-दूषण बध का प्रसन्ग भी बताती है । प्रस्तुत है द्वितीय व अंतिम भाग..१९ .छंद से ३६  तक......
१९-
सुनकर लंकापति की भगिनी ,
लघु भ्राता ने परिहास सहित;
श्रुति-नासा हीन किया मुझको |
उनका  उद्देश्य  यही   शायद,
पृथ्वी को दैत्य विहीन करें ;
मुझको लगता है, हे रावण !
२०-
खर-दूषण-त्रिशिरा,यह सुनकर,
जब   बदला   लेने   को पहुंचे ;
उनका भी सारी सैन्य  सहित,
वध कर डाला क्षण भर में ही |
खर दूषण त्रिशिरा वध सुनकर ,
क्रोधाविष्ट होगया रावण ||
२१-
तू भगिनी वीर दशानन की,
चिंतित मत हो प्रिय शूर्पणखा |
अति कुशल अंग शल्यक द्वारा,
वह रूप पुनः सज जाएगा |
सचिवों को कहा तुरंत अभी,
उपचार व्यवस्था करवाएं ||
२२-
वह राम तुझे अपनाएगा,
या मृत्यु-दंड भागी होगा |
वह नारी सीता, रावण के,
अन्तः पुर की शोभा होगी |
लक्ष्मण को तेरा दास्य-भाव ,
या मृत्यु दंड चुनना होगा ||
२३-
विविध भांति निज बल-पौरुष का,
वर्णन करके शूर्पणखा को ;
समझा कर के शांत कराया |
अपने भवन गया फिर रावण ,
खिन्न मना हो चिंतातुर था ;
नींद नहीं आयी आँखों में ||
२४-
अंतर्द्वंद्व चल रहा मन में,
सीता, वही जनक तनया हैं;
धनुष यज्ञजिसके कारण था |
दशरथ-नंदन राम वही हैं,
धनुष भंग करके शंकर का,
परशुराम का मान हर लिया ||
२५-
सुर गन्धर्व दनुज नर, जग में,
एसा   नहीं   वीर    है   कोई ;
मेरे  ही  समान  वलशाली,
खर दूषण का जो वध करदे |
क्या हरि का अवतार होगया,
देवों का प्रिय करने के हित ||
२६-
यदि एसा है तो निश्चय ही ,
मुझको वैर बढ़ाना होगा |
संसारी छल-छंद , द्वंद्व हित,
पाप-पंक में डूब गया तन |
तामस भाव भरा मानस में ,
नहीं हुआ परमार्थ-धर्म कुछ ||
२७-
समय नहीं अब बचा धर्म हित,
तामस तन से भक्ति न होती;
अहं भाव से डूबा तन मन |
निकट आगया है लगता अब,
रावण के उद्धार का समय ;
मुनि का शाप समाप्त होरहा ||
२८-
शायद उचित समय यही है,
शूर्पणखा पर किये गए उस;
अन्याय  से उऋण  होने का |
पश्चाताप अग्नि जो जलती-
मन में, कुछ तो शीतल होगी ;
बदला भी लेना ही होगा ||
२९-
यदि वे हरि  अवतार नहीं तो,
बध कर  दोनों भूप सुतों को ;
उस नारी को हर लाऊंगा |
लंका अधिपति की भगिनी के,
अपमान के परिष्कार हित ;
कठिन दंड तो देना होगा ||
३०-
अथवा प्रभु के वाणों से ही,
मारा जाऊं , तर जाऊंगा |
तामस तन से मुक्ति मिलेगी,
वीर-व्रती जग में कहलाऊँ |
हो उद्धार निशाचर कुल का,
निश्चय ही यह उचित समय है ||
३१-
ज्ञान अहं के तम में भटके,
पाप-पंक में डूबे नर का -
तो प्रारब्ध यही होता है |
प्रभु के हाथों मुक्ति मिले तो,
प्रायश्चित है यह रावण का ;
रावणत्व के अहं भाव का  ||
३२-
निश्चय कर वैर बढाने की,
मन में योज़ना बना डाली |
वह यातुधान मारीचि बना-
कंचन मृग, पंचवटी आया |
बनी भूमिका सिया हरण की -
एवं लंका के विनाश की ||
३३-
मंदोदरी बोली, शूर्पणखा !
क्यों तूने अनुचित कर्म किया ?
अपने को करवाया कुरूप,
अपमान कराया लंका का |
लंकेश हठी कब मानेगा ,
कुल नाश होगया निश्चित है ||
३४-
भाभी   मंदोंदरि ! क्षमा करें-
फल मिला मुझे निज कर्मों का |
भ्राता रावण के साथ सभी,
राक्षस कुल को भी तो अपने ;
कर्मों का भोग भोगना है ,
शायद नियति का खेल यही है ||
३५-
मानव अपने कर्मों से ही,
अपना भवितव्य बनाता है |
हम तो बस केवल हैं निमित्त ,
रचती है नियति ही घटनाएँ-
जब कर्मों के समुचित फल का,
वह ईश सजाता है विधान ||
३६-
यह मातृभूमि  भी क्षमा करे,
मुंह नहीं दिखाने लायक मैं |
गुमनाम किसी अनजान डगर-
पर जीवन होजाए निःशेष |
इतिहास भुला देना मुझको,
थी एक अभागिन शूर्पणखा ||       -------इति...       ---शूर्पणखा काव्य-उपन्यास .......

कुंजिका---  १= प्लास्टिक सर्जन व  अंगों को शल्य क्रिया द्वारा ठीक करने में कुशल अस्थि व अंग शल्यक...कटे हुए  नाक व कान  आदि को प्लास्टिक शल्य द्वारा ठीक करने की सबसे प्राचीन व भारतीय विधि को आज भी अपनाया जाता है जिसे --इन्डियन मेथड  या  शुश्रुत की विधि कहा जाता है | =  सीता स्वयंबर में स्वयं रावण ने भी शिव-धनुष उठाने का असफल प्रयास किया था अतः वह राम के कौशल से परिचित था....   =  नारद-मोह प्रकरण में जय विजय नामक द्वार पालों ने नारद का उपहास किया था अतः नारद के श्राप से वे रावण व कुम्भकर्ण बने थे, अनुनय करने पर नारद जी ने कहा था की विष्णु के अवतारी भाव से ही दोनों का श्राप समाप्त होगा |...  = राजनीति के  कारण शूर्पणखा के पति के ह्त्या रावण द्वारा की गयी थी ..परन्तु इस  घटना के कारण रावण को मन ही मन स्वयं को दोषी मानता था और भगिनी के प्रति अन्याय |







4 टिप्‍पणियां:

Vivek Jain ने कहा…

शानदार
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

डा श्याम गुप्त ने कहा…

धन्यवाद , विवेक जी....

पूनम श्रीवास्तव ने कहा…

do shyam ji
bahut hi sundar .samajh me nahi aa raha ki aage kya likhun .
pahli baar aapke blog par aai hun par man piri tarah se nat-matak ho chala hai .
aapne itne achhe tareeke se shri ram ji ki leela ko darshaya hai ki bas anand hiaanand aagaya
aage ki kadi shighra padhna chaungi .thoda hat kar vishhay laga is liye aur bhi achha laga .
bahut abht dhanyvaad
harddik badhai ke saath
poonam

डा श्याम गुप्त ने कहा…

धन्यवाद पूनम जी...
----- यह एक काव्य-उपन्यास है जिसका यह अंतिम सर्ग है जो आपने पढ़ा ...इसी ब्लॉग पर प्रथम खंड से अंतिम तक पूरा काव्य-उपन्यास उपलब्ध है..क्रमिक पोस्टों में ...अवश्य ही पढकर प्रतिक्रया बताएं .